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24 घंटे से भूखे झांसी के मज़दूरों से बातचीत

फोटो साभार- स्नेहल वानखेडे

फोटो साभार- स्नेहल वानखेडे

दोपहर के दो बजे, नागपुर की कड़ी धूप और हाईवे। उस धूप में हाईवे पर सड़क किनारे पेड़ के नीचे आराम करते आंध्र प्रदेश से अपनी घर की तरफ झांसी निकले हुए कुछ मज़दूर। सुनिए उनसे कैसे शुरू हुई मेरी बातचीत।

मैंने पूछा, “खाना खाया?” उधार से आवाज़ आई, “कल शाम को खाया था।” फिर मैंने कहा, “फिलहाल चिवड़ा बिस्कुट है मेरे पास। ये खा लीजिए।”

इसके बाद मुझे उन्होंने धन्यवाद दिया फिर मैंने कहा कि एक-दो पैकेट और रख लीजिए मगर उन्होंने इस बात जो जवाब दिया वह बहुत मार्मिक है। उन्होंने कहा, “नहीं दीदी एक ही काफी है। बाकी आगे और भाई होंगे हम जैसे जो जा रहे हैं उन्हें दे दीजिएगा।”

आज कोई पहली बार नहीं है कि किसी ने एक पैकेट से ज़्यादा लेने से मना कर दिया हो। पहले दिन से जब से हाईवे पर इनसे मिलना शुरू किया तो ये रोज़ होता है। अगर किसी ढाबे वाले ने खाना खिला दिया तो वे क्या कहते हैं सुनिए।

अभी खाना खाया है दीदी, रहने दीजिए किसी और को दे दीजिएगा।

फिर मुझे कहना पड़ता है, “अरे भैया यह खाना नहीं है, नाश्ते के पैकट हैं। साथ रख लीजिए 4-5 दिनों तक खराब नहीं होगा। कहीं कुछ नहीं मिला तो ये खा लीजिएगा।”

तब जाकर वे पैकेट लेते हैं। वरना ये नहीं कि जो बांटने आ गया उससे ले लिया। कभी भी बोलो एक-दो और रख लो साथ में मगर कभी नहीं हुआ कि उन्होंने रखा हो। हमेशा यही जवाब आया,

आगे किसी और के काम आ जाएगा दीदी। आगे किसी और को दे दीजिएगा।

पता नहीं होता इन्हे आगे खाना मिलेगा या नहीं फिर भी भावना ये है कि दूसरों की भी मदद हो जाए। लालच की कहीं कोई जगह नहीं है। कभी लोग ज़्यादा हो गए और पैकेट कम पड़ गए तब भी ये कहा जाता है,

कोई बात नहीं हम मिलकर खा लेंगे।

ऐसे में सड़क फिल्म का वह गाना याद आता है-

हम तो मज़दूर हैं
हर गाँव से दूर हैं,
मेहनत की रोटियां
मिल-जुलकर खाते हैं।
हम कभी नींद की गोलियां खाते नहीं
रखकर पत्थर पर सर
थक कर सो जाते हैं।


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