Site icon Youth Ki Awaaz

“अगर कोरोना आधुनिकता के आने से पहले फैला होता तो क्या होता”

फोटो साभार- Flickr

फोटो साभार- Flickr

विज्ञान और तकनीकी क्रांति के बूम की बजाय इससे पहले का युग आज होता तो कोरोना महामारी रोकने के लिए लोग प्रयोगशाला में वैक्सीन विकसित होने की प्रतीक्षा करने की अपेक्षा देहाती वैद्य के पास पहुंचते।

देहाती वैध क्या करते? शायद वे जंगल जाकर एक वनस्पति उखाड़ लाते, जिसमें इस बीमारी का सहज निदान छुपा होता।

प्रकृति बिगड़ने से बीमारी पनपती थी और उसका इलाज प्रकृति में ही छुपा होता था

महामारियों के युग की शुरुआत कब से हुई यह बताना मुश्किल है लेकिन बीमारियों के बारे में कहीं ना कहीं यह भी सत्य है कि तुम्हीं ने दिल दिया है, तुम्हीं दवा देना।

प्रकृति बिगड़ने से बीमारी पनपती थी और उसका इलाज प्रकृति में ही छुपा होता था। लगता यह है कि जब तक मनुष्य ने अपने लाभ के लिए जैविक प्रहार की नीचता तक जाना नहीं सीखा था, तब तक बीमारी महामारी का रूप धारण करने से बची रहती थी।

अग्रेज़ों ने अमेरिका की खोज के बाद वहां सोने के खनन का अपना रास्ता प्रशस्त करने के लिए मूल निवासियों के थोक में सफाये हेतु उन्हें चैरिटी के नाम पर मलेरिया के रोगियों के कंबल सप्लाई कर दिए। यह इतिहास का एक जाना माना तथ्य है।

ब्रिटिश काल में जब भारत में फैला था प्लेग

क्या ब्रिटिश काल में भारत में जो प्लेग फैला था उसके पीछे भी अंग्रेज़ों का कोई जैविक प्रहार था? यह बात अनुसंधान का विषय हो सकती है। द्वंदात्मक विकास की अवधारणा कोई अनूठा मार्क्सवादी पेटेंट नहीं है।

एक ओर प्रकृति को सुरक्षित और संरक्षित करने का तकाज़ा है, दूसरी ओर अगर प्रकृति ने ही मनुष्य में आविष्कारक प्रतिभा ना दी होती तो प्रकृति से छेड़छाड़ क्यों होती? आविष्कारों पर ही प्रगति का पहिया अभी तक घूमा है।

आविष्कार क्या है? 

आविष्कार प्रकृति के अनुशासन को भंग करने की कीमत पर मनुष्य द्वारा अपनी कृत्रिम सृजन को थोपा जाना है लेकिन आविष्कार की जो बेचैनी मनुष्य के अंदर मौजूद है, उसे लेकर यह अवधारणा सही और पूर्ण है।

कोरोना के वैश्विक संकट ने जो कि मानव जाति के लिए अस्तित्व की समस्या तक घातक हो गया है, ऐसे दार्शनिक प्रश्नों को भी खड़ा कर डाला है जिन प्रश्नों पर मनन करना दिलचस्प है।

कोरोना और चिकित्सा विज्ञान

बात कोरोना से शुरू हुई है तो चिकित्सा विज्ञान से ही इसे समझते हैं। सभ्यता के पहले चरण में जैसे ही बीमारी ने मनुष्य को चपेटा, उसकी छठी इन्द्रिय के रूप में सक्रिय आविष्कारक चेतना ने उसे आसपास उस जड़ी बूटी के पहचान की शक्ति दी। जिससे वह तत्काल अपने को उपचारित कर सके। यह निर्मल निष्पाप आविष्कारक प्रतिभा का उदाहरण है।

प्रयोगशालाओं में एक जटिल बीमारी के कारगर उपचार के नाम पर प्रभावी दवा विकसित की गई लेकिन इसके पीछे जो प्रेरणा काम कर रही है, वह लाभ और स्वार्थ की चढ़ी परत से कलुषित प्रेरणा है।

इसलिए प्रयोगशाला चलाने वाले यह नहीं चाहते कि वे बीमारियों का अंत कर दें। इससे तो उनका कारोबार एक दिन बंद हो जाएगा।

