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“मैं लिखती हूं क्योंकि यह मुझे इमोशनल डिसबैलेंस से बचाता है”

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लिखना-पढ़ना समाज की जंग लगी सो कॉल्ड सभ्यता पर दस्तक देना है। अभी भी दुनिया ऐसे लोगों से भरी पड़ी है, जो ना कुछ कहते हैं और ना ही सुनना चाहते हैं। जो ना लिखते हैं और ना ही किसी और का लिखा पढ़ना चाहते हैं।

मैं लिखती हूं क्योंकि मैं संवेदनशील हूं। दुनिया के हर सुख-दुख को महसूस करती हूं। बचपन खूबसूरत बीता, पढ़ाई की लेकिन लिखने की इजाज़त उस वक्त नहीं थी।

कहने को तो लिखने पर कोई खास पाबंदी नहीं रही लेकिन वो वक्त, वे लोग, वो जगह, लिखने के लिहाज़ से उचित नहीं थे क्योंकि तब वहां आपके लिखे हर शब्द पर प्रश्नचिन्ह था। कोई शब्द कब, कैसे और क्यों लिखा गया? यह बताना लिखने वाले की आज़ादी को ठेस पहुंचाता है।

एक दौर था जब मैं किताबों के बीच छुपाकर डायरी लिखा करती थी

लेकिन मैं तब भी लिखती थी, जब पूरा घर सोता था तब मैं मैथ्स, फिज़िक्स, केमिस्ट्री की किताबों के बीच छुपाकर डायरी लिखती थी। यूं तो घर में इस तरह का अवैध सामान रखने पर सख्त पाबंदी थी।

इसलिए मैंने भी उनकी बात का लिहाज़ रखते हुए डायरी पर एक न्यूज पेपर का कवर चढ़ा दिया था बाकी किताबों की तरह। अब मेरी डायरी वैध हो चुकी थी, जिसकी जानकारी सिर्फ मुझे और मेरे दादा जी को थी।

हां दादाजी, पूरा घर एक तरफ और दादाजी एक तरफ। बेहद खूबसूरत और ज़िंदादिल इंसान हैं वो। इतने कि प्यार मैं करती थी और मेरी लिखी प्रेम की कविताओं को झेलते वो थे। मैंने जब 9th क्लास में पहली बार कविता लिखी थी तो अनुमति उन्होनें ही प्रदान की थी।

जब मैं खुद से लड़ रही थी कि लोग क्या सोचेंगे

खैर, पहले यह बताने में डर लगता था कि मैं लिखती हूं इसलिए नहीं कि कोई पूछेगा कि क्या लिखती हो? कैसे लिखती हो? बल्कि इसलिए कि किसी ने पूछ दिया कि क्यों लिखती हूं? तब क्या जबाब दूंगी?

मुख्यतः अगर किसी ने पूछ दिया कि प्रेम की ये कविताएं किसके लिए लिखती हो? तब कैसे बताउंगी कि मेरा बॉयफ्रेंड है और मैं उसको प्यार करती हूं या अब बॉयफ्रेंड नहीं है, हम अलग हो चुके हैं या कुछ और जो मेरी ज़िंदगी में चल रहा है। वह लोगों तक पहुंचेगा तो क्या सोचेंगे सब मेरे बारे में?

एक रोज़ मेरी वजह से मम्मी को डांट पड़ी थी

ये सब उस वक़्त होना लाज़मी था और इतने दिनों तक चलता रहा ये सब क्योंकि इसकी आदत डाली गई थी बचपन से हमें। मुझे याद है पहली बार जब ज़िद्द की थी तो डांट पड़ी थी।

जब गली के लड़कों के साथ खेलने चली गई थी तो बबाल हुआ था घर पर। जब पास वाली दुकान से कुछ ख़रीदना होता था तो भी यह कहा जाता था कि कहां जा रही हो?

कुछ चाहिए था तो पापा और भाई को क्यों नहीं बोला? बिना दुप्पटे के खाना परोसने पर मम्मी को डांट पड़ी थी कि इसको बोलो दुपट्टा लेकर खाना लगाए।

दोस्त मज़ाक बनाते हुए कहते हैं कि तुम क्रांति करोगी

ये सब उसी कतार की चीज़ें है जहां से गुजरते-गुज़रते हिम्मत घुटने टेकने लगती है। इसके बाद आप ऐसे किसी भी काम को करने की जुर्रत नहीं करेंगे जिसकी इज़ाजत ना हो।

लिखना इन सारी जंज़ीरों को तोड़ने की हिम्मत देता है। दोस्त मजाक बनाते हैं कि क्रांति करोगी, यकीन मानो ये हिम्मत जहां से आती है ना क्रांति शब्द वहीं से पैदा होता है।

आज भी सवाल-जवाब का दौर जारी है

आज मैं घर से बाहर अकेले घूम सकती हूं। हालांकि अभी भी सवाल जवाब जारी है लेकिन मैं जवाब ज़रूरत के हिसाब से देती हूं। दुपट्टे को भी अपने हिसाब से ओढ़ती हूं। जो जैसा महसूस करती हूं बिना सोचे-समझे लिख देती हूं।

अब घर में सब बैठकर मेरी कविताएं भी सुन लेते हैं। मैं लिखती रहूंगी क्योंकि लिखना मेरे लिए मेरी ताकत है। यह मुझे हर तरह के इमोशनल डिसबैलेंस से बचाता है।

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