कोविड-19 की त्रासदी से एक तरफ जहं दुनिया बेहाल है, वहीं भारतीय मीडिया ऐसी विषम परिस्थिति में भी धर्म के नाम पर राजनीति करने से नहीं थक रही है। मैं बिहार के खगड़िया में कार्यरत हूं और इन दिनों अपने घर पटना में हूं।
जनता कर्फ्यू और लॉकडाउन के बाद इन दिनों देश में चल रहे पूर्ण लॉकडाउन के दौरान मैं खगड़िया, आरा, बिहटा और पटना में रोज़ाना चल रही गतिविधियों पर मेरी नज़र रहती है।
इस देश में जब भी कोई त्रासदी आती है तो लोग अपनी आस्था के अनुसार भगवान को याद करने और खुश करने में लग जाते हैं। पटना जिले के ग्रामीण इलाकों में कोरोना का प्रकोप कम करने के लिए शिव चर्चा से लेकर पूजा, हवण और सामूहिक भोज तक होना शुरू हो गया है।
वहींं, खगड़िया में लोग सांझ के वक्त घर के बाहर दीये जलाकर कोरोना के मरने और परिवार के ज़िंदा रहने की कामना करते मिले। खगड़िया से पटना आने के दौरान एनएच के आसपास एक दर्ज़न मस्जिद मिली और आश्चर्यजनक बात यह थी कि जुम्मा के अलावा दूसरे दिन में भी लोग बड़ी संख्या में नमाज के लिए जाते दिखे।
मेरा ड्राइवर बड़ी सहजता से बताया, “मैडम किसी ने अफवाह फैला दिया है कि जो लोग वजू कर पांच वक्त नमाज मस्जिद में अदा करेंगे वे इस वक्त कोरोना से सुरक्षित रहेंगे।”
हद तो तब हो गई जब चैत्र नवरात्र के दौरान लोग एक-दूसरे को फोन करके दुर्गा सप्तशती में आईलैशेश (पलक) खोजने को कहने लगे और मिल जाने पर परिवार को कोरोना से सुरक्षित घोषित करने लगे।
राम नवमी के समय तमाम मंदिरों के बंद होने के बावजूद लोग बाहर से मंदिर के दर्शन करने जुट गए और आज सतुआनी पर्व के अवसर पर गंगा स्नान के लिए घाटों पर भी महिलाओं का जुटान हुआ।
इन सब गतिविधियों के बीच प्रशासन के लिए बहुत ही मुश्किल और चुनौतियों से भरा समय रहा, क्योंकि उन्हें धार्मिक आस्था के नाम पर हो रहे भीड़ को कंट्रोल तो करना ही था और सोशल डिसटेंसिंग के फायदे भी समझाकर कोरोना से लड़ने के लिए लोगों को जागरूक करना था।
कल से लॉकडाउन का दूसरा फेज़ शुरू हो गया है। मुंबई के बांद्रा स्टेशन के पास हज़ारों प्रवासी मज़दूर जमा भी हो गए। उनकी माँग साफ है कि खाना दें या घर जाने दें।
वहीं, पास में मस्जिद भी है। मीडिया को अपने हिसाब से मसाला मिल गया है। मस्जिद के पास कैसे जमा हुए लोग? ये अपने आप आए या किसी ने उनको जमा किया? क्या इसके पीछे कोई साज़िश है? कल तक इसके पीछे तबलीगी जमात का कोई ना कोई लिंक ज़रूर निकाल लिया जाएगा। सूरत में जहां पर मज़दूर सड़कों पर आए थे, वहां कोई मस्जिद नहीं थी। इसलिए मीडिया वाले कुछ कर नहीं पाए।
पिछले पंद्रह दिनों से न्यूज़ चैनलों पर जिस तरह से कोरोना फैलाने का आरोप तबलीगी जमात वाले लोगों पर फैलाते देखती हूं तो मन एकदम अशांत हो जाता है, क्योंकि तबलीगी जमात के नाम पर चलाई जाने वाली खबरों इस्लामोफोबिया को बढावा देना शुरू कर दिया है।
मुझे लगातार ऐसे वीडियो फैमली और फ्रेंड्स वॉटसप ग्रुप के माध्यम से देखने को मिल रहे हैं जिनमें टोपी और कुर्ता-पजामा पहने लोग होटलों में खाने में थूककर दे रहे हैं, बुर्का पहनी औरतें क्वारंटीन में लोगों को जबरन छूकर बीमार बनाने में लगी हैं। जबकि मेरे चारों तरफ जितने भी मुस्लिम साथी हैं वे इस वक्त उतने ही संवेदनशील हैं जितना कि मैं हूं।
मेरी एक मुस्लिम समुदाय से आने वाली दोस्त अपने घर सिर्फ दाल चावल बनाकर खा रही है और पहले अपने सामर्थ्य से और अब कर्ज़ पर भारी मात्रा में राशन खरीदकर भूखे परिवारों तक रोज़ाना कच्चा अनाज वितरण करवा रही हैं।
वहीं, पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में रह रहे स्टूडेंट यूनियन के प्रेसिडेंट रहे साथी भी इन दिनों लगातार हमारे परिवार की हाल-चाल पूछते रहते हैं और कोरोना को लेकर हिंदुस्तान से लेकर पाकिस्तान और विश्वभर में हो रही नुकसान से चिंता जताते रहते हैं।
ऐसे मुश्किल घड़ी में जब एकजुटता के साथ कोरोना से लड़ना था, लॉकडाउन में भूख से लड़ना था, बीमारियों से लड़ना था, औंधे मुंह गिरती अर्थव्यवस्था को दुरूस्त करने की योजना पर चर्चा होनी थी, तो वहां भारतीय मीडिया इस वक्त भी हिंदू-मुस्लिम कार्ड खेलने में लगी है, जिसका अंजाम यह निकला कि पढ़े लिखे सभ्य शालीन कहलाने वाले परिवार के युवाओं में मुसलमानों के खिलाफ नफ़रती उन्माद भर दिया है।
भविष्य में जब इस विपदा को याद कर इतिहास लिखा जाएगा तो भारतीय मीडिया के धर्म के नाम पर बोए गए चरस को भी याद करके मानवता को कलंकित करने की कथा भी सुनाई जाएगी।