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“फेक न्यूज़ के कारण कैसे गिर रहा है देश में पत्रकारिता का स्तर”

Credit- Flickr

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न्यूज़, खबरें, समाचार यह सब एक ही शब्द के पर्यावाची हैं, इन सभी शब्दों का अर्थ एक ही है कि लोगों तक किसी भी माध्यम से संदेश पहुंचे।

हिंदुस्तान में आज़ादी के पहले से अब तक 4 प्रमुख माध्यम रहे हैं जिनके प्रयोग से संदेश पहुंचाने का काम किया जाता रहा है। पहला- समाचार पत्र, दूसरा रेडियो, तीसरा टेलीविज़न और चौथा सोशल मीडिया।

कुछ बातें जा आपको जाननी चाहिए

सोशल मीडिया कैसे बन गया ट्रेंड

प्रतीकात्मक तस्वीर।

यह तो थे वह माध्यम जिनसे हमें खबरें प्राप्त होती रही हैं और इन सभी माध्यम के श्रोता हर प्रान्त में अलग अलग देखने को मिल जायँगे। पर क्या इन सभी माध्यम और उन माध्यम में भी अलग अलग मीडिया हाउसेज़ की खबर का स्रोत भी अलग होता है। इस बात से कम ही लोग वाकिफ हैं।

यूं तो सभी मीडिया हाउस दावा करते हैं अपनी खबरें एक्सक्लूसिव होने का मगर क्या उनके अपने किसी कॉरस्पॉन्डेंट द्वरा कवर की गई खबरें सच में एक्सक्लूसिव होती हैं? तो इसका जवाब है नहीं!

अगर बात करें न्यूज़ पेपर की तो हमारे देश में हज़ारों न्यूज़ पेपर और मीडिया चैनल्स हैं जिनमें मुख्य धारा वाले 100 पेपर और चैनल तो ज़रूर हैं जो अपने-अपने प्रान्तों में प्रमुखता से उनकी विश्वसनीयता के आधार पर पढ़े या देखे जाते हैं।

क्या आप जानते हैं कि इन अखबारों या चैनलों में जो खबरें होती हैं ठीक वही खबरें हू-बहू दूसरे अखबारों और चैनलों में भी देखने को मिल जाती हैं बस हेडिंग के बदलाव के साथ।

जब देशभर में परमानेंट कॉरस्पॉन्डेंट नहीं हैं तो खबरें हर प्रांत की आती कैसे हैं?

प्रतीकात्मक तस्वीर।

भला खबर एक है तो मैटर भी एक हो सकता है क्या बुरा है इसमें? मगर क्या आप उस प्रणाली से अवगत हैं जिसके अंतर्गत ये चीज़ें हो रही हैं। अगर मैं बात करूं बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और झारखंड जैसे प्रदेशों की जहां ना तो दिल्ली और मुम्बई जैसी चकाचौंध है और ना ही शोहरत और पैसे हैं।

वहां आपको ढंग से हर ज़िले में हर अखबार या चैनल का बयूरो आफिस भी देखने को नहीं मिलेगा और ना ही कोई परमानेंट कॉरेस्पॉन्डेंट तो फिर वहां की खबरें आती कैसे हैं?

मैं बताना चाहूंगा इन क्षेत्रों में कई ऐसे लोगों को मीडिया हाउस कॉन्ट्रैक्ट बेसिस पर राखती हैं जिन्हें स्ट्रिंगर कहते हैं, जिनका काम सिर्फ वहां के लोकल खबरों को न्यूज़रूम तक पहुंचाना है।

यह काम वे बड़ी आसानी से अपने क्षेत्र के लोकल व्हाट्सएप ग्रुप या चाय की टपरी पर चल रही चर्चाओं से पूर्ण कर लेते हैं, क्योंकि बिना तनख्वाह इससे ज़्यादा क्या ही कर सकते हैं। उन्हें पैसे सिर्फ तभी मिलते हैं जब उनकी खबरों में कोई सनसनी पैदा करने की छमता हो। 

घर चलाना है तो थोड़ा इधर-उधर तो करना ही होगा!

