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MP का गैरतगंज जहां नहीं है खांसी-जुखाम का कोई इलाज, क्वारन्टाइन तो दूर की बात!

फोटो साभार- कुमार प्रिंस मुख्रजी

फोटो साभार- कुमार प्रिंस मुख्रजी

कोविड-19 वैश्विक महामारी की खबर उस कड़वे करेले सरीखी हो गई है जो तीखा होने के बावजूद भी हर किसी की ज़ुबान पर चढ़ा हुआ है। हम हर खबर को खबर की तरह ही पढ़े जा रहे हैं और हम में से हर दूसरा शख्स इस उम्म्मीद में है कि वो अपने घर में सुरक्षित है।

बेशक सुरक्षित होना भी चाहिए यह हमारा अधिकार भी है और ज़िम्मेदारी भी। जहां हर कोई तसल्ली से अपने घरों में बैठा है, वहीं मैं शंकित हूं और आशंकित भी! सोचिए यह महामारी बढ़ते-बढते हमारे आंगनों तक आ गई तब क्या होगा?

मैं मध्यप्रदेश के एक छोटे से ज़िले के छोटे से कस्बे की रहवासी हूं जहां लगभग 30,000 की आबादी पर नज़दीकी गाँव में एक ही स्वास्थ्य केंद्र पर है। केवल 3 चिकित्सकों पर निर्भर एक बड़ा सा स्वास्थ्य केंद्र जिसकी एक्स-रे मशीन बूढ़ी हो चुकी है।

टेस्ट लैब में लगभग 110 तरह के टेस्ट सम्भव हैं। ऐसा लैबोरेट्री के बाहर लगा बोर्ड कह रहा है लेकिन कभी किसी ने शासन, प्रशासन, अधिकारियों से प्रश्न किया ही नहीं कि जब स्वास्थ्य विशेषज्ञ ही नहीं होंगे तब इन टेस्ट को करवाने की नौबत आएगी कैसे?

अल्ट्रासाउंड मशीन किसे कहते हैं यह स्वास्थ्य केंद्र नहीं जानता है। यहां फिर वेंटिलेटर जैसे भारी-भरकम शब्दों की ज़रूरत ही क्या है? खांसी- बुखार जैसे सामान्य रोगियों से पटे ऐसे अस्पताल में किसी महामारी से लड़ पाने का क्या ही सामर्थ्य होगा। यदि ब्लॉक स्तर पर कोई महामारी से संक्रमित पाया जाता है तब हम उसे कैसे उपचार मुहैया करा पाएंगे यह विचारणीय है।

एक निजी अनुभव

मरीज़ों की लंबी कतार के बीच डॉक्टर गायब।

अपना ही अनुभव बताती हूं। कई दिनों से बाएं पैर की एड़ी में दर्द था जो अब भी बरकरार है। जिसे हफ्तों से किसी गैर-ज़रूरी काम की तरह टाले जा रही थी लेकिन लॉकडाउन के तमाम दबावों के बाद भी जब दर्द बर्दाश्त नहीं हुआ तो मैं स्वास्थ्य केंद्र तक इस तसल्ली के साथ गई कि मुझे हुआ ही क्या है मेरा ईलाज हो ही जाएगा।

लेकिन पहुंचने पर जानकारी मिली कि डॉ. साहब (जो कि भाग्य से हड्डी विशेषज्ञ) हैं बाहर गए हुए हैं और 2-4 दिनों बाद लौटेंगे। मैं अपना सा मुंह लेकर घर की तरफ लौट आई और दर्द को अपने आप हल्का बना लिया।

भारत में प्रति 10 हज़ार की आबादी पर महज़ एक बेड है

प्रखंड के अस्पताल में अपने-अपने बच्चों संग माएं।

लेकिन हम जिस त्रासदी से अभी जूझ रहे हैं क्या वहां महामारी की भयावहता को हल्का बनाया जा सकता है? नहीं कतई नहीं! बेशक मुझे इस आपात स्थिति में किसी पर प्रश्नचिन्ह खड़ा नहीं करना चाहिए मगर कई दफा सवाल खड़े करना ज़रूरी हो जाता है।

सरकारें कहती हैं कि वे महामारी से लड़ने के लिए पूरे ज़ोर-शोर से कमर कसकर तैयार खड़ी है लेकिन मैं आपको बता दूं कि यह एक छलावा है। यदि महामारी ने अपने पैर पसार लिए तो हम स्थितियों की भयावहता की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।

जहां सरकारें बड़ी-बड़ी तैयारियों की बात कर रही हैं, वहीं स्थिति यह है कि भारत में प्रति 10,000 लोगों या कहिए कि मरीज़ों पर एक बेड उपलब्ध है और यह आंकड़ा सामान्य उपचार की स्थिति में है।

वहीं, सरकार ने खुद अपने जारी आंकड़ों में कहा है कि प्रति 84,000 मरीज़ों पर 1 आइसोलेशन बेड और प्रति 36000 मरीज़ों पर 1 क्वारन्टाइन बेड उपलब्ध है।

भारत में अब तक कोरोना संक्रमण के 4421 पॉज़िटिव मामले सामने आ चुके हैं। वहीं, मरने वालों का आंकड़ा 114 पार कर गया है और यह आंकड़ा तब है जब सिर्फ 79,950 लोगों की ही जांच अब तक की गई है। जब बड़ी संख्या में जांच होगी तो आंकड़े कितने भयावह होंगे अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

