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भारत मे अनेकता में एकता: विविधता है या विभेदन का हथियार

migrant labourers

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विविधता और विभेदन दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, आप किसे चुनते हैं, यही आपके दृष्टिकोण को सुनिश्चित करता है।

फोटो साभार- जितेन्द्र जीत

“कश्मीर से कन्याकुमारी भारत एक है।” यात्रा करते हुए सड़कों पर लिखा यह संदेश हमने कई बार पढ़ा होगा। हालांकि, मेरी इससे ज़रा असहमति है। कश्मीर से कन्याकुमारी की दूरी तकरीबन तीन हज़ार किलोमीटर है। भला इतने बड़े भू-भाग में एकरूपता कैसे संभव है?

हम सब एक नहीं हैं। सभी को एक बनाने या मानने की यह कोशिश ही कई तरह की समस्या को जन्म देती है। सबको एक बनाने की ये ज़िद्द ही स्थानीय विशिष्टताओं का अपमान करती है जिससे सामाजिक और वैचारिक अस्तित्व को खतरा पैदा होने लगता है।

यदि सम्पूर्ण भारत एक होता, कक्षा-कथित “भारत माता” हम सबकी ही माता होती तो इस लॉकडाउन के खतरे में भी इतने लोग भूखे-प्यासे सैकड़ों किलोमीटर पैदल नहीं चलते!

भले ही उन्हें भोजन से लेकर रहने की व्यवस्था मिल जाती मगर सामाजिक सुरक्षा का आभाव ही रहता। हज़ारों लोग मौत का खतरा लेकर भी पैदल सिर्फ इसलिए चल रहे थे ताकि वे इस समस्या में “अपनों” का साथ पा सकें। अपने गाँव-घर में ही सामाजिक सुरक्षा का भाव आता है।

स्पष्ट है उनके लिए राष्ट्रवाद अपने गाँव से हल्का ही रहा। कश्मीर से कन्याकुमारी तक का भारत उन्हें एक होने का भाव नहीं दे सका, “अपनों” सा एहसास नहीं दे पाया।

अगर हम में एकता होती तो एक समुदाय को कोरोना का वाहक घोषित नहीं करते

क्वारंटाइन के लिए जाते तब्लीगी जमात के सदस्य।

हमें अगर एक ही होने का एहसास होता तो कोरोना महामारी के लिए पूर्वोतर के लोगो के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाता। किसी एक खास धर्म को उसका वाहक घोषित नहीं किया जाता। बस ऐसे में ही हम-एक से फिर अनेक होने लगते हैं।

भारत में तथाकथित बहुसंख्यक समाज हमेशा एकरूपता पर ज़ोर देता रहा है। आज़ादी के समय और संविधान निर्माण के दौरान भी देशभर के लिए एक ही तरह की भाषा, धर्म और रीति–रिवाज़ों को अपनाने पर ज़ोर दिया गया था।

संविधान निर्माताओं ने स्थानीय विशिष्टताओं के लिए व्यापक दृष्टिकोण रखा। हालांकि, आज भी रह-रहकर तथाकथित बहुसंख्यकों द्वारा राष्ट्रवाद के नाम पर सभी को एक सामान बनाने का हठ किया जा रहा है।

क्या सम्पूर्ण भारत में हम भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से भिन्न हैं?

यहां समझने की आवश्यकता है कि सम्पूर्ण भारत में हम भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक हर तरह से अलग-अलग हैं। किसी एक ही भौगोलिक क्षेत्र में सामाजिक–सांस्कृतिक भिन्नताएं हैं तो समान सामाजिक परिवेश वाले क्षेत्रों में भाषायी भिन्नताएं हैं।

समान धर्म से सम्बन्ध रखने वाले लोग भी विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में अपने धर्म का निर्वहन अलग-अलग तरीकों से करने लगते हैं और किसी एक ही अनुष्ठान को अलग-अलग धर्म एवं राज्यों में विभिन्न रीति-रिवाज़ों के साथ मनाया जाता है।

किसी एक ही भूभाग में समान भाषा होने पर भी बोली का स्थानीय लहज़ा लोगों की पहचान बन जाता है। साथ ही ये भिन्नताएं और विशिष्टताएं समय के साथ-साथ नया स्वरूप लेकर बनती-बिगड़ती रहती हैं।

समस्या कहां है?

