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क्या पेड़ों की जगह अब बस सड़कों के किनारे ही बची है?

ट्विंकल सिंह

ट्विंकल सिंह

“मनुष्य, प्रकृति का सहचर या स्वामी”, इस विषय पर मेरे कॉलेज में एक सेमिनार रखा गया था। सेमिनार के लिए कई बड़े विचारकों के साथ स्टूडेंट्स को भी निमंत्रण दिया गया था।

कार्यक्रम की शुरुआत में ही सबको पेड़ बांटे गए थें। उनमें फैंसी पेड़ से लेकर स्टाइलिश वाले गमले और कोई चाइनीज़ पेड़ भी शामिल थे।

उस पेड़ की खासियत थी कि वो हमारे गाँवों-गलियों में पाए जाने वाले बेशरम और लथेर की तरह होता है। कितना भी कुछ भी कर लो एक बार लग गया तो लग गया मगर बस मॉडर्न और स्टाइलिश।

कार्यक्रम में बैठें भिन्न-भिन्न लोग अलग-अलग कारणों से वहां बैठे थे। एक-एक करके सबने बोलना शुरू किया। किसी ने भारी-भरकम शब्द चुने और किसी ने बस यूं ही कहानी-कहानी में अपनी बात कह दी।

आयोजकों की सूचि में मेरा नाम नहीं था इसलिए मैं बस हाथ उठा पाने की हिम्मत जुटाने में लगी थी। खैर, मैंने सबकी बातों को अपनी नोटबुक में लिख लिया।

मुझे यह महसूस हुआ कि सभी वक्ता एक ही जैसा सोच रहे हैं। उनकी समस्या से लेकर समाधान सब एक-दूसरे से जुड़े हैं। दिक्कत बस यही है कि सब बस सोच रहे हैं। करने वालों की संख्या अपनी सोच को असलियत का जामा पहनाने वालों से अभी भी बेहद कम है।

अब तो पेड़ भी सिर्फ हाईवे के किनारे ही लगे नज़र आते हैं!

दरअसल, मनुष्य ने वह सेब खा लिया है, जिसके खाने पर मनाही थी। आज मनुष्य इतना समझदार या मॉडर्न हो गया है कि उसे बेसिक चीज़ें याद ही नहीं रहीं और उस बेसिक में सबसे ज़रूरी चीज़ यानी कि प्रकृति को भी शामिल कर लिया गया है।

जी+वन से बने जीवन में अब वन की ज़रूरत बस एडवेंचर ट्रिप्स तक रह गई है। जंगल क्या, अब तो पेड़ भी बस हाईवे के किनारे ही लगे नज़र आते हैं।

हम प्रकृति के लेनदार बन गए हैं

ट्विंकल सिंह।

आपको पता है प्रकृति को धर्म से क्यों जोड़ा गया? क्यों पेड़ों को पानी देने और जानवरों को पूजने का प्रावधान किया गया? दरअसल, मानव अपने धर्म और संस्कृति को लेकर बेहद ही सेंसिटिव है। इसलिए प्रकृति को शायद धर्म से जोड़ दिया गया।

यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी अपने को उनकी दी हुई मदद के लिए धन्यवाद देना मगर हमने प्रकृति को इतना तुच्छ समझा कि थैंक यू बोलना भी ज़रूरी नहीं समझा।

यही से हम सहचर से स्वामी बनने के मार्ग पर अग्रसर हो गएं। हमने थैंक्स बोलना छोड़ दिया है और बस लेनदार का काम किए जा रहे हैं।

हमने प्रकृति की कोख को खाली और बंजर कर दिया है। अन्दर भरी आग समय-समय दर पूरे विश्व को झुलसा रही है मगर हम फिर भी नहीं चेत रहे हैं। प्राइमरी में पढ़ी फ़ूड चैन, रेन साइकिल सब हमलोग भूल चुके हैं।

आदिवासी समाज से हमें प्रकृति प्रेम सीखने की ज़रूरत

इस समय की सबसे बड़ी मांग है वापस अपनी जड़ों की तरफ लौटना। देहाती कहलाना ठीक है मगर नासमझी में अपने लिए ही कब्र खोद लेना गलत। वर्चुअल स्टोरी टेलिंग की वर्कशॉप में दीपक बारा सर ने प्रकृति से जुड़ा किस्सा सुनाया था।

उन्होंने बताया था कि आदिवासी समाज प्रकृति को अपना हिस्सेदार मानता है। घर में लगे पेड़ में जब फल आता है तब उसे दो हिस्सों में बांटा जाता है। नीचे की तरफ के सारे फल पेड़ लगाने वालों के लिए और ऊपर के हिस्से के सभी फल पक्षियों और प्रकृति के लिए।

हम नदियों-नालों को गंदा कर रहे हैं मगर उनमें रह रहे जीवों के लिए कभी दाना नहीं डालते हैं। हमको फल खाने हैं मगर पेड़ नहीं लगाना है। हमें जानवर बहुत पसंद हैं मगर पिंजरों के पीछे। हमें सफाई बहुत पसंद है मगर बस अपने घर में, बाहर से हमें फर्क नहीं पड़ता।

इस स्वामित्व की मानसिकता को हमें दूर करने की ज़रूरत है। वरना वो कहते हैं ना कि मालिक तब तक ही मालिक रहता है, जब तक गुलाम हैं।

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