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“लेबर रूम में नर्स ने गालियां दीं फिर सर्जिकल ब्लेड से रेहाना की जांघ पर कट लगा दिया”

फोटो साभार- Flickr

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11 अप्रैल अर्थात राष्ट्रीय सुरक्षित मातृत्व दिवस। मातृत्व जीवन में संतोष और आनंद लाता है मगर एक औरत के जीवन और तंदुरुस्ती के लिए कुछ खतरे भी साथ लाता है।

भारत की नैशनल हेल्थ पॉलिसी कहती है,

साल 2020 तक प्रति एक लाख शिशुओं के जन्म पर मातृ मृत्यु दर को 100 से कम लाना है।

वहीं, NFHS-4 के आंकड़ों के अनुसार,

मातृ मृत्यु दर (MMR) को कम करने के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं, इन्हीं पर प्रश्नचिन्ह लगाती राजस्थान की कुछ महिलाओं के वाक्यों से शुरुआत करते हैं।

गर्भावस्था के दौरान एक बार भी आंगनवाड़ी से पोषाहार की थैली नहीं मिली: सोमा

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोट साभार- Flickr

सोमा (बदला हुआ नाम) 35 साल की हैं और झाड़ू बनाने वाली बागरिया समुदाय से आती हैं। 4 बच्चों की माँ हैं और पांचवी बार पेट से हैं। आठवां महीना चल रहा है और आज तक किसी ANM या आशा ने इनकी स्वास्थ्य जांच नहीं की है।

राजसमन्द (राजस्थान) ज़िले के रेलमगरा की रहने वाली सोमा की जांच को लेकर जब स्थानीय ANM ममता पालीवाल से पूछा तो उन्होंने कहा कि बागरिया लोग छोटी जाति के हैं।

ममता आगे कहती हैं, “वहां की महिलाएं वैसे ही मज़बूत होती हैं। इसलिए मैं उनके डेरे में जाकर जांच नहीं करती। ये बागरिया महिलाएं हर दूसरे साल गर्भवती हो जातीं हैं। कितनी बार जाऊं उनकी जांच करने?”

जबकि सोमा का कहना है कि उन्हें पूरी गर्भावस्था के दौरान एक बार भी आंगनवाड़ी से पोषाहार की थैली नहीं मिली है।

नर्सों की हरकतों ने प्राइवेट अस्पताल जाकर डिलेवरी करवाने के लिए मजबूर किया

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

भीलवाड़ा ज़िले की सीमा पर बसे मोइनपुरा की रेहाना (बदला हुआ नाम) अपनी पहली डिलीवरी के लिए सरकारी अस्पताल गईं।

वहां दर्द से बुरी तरह तड़पने के बावजूद केवल मोईनपुरा का पता देखकर उस पर ध्यान नहीं दिया गया। लेबर रूम में नर्स ने गंदी-गंदी गालियां दीं और मना करने पर सर्जिकल ब्लेड से रेहाना की जांघ पर कट लगा दिया।

नर्स ने कहा, “जब पति के साथ सोई, तब तो मज़े आ रहे थे और अब यहां आकर चिल्ला रही है।” रेहाना इतना डर गई कि उसने अपनी अगली डिलीवरी पैसे नहीं होने के बावजूद उधार की रकम से प्राइवेट अस्पताल में करवाई।

सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में महिला चिकित्सक का पद सालों से रिक्त है

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

शाहबाद (बारां, राजस्थान) सहरिया जनजाति क्षेत्र है। इसकी भूला पंचायत का उप-स्वास्थ्य केंद्र एक पहाड़ी के ऊपर स्थित है। यहां तक जाने का रास्ता कच्चा और पथरीला है। कई बार महिलाओं को प्रसव के लिए वहां उठाकर ले जाना पड़ता है।

जनजातीय क्षेत्र होने से ANM रात को नहीं रूकती हैं और अगर किसी को देर रात प्रसव पीड़ा हो तो 85 किलोमीटर दूर ज़िला मुख्यालय अस्पताल जाने के अलावा और कोई चारा नहीं है।

कई बार रास्ते में ही प्रसव हो जाता है तो कई बार प्रसूताएं दर्द से कराहते-कराहते दम तोड़ देती हैं। कहने को शाहबाद में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है मगर यहां महिला चिकित्सक का पद सालों से रिक्त है।

जब तक डॉक्टर की जेब गर्म ना हो, तब तक गर्भवती महिलाएं लेबर रूम में दर्द से चिल्लाती रहती हैं

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

राजसमन्द की एक संस्था “जतन” में काम करने वाली महिला कार्यकर्त्ता सुमित्रा मेनारिया कहती हैं कि हालात डराने वाले हैं। गर्भवती औरत तब तक लेबर रूम में दर्द से चिल्लाती रहती हैं, जब तक कि डॉक्टर की जेब गर्म ना हो। प्रसव के बाद जब तक “मिठाई के पैसे” नहीं दो तो नर्सें जच्चा-बच्चा को परिवारजनों के सामने नहीं लाती हैं।