फोटो साभार- जितेन्द्र जीत

समस्या तब जन्म लेने लगती है जब बहुसंख्यक लोग अल्पसंख्यको को अपने जैसा बनाने, अपने धर्म में शामिल होने, सामान रीति-रिवाज़ मनवाने के लिए हिंसक होने लगते हैं। ऐसा माहौल बनाया जाता है कि या तो हम जैसे हो जाओ या फिर हमेशा हमसे कमतर ही रहो।

उनके अनुसार कमतर लोगों को अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने का हक़ नहीं होता है। उन्हें समाज के एक कोने में दबे-कुचले रूप में रहना चाहिए।

हाल ही में हुए दिल्ली के दंगे इसी समस्या का उदाहरण हैं। इस दौरान बहुसंख्यक लोगों की भीड़ का कहना था कि इनकी (मुस्लिम समुदाय) हिम्मत कैसे हुई हमारे देश में CAA-NCR-NPR का विरोध करने की?

हमारा ही खाते हैं हमसे ही बेईमानी करते हैं। दरअदल, यहां सारी समस्या की जड़ इस “हमारा” में ही है। जब तक हम उन्हें भी इस “हमारे” में शामिल नहीं करेंगे, तब तक उनकी बात भी नहीं समझ पाएंगे।

पिछले दिनों कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाने पर एक नेता कह रहे थे कि अब कश्मीर भी सामान्य प्रदेश हो जाएगा। मतलब पहले वह कश्मीर को असामान्य मानते थे। कई यह समझने को तैयार ही नहीं है कि कश्मीर पहले भी अपनी विशिष्टताओं के साथ एक सामान्य राज्य ही था।

उसकी विशिष्टताओं को हमेशा नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है। कई अन्य राज्य भी ऐसे ही अलग-थलग माने जाते रहे हैं।वैसे संविधान की पांचवीं और छठवीं अनुसूची (अनुच्छेद-244) देश की अनुसूचित जाति और जनजाति क्षेत्रों को विशेष दर्ज़ा देती है।

ऐसा इसलिए कि वे अपनी विशिष्टताओं को बचाएं और अपना अस्तित्व कायम रख सकें लेकिन हम किसी को स्वयं जैसा बनाने को ही सामान्य मानते हैं।

हम भारतीय वैचारिक मान्यताओं में भी भिन्न हैं

लॉकडाउन के दौरान घर जाते प्रवासी मज़दूर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

हम सिर्फ सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से ही नहीं, बल्कि वैचारिक मान्यताओं में भी भिन्न हैं। एक तरफ वैज्ञानिक चिंतन के साथ हम चंद्रमा पर यान भेज रहे हैं और दूसरी तरफ चंद्रमा की पूजा करके अपने पति की लम्बी आयु हेतु प्रार्थना कर रहे हैं।

देश में मंदिर और मस्जिद के विवाद पर हम 27 वर्षों से लड़ रहे हैं मगर भुखमरी और कुपोषण से रोज़ होने वाली हजारों मौतों पर चुप्पी साधे बैठे हैं।

आधुनिक भारत की जनसंख्या का एक तबका बुलेट ट्रेन का ख्वाब संजोए बैठा है। जबकि उसी आधुनिक भारत के कुछ क्षेत्रों में आज भी स्वास्थ्य, शिक्षा और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं भी नहीं पहुंच पाई हैं।

वर्तमान में भारत की प्रति व्यक्ति आय लगभग 1 लाख 35 हज़ार रुपये हो गई है मगर आज भी एक बड़ी आबादी 100 रुपये प्रतिदिन से भी कम में अपने परिवार का खर्च चला रही है।