डॉक्टरों की भी भारी कमी से जूझ रहा है देश

अस्पताल के बाहर इंतज़ार करते मरीज़ के परिजन

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 1000 लोगों पर 1 डॉक्टर होना चाहिए। जबकि 1404 लोगों पर 1 डॉक्टर उपलब्ध है। वहीं, देश लगभग 5 लाख डॉक्टरों की कमी से जूझ रहा है।

देश में प्रति 1000 लोगों पर 0.7 बेड ही उपलब्ध हैं। वहीं, प्रति 1 लाख लोगों पर 3 आईसीयू बेड उपलब्ध हैं। द लॅन्सेट द्वारा 2018 में जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार अच्छी रैंक पाने वाले देशों में सबसे ऊपर अमेरिका, इटली और स्पेन जैसे देश ही रहे हैं।

लेकिन कोविड-19 के चलते इन देशों की स्वास्थ्य व्यवस्था महामारी की चपेट में आकर चरमरा गई है। जबकि इन्हीं 195 देशों की सूची में भारत का स्थान 145वां है।

स्वास्थ्य सेवाओं पर कितना खर्च करता है भारत?

भारत अपनी कुल जीडीपी का 0.9 से 1.2% ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है। इससे ही साफ हो जाता है कि भारत की प्राथमिक सूची में स्वास्थ्य का दर्ज़ा कहीं बहुत नीचे है।

वहीं, पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार भारत निजी और सरकारी क्षेत्रों पर स्वास्थ्य सेवाओं का कुल 3.9% खर्च करता है। अमेरिका (48%), चीन (56%) और ब्रिटेन (83%) जैसे देश जो कि स्वास्थ्य सेवाओं पर इतनी अधिक राशि खर्च करते हैं फिर भी उनकी स्थिति यह है कि वे कुछ करने की हालत में ही नहीं रहे हैं। सोचिए भारत में मामले बढ़ने पर क्या होगा।

कोविड-19 से लड़ने के लिए पर्याप्त स्वास्थ्य कर्मचारी तक नहीं हैं

भारत में कुल 44% मतलब सिर्फ 11.5 लाख स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े लोग हैं जो कि अभी कोविड-19 से लड़ रहे हैं। नीति आयोग की जून 2019 की हेल्थ इंडेक्सस रिपोर्ट में भी केरल की तुलना ब्राज़ील की स्वास्थ्य सेवाओं से की जाती है।

वहीं, मध्यप्रदेश, बिहार और उत्तरप्रदेश की तुलना ‘सिएरा लियोन’ से की जाती है जो कि पश्चिमी अफ्रीका का एक बेहद पिछड़ा देश है।

मेरा प्रश्न मध्यप्रदेश सरकार, माननीय प्रधानमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री और प्रशासन से बस इतना ही है कि क्या हम ऐसी ही किसी महामारी के आने के इंतज़ार में बैठे थे? स्वास्थ्य को जहां एक मूलभूत सुविधा की श्रेणी में रखा जाना चाहिए, वहां उसे हम एक गैरज़रूरी मद में डाल कर क्यों चल रहे हैं? इतनी स्वास्थ्य योजनाओं का क्या लाभ जब हमें आपदा के वक्त तमाम तैयारियों करनी पड़ जाएं।

सरकार को पहले से अंदेशा नहीं था क्या?

11 मार्च 2020 को WHO ने घोषित किया कि कोविड-19 एक वैश्विक महामारी है। 13 मार्च को स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कोरोना कोई आपातकालीन स्वास्थ्य खतरा नहीं है। जबकि भारत में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को सामने आ चुका था।

तो क्या हमने 1 फरवरी से ही कोरोना से लड़ने की तैयारी शुरू कर दी थी? नहीं, बिल्कुल नहीं! हम तो अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के स्वागत की तैयारियां कर रहे थे। चुनाव और CAA जैसे बेहद ज़रूरी मुद्दो में व्यस्त थे। अब भी कहा जा रहा है कि भारत की स्थिति और देशों की तुलना में बेहतर है लेकिन इस वास्तिविकता से कौन अवगत कराएगा की संक्रमण से जुड़े टेस्ट करने में हम कितना पीछे हैं।

तो बस थाली पीटते रहिए और संख बजाते रहिए!

आंकड़ों को पीछे रख भी दिया जाए तो एक बार खुद से ज़रूर पूछिए यदि आपके शहर, मोहल्ले, गाँव में कोई इस त्रासदी का शिकार हो जाए तो क्या होगा। जहां सामान्य सी खांसी-जुखाम के संसाधन नहीं हैं, वहां किस तरह उन्हें क्वारन्टाइन में रखा जाएगा।

क्या आईसीयू की ज़रूरत पड़ने पर हाथ खड़े नहीं किए जाएंगे। अभी मामले तुलनात्मक दृष्टि से कम लग रहे हैं। मैं तो कहती हूं ईश्वर या कहिए चमत्कारी शक्ति इस महामारी को खत्म कर दे तो बेहतर होगा लेकिन चमत्कार दीये और थालियां पीटने से नहीं होते, यह कौन समझाएगा?

चमत्कार होगा स्वास्थ्यकर्मियों, मरीज़ों को बेहतर चिकित्सीय सुविधाएं उपलब्ध कराने से। हम सभी जानते हैं कोविड-19 का इलाज सम्भव है लेकिन यह तब ही होगा जब स्वास्थ्यकर्मी स्वस्थ्य होंगे।

सोशल डिस्टेंसिंग एक बेहतर प्रयोग है जिसे सरकार ने अपना लिया लेकिन क्या और नीतियों को उस तरह अपना पाने का कोई प्रयास किया जा रहा है जिससे इस महामारी को मात दी जा सके?

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