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“यदि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था ठीक होती तो शायद लॉकडाउन की ज़रूरत नहीं पड़ती”

फोटो साभार- सोशल मीडिया

फोटो साभार- सोशल मीडिया

वेटिकन सिटी से लेकर काबा तक केवल हमारी मनोवैज्ञानिक ज़रूरतों को पूरा करने की क्षमता है। ऐसे में जितनी जल्दी हो उतनी शीघ्रता से अपनी भौतिक ज़रूरतों की श्रृंखला के प्रति सजग होकर कोरोना की श्रृंखला को तोड़ें।

अभी हम सब घर पर बैठे-बैठे तरह-तरह के भावों से भरे हुए हैं। भय, क्रोध, चिंता अनिश्चित्ता के माहौल में हम सरकार के सहयोगी या सरकार के खिलाफ होने के तौर पर फिर बंट रहे हैं।

कुछ लोग मोदी के फैसले लेने के समय और योजना का गुणगान कर रहे हैं, तो वहीं कुछ लोग योजना और समय की आलोचना कर रहे हैं। एक बात जिस पर हम सभी सहमत हैं कि यह सामान्य स्थिति नहीं है और इस आसामन्य स्थिति में हमें एक-दूसरे के सहयोग की ज़रुरत है।

मज़दूर वर्ग की त्रासदी के प्रति सरकार को तालाबंदी से पहले सोचना चाहिए था

हमारा आर्थिक स्वभाव जब असंगठित क्षेत्र पर ही आधारित है। आज हम और आप सबके पास इसकी पूरी सूचना है कि हमारे अर्थतंत्र में दैनिक तौर से कमाई कर खाने वाले लोगों की हिस्सेदारी ज़्यादा है।

जब आपको पता है कि आपने ही वादा किया है कि 2022 तक आप सबको घर देंगे? तो ऐसे में तालाबंदी लगाने के प्रयोजन के पीछे के मनोविज्ञान पर सवाल बनता है और यह सवाल यकीन मानिए देश हित के खिलाफ नहीं है!

गलती कहां हो रही है?

एक राष्ट्र के तौर पर हम परिसंघीय व्यवस्था में काम करते हैं, जैसे हमारा मीडिया तंत्र गोदी मीडिया हो गया है, वैसे ही लोग भी गोदी मीडिया होते जा रहे हैं। इसमें प्रधानमंत्री को केंद्र बनाकर किए जाने वाले निर्णय आलोचना, चर्चा का बहुत बड़ा योगदान है।

कोरोना वायरस के प्रति जानकारी चर्चा और निर्णय में हम सभी को रचनात्मक रवैया इख्तियार करके सबसे पहले यह समझना होगा कि हम अपने आस-पास जो समस्याएं देख रहें ,हैं उन्हें सुलझाएं अपने स्थानीय आधार पर समस्या की जड़ को समझें।

केरल सरकार इस समस्या से कैसे निपट रही है?

केरल सरकार कोरोना से निपटने के लिए जिस तरह के इंतजाम कर रही है, उसकी तुलना क्यों नहीं की जानी चाहिए? दक्षिण कोरिया ने दुनिया के सामने कैसे मिसाल पेश की है इसका ज़िक्र मोडिया क्यों नहीं कर सकता ?

मंदिर सहायता के लिए आगे आए, गुरूद्वारे ने लोगों की मुश्किलें कम की हैं। क्या इसका मतलब यह है कि हमें धर्म और ईश्वर की आस्था का आसरा इससे निकाल पायेगा? नहीं हमें इन संस्थाओं के मनोवैज्ञानिक महत्व को समझते हुए स्वास्थ्य सुविधाओं के भौतिक जाल को तवज्जो देनी ही होगी।

इस समय हमें यही सिखाया है कि जितना जल्दी हो सके उतनी जल्दी से मध्यकालीन सामूहिक बोध की श्रृंखला को कोरोना की श्रृंखला के साथ तोड़ें। यही नहीं दुनिया को हथियार, धर्म की होड़ से निकालकर ज्ञान और विज्ञान की होड़ में लेकर आएं, जहां प्रकृति का पूरा स्थान हो।

हम सबको-एक दूसरे का सहयोग करना चाहिए और लोग कर भी रहे हैं। इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं है कि सवाल पूछना बंद कर दें।

सारी व्यवस्थाएं यदि ठीक हों तो सरकार डर के तालाबंदी नहीं करती। हम भी यह मान कर इस बात से सहमत नहीं होते सच ये है कि अज्ञान और अव्यवस्था हमारी नियति बन चुकी है।

इटली का बुरा हाल उम्रदराज़ लोग और गैरज़िम्मेदार नागरिकों के कारण है। कोरोना से लोग 80% मामलों में खुद ठीक हो रहे हैं। हमारी लड़ाई का स्वर जब तक शिक्षा और स्वास्थ्य पर नहीं आएगा तब तक यूं ही समाज का एक तबका बिलबिलाता रहेगा मनुष्य होने का दर्जा पा लेने के लिए।

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