वर्तमान परिदृश्य में कारोबारी लोग नहीं चाहते बीमारियों का अंत हो

वे अपना कारोबार चलाए रखने के लिए बाज़ार में जब एक बीमारी का इलाज लॉन्च करते हैं, तो उसमें नई बीमारी खड़ी करने वाला वायरस भी मिला देते हैं।

कम्प्यूटर के क्षेत्र में जो कंपनियां एंटी वायरस बनाती हैं, कहा जाता है कि वे अपने उसी साॅफ्टवेयर में नए वायरस को लोड करने का इंतजाम भी करती हैं। ताकि कभी संतृप्तिकरण ना हो पाए।

एक दौर था जब सृजन और आविष्कार को व्यवसाय से दूर रखा गया था

सृजन और आविष्कार को पहले व्यवसाय से दूर रखा गया था। जड़ी-बूटी पहचानने वाले वैद्य पुश्तैनी होते थे क्योंकि उनके परिवार में लालच से दूर रहने का डीएनए संस्कार के रूप में घुला रहता था।

पुराने वैद्य दो काम करते थे। यानी कि एक तो वे अपने उपचार की कोई कीमत नहीं मांगते थे जिसे लाभ हो वे स्वेच्छा से उनकी कोई सेवा कर जाए तो कर जाए।

दूसरे वे अपनी जानकारी को गुप्त रखते थे ताकि उनका चिकित्सा विज्ञान ऐसे लोगों तक ना पहुंच जाए जो उससे धंधा करने लगे।

मार्केटिंग के हथकंडों के चलते आयुर्वेद के सामने एलोपैथी कई बीमारियों में पानी मांगने लगी

जाति के स्तर पर पंडितों में ही बहुधा वैद्यगीरी होती रही है। लालच से दूर रहने के कारण वे सादगी से काम करते थे और इसकी वजह से जब तक आयुर्वेद का ज़िम्मा उनके पास रहा, उसकी कहानी एलोपैथी की चमक-दमक के आगे पिटती रही।

बाद में जब इस वैद्य कुल के बाहर के बाबा रामदेव ने आयुर्वेद में अवतार लिया तो उन्होंने इसे धंधा ना बनाने की जो लक्ष्मण रेखा थी, उसे लांघ गए। उनके मार्केटिंग के हथकंडों के चलते आयुर्वेद के सामने एलोपैथी कई बीमारियों में पानी मांगने लगी।

परन्तु सोचने वाली बात यह है कि बाबा रामदेव आयुर्वेद की श्रृद्धा उत्पन्न करने वाली उस महिमा को सहेजकर रख पाए हैं, जो पुराने वैद्यों ने अर्जित की थी।

आज तक विज्ञान की दुनिया विलक्षण लोगों में आविष्कार की नि:स्वार्थ बेचैनी के तहत आगे बढ़ सकी है

कवि जन्मना होता था। धंधा करने की प्रेरणा से कोई कवि नहीं बन जाता। यही बात चित्रकारी की है। हालांकि आज सृजनात्मकता में भी मार्केटिंग पैठ कर चुकी है। यही बात हम वैज्ञानिक आविष्कारों के बारे में कहना चाहते हैं।

एडिसन ने बल्ब इसलिए नहीं बनाया कि इसका धंधा करके वो दौलत कमा सकेंगे। उनके अंदर वैज्ञानिक आविष्कार की कुदरती बेचैनी थी जो उन्हें गैलिलियों जैसे विज्ञान परंपरा के महान पूर्वजों से विरासत में मिली थी।

विज्ञान की दुनिया विलक्षण लोगों में आविष्कार की नि:स्वार्थ बेचैनी के तहत आगे बढ़ रही थी लेकिन बुरा हो पेशेवरीकरण का जिसने सारी विधाओं को अपने आगोश में जकड़कर इंसान का शैतानीकरण कर दिया।

बाज़ार ने हमारे अंदर यह एहसास भर दिया है कि वैज्ञानिकों को अपने लिए भारी कमाई की संभावनाएं नहीं दिखने पर आविष्कार नहीं होंगे।