हर बार हर जगह बधाई और सफाई के नाम पर पैसे लिए जाते हैं सो अलग। कहने को आने-जाने को 108 और 104 एम्बुलेंस की सुविधा हैं मगर यह भी सच है कि यह एम्बुलेंस केवल गर्भवती महिलाओं को अस्पताल तक लाने का काम करती हैं। वापस लौटने का इंतज़ाम उन्हें खुद करना होता है। ऐसे में कुछ हज़ार का जो चेक उन्हें मिलता है, वह आवगमन में ही खर्च हो जाता है।

एक पलंग पर दो-दो प्रसूताओं को सुलाने की मजबूरी

सुमित्रा आगे कहती हैं, “पंचायत स्तर पर उप-स्वास्थ्य केन्द्रों के नहीं खुलने या वहां सुविधाएं नहीं होने से परिवारजन उन्हें ज़िला अस्पताल लेकर भागते हैं। दूर से आए कई लोग पहले से आस-पास की सस्ती धर्मशालाओं में रुककर इंतज़ार करते हैं। इससे ज़िला अस्पतालों में भार इतना ज़्यादा बढ़ जाता है कि एक-एक पलंग पर दो-दो प्रसूताओं को सुलाना मजबूरी हो जाती है। हाल ही में राजस्थान के एक प्रमुख समाचार पत्र ने खुलासा किया कि राज्य के कई अस्पतालों में चौकीदार और सफाईकर्मी प्रसव कराते मिले।

ऐसा नहीं है कि सभी कहानियां निराशा वाली हैं। उदयपुर के गरासिया जनजातीय बाहुल्य क्षेत्र “कोटडा” की नई उपखंड अधिकारी टी. शुभमंगला (प्रशिक्षु आईएएस) एक गाइनोकोलोजिस्ट हैं। उन्हें जब मौका मिलता है तो वो निकट के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में जाकर महिलाओं का प्रसव करवाने में मदद करती हैं।

कोटड़ा में भी पिछले कई सालों से कोई महिला प्रसूति विशेषज्ञ चिकित्सक नहीं है। उदयपुर के मुख्य स्वास्थ्य एवं चिकित्सा अधिकारी डॉ. दिनेश खराड़ी खुद स्वीकारते हैं कि उदयपुर के 70% राजकीय स्वास्थ्य केन्द्रों पर महिला चिकित्सकों के पद रिक्त हैं। वह यह कहने से भी नहीं चूकते कि राजस्थान के हर ज़िले के कमोबेश यही हालात हैं।

जननी सुरक्षा योजना का लाभ ज़रूर मगर गर्भावस्था के खतरे हज़ार

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

भारत जैसे विकासशील राष्ट्र, जहां स्वास्थ्य सेवाओं पर ज़्यादा खर्च शुरुआत से ही नहीं किया गया है, वहां गर्भवती और धात्री महिलाओं की स्थिति ज़्यादा बेहतर कैसे कही जा सकती है?

कहने को ग्रामीण क्षेत्र में सरकारी तंत्र अच्छे से काम कर रहा है और घर पर डिलीवरी लगभग बंद हो गई है मगर यह भी सच है कि हर साल कोई 1,400 महिलाएं गर्भधारण और प्रसव से जुड़ी दिक्कतों के कारण मर जाती हैं।

गर्भावस्था के दौरान हज़ारों हज़ार दूसरी महिलाएं पेचीदगियों का शिकार हो जाती हैं। कई महिलाओं और उनके बच्चों की जानें भी चली जाती हैं या उन्हें गम्भीर रूप से अक्षम बना कर छोड़ देती हैं। 

प्रसव के खतरों को कैसे घटाया जाए

अगर महिला गर्भावस्था से पहले स्वस्थ हों और पोषण से भरपूर हों, या फिर हर एक गर्भधारण के दौरान कम-से-कम चार बार प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्यकर्ता से उसकी जांच हो। बच्चे की पैदाइश के 12 घंटे बाद और प्रसव के छह सप्ताह बाद भी महिला की जांच की जानी चाहिए।

प्रसव से पहले और प्रसव बाद की सेवाएं उपलब्ध कराने, प्रसव में मदद के लिए स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने और गर्भावस्था और प्रसव के दौरान गम्भीर दिक्कतों से घिरी महिलाओं के लिए देखभाल और आगे बढ़ी स्वास्थ्य सेवाओं का खास इंतजाम करने की मुख्य ज़िम्मेदारी सरकारों की है।

भारत सरकार राष्ट्रीय जननी सुरक्षा एवं जननी शिशु सुरक्षा योजना के माध्यम से महिलाओं को संस्थागत प्रसव पर नकद सहयोग और अन्य सहायता पहुंचा रही है मगर यह भी वास्तविकता है कि इसके फायदे के चक्कर में अस्पताल तक आने वाली महिलाओं के साथ रिश्वत लेने के किस्से भी हज़ार हैं।

