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“रामायण, महाभारत के बदले यदि सरकार ये प्रोग्राम चलाती तो पूरे भारत का कल्याण होता”

भारत के भौगोलिक विस्तार का परिचय कक्षा 10 तक करा दिया जाता है। भारत के सांस्कृतिक विस्तार का परिचय कराए जाने का सरकारी प्रयास अधूरे मन से किया जाता रहा है। भारत के भौगोलिक और सांस्कृतिक आयामों को दर्शाने का स्वर्णिम अवसर भारत सरकार रामायण और महाभारत दिखा कर खो रही है। भारत के संविधान के बनने की प्रक्रिया और उसके बहस का हुबहू नाट्य रूपांतरण लोकसभा और राज्यसभा टीवी के पास है। भारत के प्रशासनिक बंटवारों के इतिहास और वर्तमान को लेकर न जाने कितनी सारी रोचक जानकारियों से लबरेज सामग्री हमारे प्रसार भारती के पास है।

अरब सागर में स्थित लोगों को मुख्य भूमि और मुख्य भूमि के लोगों को उन द्वीप समूहों के जनजीवन से परिचित कराने वाले कार्यक्रमों के प्रसारण को आसानी से अभी प्रोत्साहित कर, लोगों को देश को जानने समझने का माहौल बनाया जा सकता है।

संविधान के नाट्य रुपांतरण का एक दृश्य

बंगाल की खाड़ी में आबाद 36 भारतीय द्वीपों का परिचय हम सब घर बैठे पा सकते हैं। सामूहिक तौर से सचेत होकर सयास प्रयास से ऐसा कर हम अपने बीच की मानसिक दूरियां मिटा सकते हैं। भिन्न-भिन्न राज्यों की जनजातियों से परिचय कराता हुआ हर डिजिटल नाट्य और तथ्यात्मक कार्यक्रम, टेलीविजन पर लोगों के लिए उपलब्ध करा नस्लीय भेदभाव का समूल नाश कर सकते हैं। भारत कैसे अपनी भिन्न अस्मिताओं में साथ-साथ रहते हुए इस जुड़ाव को महसूस करता है, इसे हम बिना किसी साझे दुश्मन की उपस्थिति में भी कैसे बनाये रखें इसका एक स्वर्णिम अवसर हम खो रहे हैं।

हरियाणा पंजाब के लोगों को जब सुदूर अरुणाचल की जनजातियों के बारे में परिचय होगा और वो परिचय एक भारतीय का दूसरे भारतीय के अलग होने को प्रोत्साहित करने की दिशा में मुड़ेगा तो सोचिये कैसे स्थानिकता के आधार पर होने वाले भेदभाव अपने आप ही मिट जायेंगे। जब हिंदी भाषाई जनता, तमिल और मलयालम भाषाई साहित्य का आस्वादन करेगी तो उन्हें महसूस होगा कैसे हम भावनात्मक तौर पर एक हैं, भले ही हमारी अभिव्यक्ति का तरीका अलग है आराधना पद्धति अलग है, खान पान अलग होने के भौतिक कारण हैं, पर जीवन जीने का संघर्ष एक है।

गुजरात और महाराष्ट्र को बिहारी और उतर प्रदेश की स्थिति का आभास होगा, भैया जी बोलने के  मिठास का पता चलेगा, पूर्वांचलियों को भाऊ और मोटा भाई के आदर से परिचित कराया जाएगा तो स्थानीय ओछी राजनीति पर लगाम कसने में अधिक मेहनत नहीं करनी होगी। कश्मीर भारत का अखंड हिस्सा भावनात्मक समझदारी से मन के धरातल पर बनाया जा सकता है। उत्तर पूर्व को समझाया जा सकता है कि खान पान रहन सहन के कितने अलग अलग रूप भारत के मैदानी इलाके में भी पग-पग पर हैं।

हमारे दूरदर्शन के पास इस तरह का संवाद स्थापित करने का भरपूर साहित्य है। टेलीविजन और रेडियो के माध्यम से प्रसार भारती एक भारत के संवाद को अलग-अलग रागों में बखूबी परोस सकती है। हम सब अपनी-अपनी ढपली लेकर भी कैसे “मिले सुर मेरा तुम्हारा … तो सुर बने हमारा” का राग गुनगुनाते रहें मन से भीतर से स्वत: इसे सुनिश्चित किया जा सकता है।

धर्म की आड़ में हम अपनी समस्याओं को कब तक छुपाते रहेंगे? अपने आपको जानेगा भारत तभी तो भारत के हर कण और हर अंश को अपना मानेगा भारत और रुकेगा हमारा आपसी महाभारत।

सरकारी स्तर पर, निजी तौर से हम सभी अपने-अपने सांस्कृतिक विभेद को आदर दिलाने के प्रति सजग हो एक मनोवैज्ञानिक रिक्तता को भरने के लिए प्रयास कर सकते हैं इन बचे हुए 16 दिनों में। भिन्न भाषी सांसद अपनी-अपनी मातृभाषा में अपने-अपने प्रतिनिधि क्षेत्र के बारे में उस स्थान के बारे में डिजिटल तरीके से छोटा-छोटा वीडियो क्लिप साझा कर सकते हैं। इसे स्थान विशेष की भाषा में अनूदित कर हर क्षेत्र के परिवेश से परिचय कराया जा सकता है।

रामायण और महाभारत की वास्तविक प्रासंगिता भी यही है कि राम को वनवास दिया गया तो उन्होंने अयोध्या छोड़ा और जंगल की समस्याओं को एक-एक कर निपटाया। महाभारत में कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का ज्ञान तब दिया जब अर्जुन अपना गांडीव अपनों के मोह में नहीं उठा पा रहा था और अर्धसत्य तब कहलवाया युध्ष्ठिर से जब ऐसा करना ज़रूरी था। समय की मांग यही है, अभी हम वनवास में वनवास की समस्या पर ध्यान दें लॉकडाउन से होने वाली परेशानी के बारे में सजग हो कर सोचें। अपने भारत के स्वभाव को जाने, ताकि आगे जब भी ऐसे निर्णय लिए जाएं तो हम धर्म की आड़ में छुपे ना, बल्कि वास्तविकता से सामना करें।

हमारी स्वास्थ्य सुविधाएं कहां कैसी हैं? हमारे शिक्षण की व्यवस्था कैसी है? इस तरह के प्रश्नों की ओर सामूहिक मनोविज्ञान को ठेला जा सकता है। पर नहीं, हमें तो भैया अपने अतीत में ही गोता लगाना है। हमारे अतीत के भारतवासियों ने कर लिया अपने समय का महान काम, अभी हम क्या कर रहें हैं? कैसे हैं? इस पर सामूहिकता से विचार कराने के प्रयास की जगह हम फिर से घुस रहे हैं पलायन की 5000 साल पुरानी परम्परा में।

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