नए आविष्कार मनुष्य के जीवन को अधिक सुविधाजनक व सुरक्षित बनाने के लिए आवश्यक हैं

नए आविष्कार मनुष्य के जीवन को अधिक सुविधाजनक व सुरक्षित बनाने के लिए आवश्यक हैं लेकिन यह अर्ध सत्य है। आविष्कारक चेतना को लालच में पगाकर भ्रष्ट किए जाने से उसके कारण स्थितियां मनुष्य के लिए पहले से जटिल और खतरनाक होती जा रहीं हैं।ॉ

बाज़ार आज यह स्थापित करके भ्रमित कर रहा है कि संयम, अपरिग्रह, समाधि, साधना आदि के मूल्य शगल के तौर पर मनुष्य ने कभी सृजित किए थे। जिनसे हमेशा बंधकर रहने की बाध्यता नहीं है।

परिस्थितियां जब बदल चुकी हैं तब इन बंदिशों का कवच तोड़कर आगे बढ़ना युग धर्म का तकाजा है। इस प्रपंचनापूर्ण विश्वास ने नैतिक व्यवस्था को ध्वस्त करके रख दिया है।

इससे पहले यूरोपीय जातियां बर्बर हुई और अब एशियाई जातियां मुनाफे के लिए उन्हीं की तरह बर्बर हो रही हैं।

इस संकट के दौर ने हमें सोचने पर विवश कर दिया है

चीन को तो फिर भी इसका लाभ है। व्यक्ति के तौर पर भले ही नहीं लेकिन राष्ट्र के तौर पर वह बहुत मज़बूत लाभ हुआ है। भारत तो दोनों तरह से घाटे में है व्यक्ति के तौर पर भी, समाज के तौर पर भी और राष्ट्र के तौर पर भी।

कोरोना के संकट को लेकर कई तरह की किवदंतियां चल रही हैं। उनकी सच्चाई जो भी हो मगर इस संकट ने यह विश्वास दिला दिया है कि हमें बाज़ारीकरण के विकल्प की ओर देखना पड़ेगा। इसके लिए नैतिक व्यवस्था को बलिदान नहीं किया जा सकता।

भारत में पिछले कुछ वर्षो से दसियों लाख रुपये की कीमत वाली लग्ज़री गाड़ियों का मास लेविल पर उत्पादन शुरू हुआ। जबकि यहां आयकर दाताओं की संख्या देखें तो वैधानिक आय की दृष्टिकोण से उनके लिए पर्याप्त ग्राहक जुटने की कल्पना भी नहीं की जानी चाहिए थी।

लग्ज़री गाड़ियां तो एक उदाहरण हैं समूचे उपभोक्तावाद को इस देश में दो नम्बर की कमाई की छूट देकर ही पनपाया जा सका है।

आज फिर ज़रूरत है मिश्रित अर्थव्यवस्था के बारे में सोचने की

इसी के चलते कोई सरकार भ्रष्टाचार केे खिलाफ अब कोई कदम उठाने का साहस नहीं कर पा रही है। इससे आम आदमी का जीवन सुविधाजनक होने की बजाय शोषण व उत्पीड़न की पराकाष्ठा के कारण व्यथित होता जा रहा है।

एसी का आविष्कार भारत जैसे गर्म देश में ऊपरी तौर पर देखे तो एक तरह से वरदान है लेकिन क्या सचमुच? कितने लोग हैं जो एसी को अफोर्ड कर पाएंगे। करोड़ों लोगों के लिए तो यह पहले से अधिक गर्मी से सताने का कारक है।

लाभ के लिए किए गए सारे आविष्कार चंद लोगों की विलासिता के कारण इंसानियत को मुसीबत में धकेल रही है।

इसलिए आज फिर ज़रूरत है राष्ट्रीयकरण और निजीकरण के बीच उचित संतुलन पर आधारित मिश्रित अर्थव्यवस्था के बारे में सोचने की। आविष्कारों का लाभ समूचे समाज को सुनिश्चित करने और व्यक्तियों के सादगीपूर्ण जीवन पर बल देने की।

नैतिक और आध्यात्मिक व्यवस्था को भौतिक व्यवस्था के समानान्तर मज़बूत करते रहने के बारे में सोचने की, ताकि कोई लाभ के लिए कोरोना जैसे जैविक प्रहार की शैतानियत तक आगे बढ़ने की ना सोच पाए। अगर कोरोना को लेकर चल रही किवदंतियों में कुछ सच्चाई है तो!

Exit mobile version