जब विपक्ष की आवाज़ कमज़ोर होने लगती है तो विपक्ष की भूमिका जनता ले लेती है

फोटो साभार- जितेन्द्र जीत

लोकतंत्र में सहमतियां-असहमतियां, सहयोग और विरोध  बहुमूल्य आयाम हैं, जो किसी भी देश को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं । विरोध और विपक्ष की आवाज़ ही लोकतंत्र की प्रक्रिया को संतुलन प्रदान करती हैं।

अन्यथा एक पक्षीय लहर तो किसी भी निर्वाचित शासक को तानाशाह बनने के गुरूर का एहसास दे सकती है। यही वजह है कि जब विपक्ष और विरोध संसद में कमज़ोर होने लगते हैं तो सरकार को चुनने वाली जनता ही विपक्ष की भूमिका में आ जाती है।

विडम्बना यह है कि विगत कुछ समय से असहमतियां प्रकट करना और विरोध जताना अपराध की श्रेणी में आने लगे हैं। असहमति जताने वालों को देशद्रोही और गद्दार तक कहा जाने लगा है।

यह समझ पाना बहुत मुश्किल है कि सत्ता की किसी बात से मात्र असहमत होने पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत लोगों को जेलों में कैसे बंद किया जा सकता है?

क्या सत्ता जनता को एक ही वैचारिक दृष्टिकोण की संख्या में तब्दील करना चाहती है?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार- Getty Images

सत्ता पक्ष स्वयं देश की जनता को एक ही वैचारिक दृष्टिकोण की संख्या में तब्दील करना चाहती है। फलस्वरूप, सरकार खुद पर विरोध की आवाज़ को बड़ी चतुराई से देश विरोधी आवाज़ में परिभाषित करने लगी है।

ऐसे विरोध के सामने एक देशभक्त भीड़ खड़ी कर दी जाती है और अन्य लोगों से असहमत होने पर वही भीड़ उनकी भिन्नताओं पर तरह-तरह के आक्षेप करने लगती है।

विरोध करने वालों के धर्म, पहनावे, भाषा और भोजन को देश विरोधी कहा जाने लगता है। वे छद्म देशभक्त अन्य लोगों को अपने से कमतर प्रदर्शित करने लगते हैं और यह संदेश देते हैं कि बेहतर होने के लिए सभी को एक सामान होना पड़ेगा।

इन सबका नतीजा यह होता है कि फिर देश के लोग आपस में ही लड़ने-भिड़ने लगते हैं और सत्ता पक्ष के कार्यप्रणालियों से सबका ध्यान हट जाता है।

बेरोज़गारी, भुखमरी, कुपोषण, अच्छी शिक्षा, अच्छे स्वास्थ्य, और बेहतर सुविधाओं की सहूलियत जैसे मूल मुद्दों से देश की जनता का ध्यान भटक जाता है जिससे सत्ता पक्ष को पुनः तानाशाही करने का अवसर मिल जाता है।

वैचारिक स्तर पर एकरूपता लाने के ऐसे प्रयास किसी भी देश के लिए घातक हैं। जब ऐसे प्रयास हिंसक रूप लेने लगें तो समझ लेना चाहिए कि यह लोकतंत्र की जड़ों को कमज़ोर कर रहे हैं।

हमें यह स्पष्ट कर लेना चाहिए कि सरकार के किसी कानून या फैसले का विरोध करना देश का विरोध करना नहीं होता है। सरकार के किसी भी निर्णय को लेकर देश के प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना मत हो सकता है।

समझने की बात यह है कि हमारे इस विशाल देश में अनेक तरह की भिन्नताएं और विशिष्टताएं विद्यमान हैं। अब यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि हम इन्हें आपसी विभेदन का हथियार बनाते हैं या विविधतापूर्ण विभिन्न फूलों के गुलदस्ते सा समाज।

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