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“मुझे स्थानीय प्रशासन की ओर से राशन का एक दाना भी नहीं मिला है”- दिहाड़ी मज़दूर

migrant workers

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लॉकडाउन के कारण पूरे देश में आज आर्थिक गतिविधियां रुक गई हैं। इस कठिन दौर में आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों के प्रवासियों को जो कि रसोई कार्य, कपड़ा व्यवसाय, फैक्ट्रियों में काम और कंस्ट्रक्शन आदि में मज़दूरी करते थे, उनको अपने रोज़मर्रा के जीवन-यापन करने में कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है।

दक्षिणी राजस्थान जो कि आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है, इसमें शिक्षा का स्तर हमेशा से ही कमज़ोर रहा है। इस क्षेत्र के ज़्यादातर लोग अकुशल काम करते हुए दैनिक रोज़गार पर ही काम करते हैं।

पिछले दो दशक से हम इस क्षेत्र में प्रवासी परिवारों को बेहतर, सुरक्षित एवं गरिमामय बनाने की ओर प्रयासरत है। लॉकडाउन के इस दौर में हमने अतिवंचित प्रवासी परिवारों को राशन वितरण किया है। इस दौरान कई प्रवासियों की दैनिक जीवन की समस्याओं से रूबरू होने का अवसर मिला।

एक प्रवासी परिवार की कहानी

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प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

गौतमलाल मीणा सलूम्बर ब्लॉक के दोबडिचा गाँव के रहने वाले हैं। उदयपुर शहर में कंस्ट्रक्शन साइट्स पर 250 रुपये दैनिक मज़दूरी पर खुली मज़दूरी करते हैं। इनके जीवन में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था लेकिन जब से प्रदेश में लॉकडाउन घोषित हुआ तब से इनका दैनिक जीवन अस्त-व्यस्त एवं कठिनाइयों से भरा हो गया है।

गौतमलाल कहते हैं, “कोरोना वायरस के फैलाव को रोकने के लिए सरकार के तीन सप्ताह के लॉकडाउन की घोषणा वाले दिन पूरी रात मुझे नींद नहीं आई, क्योंकि मुझे मेरे परिवार की चिंता सताए जा रही थी। अगली सुबह जल्दी उठकर मैं पैदल ही अपने साथियों के साथ गाँव की ओर निकल पड़ा और जैसे-तैसे 100 किलोमीटर दूर अपने गाँव पहुंचा।”

गौतमलाल के परिवार में पत्नी रोडकी के अलावा 5 बच्चे हैं। इनका परिवार बी.पी.एल. परिवार की श्रेणी में आता है। ये अपने केलू पोश कच्चे मकान में रहते हैं।

सरकार की ओर से बिजली कनेक्शन व उज्ज्वला गैस का लाभ अब तक उन्हें नहीं मिल पाया है। घर के लिए कोई बचत नहीं है और ना ही कोई सामाजिक सुरक्षा का लाभ इन्हें मिल रहा है।

दूर जंगल में इनके पास लगभग एक बीघा ज़मीन है जिसमें प्रति वर्ष एक क्विंटल गेहूं पैदा हो जाता है। रोडकी बाई खेती-बाड़ी के साथ-साथ नरेगा में काम पर भी जाती है जिससे परिवार को थोड़ा सहारा मिल जाता है।

आदिवासी बाहुल्य दक्षिणी राजस्थान के इस इलाके में 80 प्रतिशत पुरुष अपने घर-परिवार को छोड़कर प्रवास पर जाते हैं, महिलाएं खेती-बाडी एवं नरेगा में कार्य करती हैं।

राशन वितरण के दौरान हमने 7 गाँवों के परिवारों को नज़दीक से जाना। इन परिवारों के पास मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। इनके घरों में ज़्यादा राशन भी नहीं होता है, ये रोज़ कमाने-खाने वाले लोग हैं।

राशन खरीदने दूर गाँवों में जाते हैं ग्रामीण

5 किलो आटा, आधा लीटर तेल, पाव भर चना दाल, थोड़ी-बहुत नमक, हल्दी, मिर्च इनके लिए सप्ताह भर का राशन होता है। हमने गाँवों में देखा कि किराना व्यापारी भी ऐसे समय में इन भोले-भाले लोगों को राशन सामग्री महंगी दर पर बेच रहे हैं। नकद राशी ना होने के कारण ये लोग महंगी दर पर राशन खरीदने के लिए मजबूर हैं।