ऐसे शुरू होती है वह पत्रकारिता जो आज पूरे देश में चल रही है। इसमें उनको भी क्या गलत मानूं। बेचारे समाज का सारा काम छोड़कर पत्रकार बन गए और भला अब घर-बार भी देखना है, बच्चों को भी पालना है तो उन सब ज़रूरतों को पूरा करने के लिए थोड़ा इधर-उधर करना जायज़ है।

अब दो युवा की बाइक दुर्घटना में मौत हुई इस खबर को ऐसे लिखने में हर्ज़ ही क्या है कि मुसलमान युवक की गलती के कारण होनहार हिन्दू युवक की सड़क दुर्घटना में हुई मौत। बस लफ्ज़ों का चयन अलग है बाकी मौत तो दो तब भी है मगर हां शायद उस पत्रकार के कुछ पैसे बन गए।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तीन बड़े शहरों से ऑपरेट होती हैं

न्यूज़ चैनल देखते लोग। फोटो साभार- सोशल मीडिया

इसी तर्ज़ पर अगर बात करें सिर्फ टेलीवीज़न मीडिया की तो हिंदुस्तान का पूरा मीडिया संस्थान लगभग 3 बड़े शहरों से ऑपरेट होती है। प्रथम दिल्ली फिर हैदराबाद और मुम्बई।

इन शहरों की गगनचुम्बी इमारतों में सभी बड़े चैनल के मीडिया हेडक्वार्टर हैं। यह मान लें कि यहीं से पूरे देश की मीडिया में क्या चलेगा क्या नहीं तय किया जाता है। यह सब सिर्फ उन्हीं स्ट्रिंगर्स पर निर्भर है जो ग्रामीण इलाकों से हैं, क्योंकि हिंदुस्तान की ज़्यादातर आबादी आज भी ग्रामीण है।

आज देश की सभी मीडिया दावा करती हैं क्वालिटी कंटेंट देने का मगर किनकी बदौलत? उन्हीं स्ट्रिंगर्स के बल पर जिन्होंने कभी ना तो पत्रकारिता की पढ़ाई की है और ना ही कोई प्रोफेशनल एक्सपीरियंस है उनके पास, बल्कि अधिकतर देखा गया है कि वे अन्य रोज़गार में संलग्न होते हैं।

मैं अपने खुद के अनुभव से आपको बिहार और उत्तरप्रदेश के कई ज़िलों की बात बताता हूं जहां ये जो स्ट्रिंगर्स हैं उनमें से किसी की कपड़े की दुकान है, तो किसी की दवा की दुकान तो किसी की गाड़ी के स्पेयर पार्ट्स की।

ये सब गलत नहीं है मगर परेशानी की बात है कि वे पत्रकारिता को वक्त तभी दे पाते हैं जब अपने मूल काम से फुरसत पाते हैं।

कई लोग एक स्थिर जगह से ही पूरे ज़िला की पत्रकारिता कर लेते हैं। ऐसी पत्रकारिता में तथ्य की कमी महसूस होती है। अगर वे कहीं जाते भी हैं तो उसमें भी एक फिक्स राशी तय है जो कि उन्हें देनी होगी तब आपकी खबर चलेगी। ये सब उस दौर में हो रहा है जब हमारे देश में प्रतिवर्ष लाखों जर्नलिज़्म ग्रैजुएट पास होकर निकलते हैं लेकिन उनको इन मीडिया हाउस में जगह नहीं मिलती है।

बिना किसी पढ़ाई, बिना किसी एक्सपीरियंस वाले लोगों को रखकर ये कॉलिटी कंटेंट के दावे करते हैं और लोगो में इस बात पर बहस भी नहीं है क्योंकि लोग नहीं जानते कि सच में होता क्या है। शायद मैं भी यह नहीं जान पाता अगर मैंने दिल्ली में पत्रकार के तौर पर वक्त ना गुज़ारा होता और राजनीतिक जीवन में देश के सुदूर इलाकों में जाकर उसे महसूस ना किया होता।

सोशल मीडिया का उदय जितना अच्छा उतना भयावह

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

यह सब पहले से चल ही रहा था देश भर में कि फिर सोशल मीडिया का उदय हो गया और इस माध्यम का उदय जितना बढ़िया रहा उतना भयावह भी।

इस माध्यम ने लोगो को सवाल पूछना सिखाया क्योंकि अब कोई भी खबर चंद मिनटों में आग की तरह हर जगह फैल जाती है। यह बदलाव सभी दूसरे पुराने मीडिया प्लेटफॉर्म की रीच पर असर डालने लगी और उन्हें महसूस कराने लगी कि यह सबसे सस्ता और सरल माध्यम है लोगो तक जाने का।

फिर सोशल मीडिया का उदय मीडिया को एक नई बुलंदी पर ले गया और इस पर उन लोगों की भी नज़र गई जो कि मीडिया का इस्तेमाल प्रोपेगंडा फैलाने के लिए किया करते थे।

