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“पीरियड आने पर माँ ने मुझे कपड़ा दिया लेकिन इसे कैसे लगाते हैं यह नहीं बताया”

story of my first period

महिलाओं को करना होगा जागरूक- प्रतीकात्मक तस्वीर

‘पीरियड’ यानी माहवारी यह वो विषय है जिसे बढ़ती उम्र के किसी क्लास में जगह नहीं दी जाती है। एक ऐसा विषय जिसकी सही और साफ जानकारी एक लड़की ही नहीं, बल्कि एक लड़के को भी बराबरी से दी जानी चाहिए।

घरों में इसे एक आपराधिक मुद्दा मान लिया जाता है जिस पर चर्चा नहीं की जा सकती है। इस मामले में केवल कानाफूसी ही की जा सकती है और यदि घर में पुरुष मौजूद हों तब तो वह भी मुमकिन नहीं है।

बस तो ऐसा ही कुछ माहौल हमारे घर का रहा है। मुझे ठीक-ठीक याद है कि मैंने पीरियड जैसा कोई शब्द ना ही कभी अपने घर में सुना था और ना ही स्कूल में।

अजीब है ना! एक गर्ल्स स्कूल की छात्रा होने के बावजूद भी नहीं। मेरे पीरियड की कहानी शुरू करने से पहले एक और पीरियड की कहानी ज़रूरी है।

मैं स्कूल में थी! क्लास अब याद नहीं, तब सरकारी स्कूलों में टेबल-कुर्सियां नहीं हुआ करते थे हालांकि अब भी नहीं हैं। हम सभी को टाट पर बैठाया जाता था।

एक दिन जब कोई क्लास खत्म हुई तब हमारी ही क्लास की कोई लड़की बेहद घबराई-सी खड़ी थी और उसकी यूनिफॉर्म पूरी तरह खून में लिपटी हुई थी।

मैं नहीं जानती उसे मालूम था या नहीं कि आखिर उसके साथ हुआ क्या है? बरहाल जो जानतीं थीं कि क्या हुआ है, वे कानाफूसी कर रही थीं।

जो नहीं जानती थीं, वे मेरी तरह घबराई सी खड़ी थीं। हमारी मैडम का सीधा लेकिन सबसे उलझा हुआ उत्तर मिला ज़्यादा हंसों मत ये सबके साथ होता है और यही बात डर बनकर मेरे ज़हन में बैठ गई।

सृष्टि तिवारी।

किसी ने बताया ही नहीं, समझाया ही नहीं कि ऐसा क्यों और कब तक होता है लेकिन उसके बाद क्लास की सबसे सयानी लड़की ने कहा इसमें घबराने जैसा कुछ नहीं है, जब लड़कियां माँ बनने वाली होती हैं तब ऐसा होता है उसने सुना है।

“क्या वो लड़की माँ बनने वाली थी?” ऐसे ही ना जाने कितने सवाल उठे होंगे उस क्लास में खड़ी उन लड़कियों के मन में! जहां ऐसी कहानियां मन में पड़ी हों, वहां आप क्या ही हिम्मत जुटाएंगे और कितना ही किसी को डर से बचाएंगे।

मुझे लगता है मेरा पहला पीरियड ऐसी ही किसी कहानी के डर का नतीजा रहा होगा लेकिन मेरा पहला पीरियड आया तब मुझे मालूम ही नहीं था।

मुझे करना क्या है बस वही एक उत्तर मेरे दिमाग में था सबके साथ होता है। अपने ही खून को देखकर मैं कांप गई लेकिन मैं इतनी हिम्मत भी नहीं जुटा पाई की अपनी माँ को कुछ कह पाऊं, बता सकूं।

शायद माँओं के पास कोई पारखी नज़र होती होगी। वो भांप गईं कि कुछ तो है लेकिन उसके बाद क्या? माँ ने मुझे अपराधी जैसी नज़रों से देखते हुए एक कपड़ा दिया और कहा, “ये लो कपड़ा।” माँ ने बताया ही नहीं कि इसका करना क्या है।

अब सोचती हूं तो लगता है कि शायद गलती माँओं की नहीं, बल्कि उन रूढ़ियों की है जो जन्म से उनके पल्ले बांध दी जाती हैं फिर अपने ही घर में लगा जैसे मैं अपराधी हो गई हूं। यूं भी जिन बातों की समझ नहीं होती वे ज़्यादा तकलीफदेह लगने लगती हैं।

फिर जैसे कई महीनों मैं खुद से ही लड़ रही थी। अपने ही घर में डरी, सहमी, सकुचाई सी रहती थी। कई रातों को यह सोचकर नहीं सो पाती थी कि जाने सुबह कैसी होगी।

उस पर घर की बड़ी-बूढियों की डांट भरी घुड़की। वे आंखों से ही जताती जातीं यहां मत बैठो, ये मत छुओ वो मत खाओ, वगैरह-वगैरह।

मैंने इतनी नकारात्मकता खुद में शायद ही कभी महसूस की होगी। एक डर, एक खीझ अंदर ही अंदर फूटने लगा था और शायद पहली बार मुझे लगा कि लड़की होना वाकई गुनाह होता होगा। तभी लोग एक बेटी के होने पर इतना अफसोस जताते हैं।

लेकिन कहानी इतने पर ही तो खत्म नहीं हो सकती। जब आपको पीरियड ही नहीं पता तब उसकी कहानी क्या पता होगी? तो हुआ यह कि मुझे उस वक्त मालूम ही नहीं था माहवारी की कोई समयावधि भी होती होगी।

यह सब कुछ तीन दिन तो हुआ। चौथे दिन मैंने खुद को उस अपमानित, अपराधी की मूर्ति से बाहर लाने की कोशिश की लेकिन जब लगा सब सामान्य नहीं है, तो मैं डर गई। ऐसा लगा ज़रूर मुझे कोई बीमारी हुई है लेकिन पूछती किससे, किससे बताती?

मुझे कई महीने लगे बस इतनी-सी बात समझने में कि उस कपड़े का करना क्या है और ये कितने दिन तक मेरे साथ होगा? तब इतनी हिम्मत ही नहीं थी कि किसी से सवाल पूछा जा सके और कोई जवाब ढूंढा जा सके।

लेकिन अब इन बातों को खुलकर कहने-सुनने के लिए हमें आगे आना ही होगा। यह कहानी सिर्फ मेरी नहीं, बल्कि हर उस लड़की की है जिसे नहीं बताया गया कि पीरियड क्या है? क्या माँओं के लिए इतना कठिन है अपनी बेटी को इतनी-सी बात समझाना, बल्कि बेटों को भी बेहतरी से यह बात समझाई जानी चाहिए।

एक ओर हम मेंस्ट्रूअल हाइजीन और माहवारी संबंधित कितने ही काम कर रहे हैं, कितनी ही सड़ी-गली धारणाओं को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं मगर हम एक लड़की में होने वाले सामान्य से बदलाव को भी सामान्य रूप से स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।

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