गौतमलाल निराश होकर बताते हैं कि हमें राशन खरीदने नज़दीकी गाँव बेडावल जाना पड़ता है। किराना व्यापारी एक रुपये की उधार नहीं करते, ऊपर से लूट भी रहे हैं। 90 रुपये लीटर मिलने वाली तेल की बोतल इन दिनों 130 रुपये में, 30 रुपये किलो मिलने वाली दाल 80 रुपये किलो व 30 रुपये किलो मिलने वाला चावल इन दिनों 70 रुपये किलो के भाव से बेचा जा रहा है। व्यापारियों ने सभी ज़रूरत की चीज़ों के मनमाफिक भाव तय कर दिए हैं।

लॉकडाउन के इस समय में इन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इन दिनों इनके पास नकद रुपये ना होना, घर में राशन उपलब्ध ना होना, बैंक तक नहीं पहुंच पाना, बैंक में खाता नहीं होना, बैंक से पैसा ना निकलवा पाना, ठेकेदार के पास मज़दूरी भुगतान अटका होना, परिवार के मुखिया या सदस्य का प्रवास स्थल पर फंसे होने, राशन कार्ड ना होना, अन्य ज़रूरत के दस्तावेज़ जैसे आधार कार्ड, भामाशाह कार्ड में जटिलता होना, आदि कारणों से इनको बहुत सारी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है।

डेढ़ महीने से नहीं मिली है मज़दूरी

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

गौतमलाल आगे बताते है, “अंतिम बार मुझे मेरी मज़दूरी का भुगतान हुए डेढ़ माह से अधिक हो गया है। मुझे नहीं पता कि अब और कितना समय लगेगा ठेकेदार से अपना बकाया पैसा लेने में। मुझे यह बताते हुए बहुत शर्म आ रही है लेकिन मेरे पास मात्र 200 रुपये बचे हैं। ऐसे में मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं लॉकडाउन के इस दौर में अपने परिवार का गुज़ारा कैसे करूंगा।”

लॉकडाउन के साथ ही सरकार ने राहत भरी घोषणा भी की थी लेकिन देखने में आ रहा है कि अभी तक इसे सही ढ़ग से लागू नहीं किया गया है। आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में तो योजनाएं पहुंचने में बहुत समय लगते हैं।

हमने 7 गाँवों का दौरा किया इन गांवो में लोगो को राशन का गेंहू तक नहीं मिला है। स्थानीय प्रशासन मात्र शहरों से गांव लौटे हुए प्रवासियों की पहचान करने में लगे हुई है। वे इन्हें क्वारंटाइन रहने की सलाह दे रहे हैं लेकिन उनके राशन-पानी की चिंता किसी को नहीं है।

गौतमलाल राशन वितरण का हाल बताते हुए कहते हैं, “सरपंच ने कहा है कि हर राशन कार्ड धारी को राशन के रूप में 20 किलों गेहूं दिए जाएंगे लेकिन मेरे परिवार को अब तक स्थानीय प्रशासन की ओर से एक दाना भी नहीं मिला है। हां, मज़दूरों के हित के लिए काम करने वाली एक संस्था ने मुझे 2 सप्ताह की राशन सामग्री उपलब्ध करवाई है।”

उन्होंने आगे कहा, “सरपंच जी कहते हैं कि सरकार ने सबके खाते में 1000 रुपये की धन राशि जमा करवाई है लेकिन पंचायत मुख्यालय पर स्थित बी.सी. सेंटर यहां से 10 किलामीटर दूर है।”

वो आगे कहते हैं,

सार्वजनिक परिवहन के साधन भी बंद हैं। ऐसे में कैश निकाल पाना भी बहुत कठिन काम है। इस बात की कोई गांरटी नहीं कि 10 किमी दूर पैदल जाने के बाद भी मुझे बैंक से पैसा मिल ही जाएगा।

सरकार ने आनन-फानन में लॉकडाउन जैसा कठोर निर्णय तो ले लिया है लेकिन इस निर्णय ने आदिवासी प्रवासियों को करो या मरों की स्थिति में ला खड़ा कर दिया है। तत्कालीन हालात को देखते हुए मुझे लगता है कोरोना वायरस से पहले इन आदिवासियों को भूख मार देगी।

लॉकडाउन का यह पांच सप्ताह का समय इन दिहाड़ी मज़दूरों के लिए बहुत लंबा है, यह समय इनके लिए कष्टों और अभावों से भरा हुआ है। इस कठिन समय में सरकार व संस्थाओं को मिलकर इन प्रवासियों की मदद करने की ज़रूरत है।

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