खासकर पॉलिटिकल पार्टीज़, धार्मिक संगठन जो कि सोशल मीडिया को अपने प्रचार के लिए इस्तेमाल करने लगे और हर पार्टी, संगठन ने अपना मीडिया सेल गठित किया जो कि काम मे जुट गए मगर क्या आप जानते हैं फेसबुक, ट्विटर पर कमेंट और पोस्ट करने के लिए हज़ारों लोगों को तनख्वाह पर रखा गया है।

जिनका काम ही सिर्फ प्रोपेगंडा फैलाना है। जैसे कि हाल में ही एक फिल्म के एक रेप सीन को इस कैप्शन के साथ डाला गया “बंगाल में एक महिला के साथ वहां के रसूखदार लोग दुष्कर्म करते हुए।” यह पोस्ट पूरे देश मे वायरल हो गई। बिना तथ्य जाने लोग इसे शेयर करने लगे।

बिना पत्रकारिता की पढ़ाई किए आज स्ट्रिंगर्स किस तरह फेक न्यूज़ को बढ़ावा दे रहे हैं?

प्रतीकात्मक तस्वीर।

बिना पत्रकारिता की पढ़ाई किए आज स्ट्रिंगर्स और यह स्वयं नियुक्त पत्रकार किस तरह फेक न्यूज़ को बढ़ावा दे रहे हैं इसका एक ताज़ा उदाहरण तबलीगी जमात वाले केस में देखा जा सकता है। वहां के लोगों के आइसोलेशन में जाने के बाद मीडिया में खबरें चलाई गईं।

उन खबरों में यह बताया गया कि उत्तरप्रदेश के एक शहर के अस्पताल में तबलीगी जमात के लोगों ने नर्स के साथ छेड़छाड़ की। एक-एक पुराना वीडियो पेज पर अपलोड कर बताया गया कि दिल्ली में तबलीगी जमात के लोगों ने पुलिस वालों पर थूका और तेलंगाना में 2 तबलीगी जमात के लोगों ने 6 लोंगो को किया संक्रमित।

ज़रा इन खबरों की गहराई में जाकर देखें तो उत्तरप्रदेश पुलिस ने ट्वीट के ज़रिये नर्स के साथ छेड़छाड़ वाली घटना को गलत ठहराते हुए इसका खंडन किया।

फिर सोशल मीडिया पर चल रहे उस थूकने वाले वीडियो की तह में की गई पड़ताल से पता चला कि वह 1 साल पहले किसी कैदी के पेशी के वक्त का था और सबसे महत्वपूर्ण 6 लोगो को संक्रमित होने वाली बात पर तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने खुद बयान देकर गलत ठहराया और ऐसी अफवाहों से दूर रहने को कहा।

दोषी कौन?

तो इसमें दोष किसे दिया जाए, हां यह भी सच है कि सभी मीडिया हाउस का अपना एक एजेंडा होता है लेकिन उस एजेंडा को सेट करने में सबसे महत्वपूर्ण रोल इन लोगो का भी है जो फेक न्यूज़ के माध्यम से सनसनी फैलाते हैं, क्योंकि वे सुनी-सुनाई बातों को तथ्य मानकर उसे रिपोर्ट कर देते हैं।

यही वह कमी है क्योंकि जब मैं पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था तो एक महत्वपूर्ण चीज़ हर रोज़ बताई जाती थी कि किसी खबर को रिपोर्ट करने से पहले उसकी पुष्टि करें और यहां तबलीगी जमात वाले केस में यहां तक बता दिया गया कि पुलिस केस हो गया है बिना पुलिस से पुष्टि किये हुए।

फेक न्यूज़ के कारण भी इस देश में पत्रकारिता का स्तर गिरता जा रहा है। उसकी सबसे बड़ी वजह है उन प्रोफेशनल लोगों का इस फील्ड में होना जो ना ही पत्रकारिता के एथिक्स जानते हैं ना ही कोई प्रोफेशनल एक्सपीरियंस है उनके पास।

इसलिए आज के दौर में ज़रूरत है उन जॉर्नलिज़्म ग्रेजुएट्स को मुख्य धारा में लाने की। इससे पत्रकारिता का स्तर भी बढ़ेगा और साथ उन ग्रेजुएट्स को रोजगार भी मिलेगा।


संदर्भ- विकिपीडिया, हिन्दुस्तान, आउटलुक, लाइव मिंट, The Guardian, history.com

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