दाई परम्परा खत्म हो चली

राजस्थान समेत जनजातीय क्षेत्रों में दाइयों से प्रसव की पुरानी समृद्ध व्यवस्था रही है। सरकारों ने संस्थागत प्रसव के नाम पर एक ही झटके में इस व्यवस्था को खत्म कर दिया। जबकि अस्पतालों में चिकित्सकों के अधिकांश पद खाली थे फिर भी दाइयों को बेहतर प्रशिक्षण देने के बजाय उन्हें इस सिस्टम से बाहर ही कर दिया गया।

राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे जनजातीय क्षेत्रों में जहां स्वास्थ्य सेवाओं की बदतर स्थिति है और अस्पतालों तक पहुंचने की परिवहन सुविधा और सडकें नहीं है। वहां इसने कोढ़ में खाज वाला काम किया।

सरकार को चाहिए कि जिन क्षेत्रों में वह डॉक्टर मुहैया नहीं करवा पा रही है, वहां दाई को अच्छे से प्रशिक्षण देकर उन्हें वापस मुख्य धारा में लाया जाए। इससे कम-से-कम सम्मानजनक और सुरक्षित प्रसव से अस्पताल के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी और चौकीदार तो बाहर हो पाएंगे।

बेहतर पोषण और बेहतर एंटीनेटल-पोस्टनेटल के लिए ज़ीरो टॉलरेंस नीति ज़रूरी

जच्चा-बच्चा के बेहतर स्वास्थ्य-पोषण के लिए आवश्यक है कि सरकार के अलग-अलग विभागों के बीच बेहतर तालमेल के साथ इस ओर ध्यान दिया जाए। आज के समय में जहां महिलाओं के स्वास्थ्य की ज़िम्मेदारी चिकित्सा-स्वास्थ्य विभाग की है, तो पोषण का ज़िम्मा महिला बाल विकास उठा रहा है।

इनके बीच परस्पर तालमेल बहुत ज़रूरी है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में गर्भवती महिलाओं की जांच आंगनबाड़ी केन्द्रों पर ही होती है। सम्मान के साथ प्रसव हर महिला का अधिकार है। अतः नर्सों सहित इस पेशे से जुड़े सभी स्वास्थ्य कर्मियों का समय-समय पर पशिक्षण बहुत आवश्यक है।

भार बढ़ने पर तनाव नहीं हो और वे महिलाओं के साथ सम्मानजनक रूप से पेश आएं इसके लिए भी ट्रेनिंग बहुत आवश्यक है। इस दौरान होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सरकारों को लेबर रूम के बाहर पोस्टर लगा देने से कुछ नहीं होगा। 

सरकार द्वारा कठोर कदम उठाने की ज़रूरत

इसके लिए सरकार को कठोर कदम उठाने होंगे। प्रसव के बाद लेबर रूम की सफाई, बच्चे की शक्ल देखने के लिए मिठाई की मांग और बेहतर प्रसव के लिए डॉक्टर को दी जाने वाली रिश्वत पर रोक लगाया जाना बहुत ज़रूरी है।

यह भी बहुत ज़रूरी है कि ग्रामीण स्तर की स्वास्थ्य सेवाओं को और मज़बूती प्रदान की जाए। उप-स्वास्थ्य केन्द्रों (सब सेंटर) पर डिलीवरी की सुविधाएं, इमरजेंसी की स्थिति में एम्बुलेंस की व्यवस्था, ANM को रात्रि में अपने केंद्र पर ही रुकने की बाध्यता के साथ उनके लिए क्वार्टर का निर्माण आदि पर सरकारों को ध्यान देना होगा।

घर-परिवार वाले भी ध्यान दें

ऐसा नहीं है कि सारी ज़िम्मेदारी सरकार की है। घर पर भी गर्भवती- धात्री महिलाओं का केयर बहुत आवश्यक है। प्रसव के दौरान ममता कार्ड बनवाकर पूरी चार बार एंटीनेटल स्वास्थ्य जांच, पेट के घेरे, हिमोग्लोबीन, वज़न आदि की जांच बेहद ज़रूरी है।

इसके अलावा सोनोग्राफी, खान-पान का ध्यान रखने, ताण की बीमारी से बचने के लिए टिटेनस का टीका लगवाने, आयरन फोलिक एसिड की गोलियां समय-समय पर खिलाते रहने, ज़्यादा भारी काम नहीं करवाने आदि शामिल हैं।

किसी भी प्रकार का खतरा जैसे, खून बहाना या गर्भस्थ बच्चे का हिलना-डुलना बंद होना, ब्लड प्रेशर बढ़ जाना, पैरों में सूजन आदि में तत्काल डॉक्टर को दिखाना आवश्यक है।

अगर पहले कोई डिलीवरी ऑपरेशन से (सिजेरियन) हुई है तो अगले प्रसव में बहुत ज़्यादा ध्यान रखना आवश्यक होता है। प्रसव के बाद जच्चा-बच्चा की समय-समय पर स्वास्थ्य जांच, उचित खान पान, साफ-सफाई का ध्यान रखना भी बहुत आवश्यक है।


सोर्स- नैशनल हेल्थ सर्वे रिपोर्ट, नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4, यूनिसेफ

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