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“इन मज़दूरों की रहनुमाई करने वाले नेता कहां हैं?”

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आज भारत सहित सम्पूर्ण विश्व बुरी तरह से कोरोना महामारी की चपेट में है। इससे संक्रमित और मरने वालों का आंकड़ा हर पल बदल रहा है। बस इतना समझ लीजिए की स्तिथि भयावह है।

इंसान और इंसानियत हर पल दम तोड़ रही है

भारत में भी पूर्ण रूप से लॉकडाउन है। सभी लोग अपने घरों में ही हैं। ऑफिस और कॉलेज का सारा कार्य लोग इंटरनेट के माध्यम से घर से ही कर रहें हैं जो कि एक अच्छा संकेत है।

सरकार भी बार-बार सभी से यही गुज़ारिश कर रही है कि अगर हमें इस संक्रमण को बढ़ने से रोकना है तो आप घरों में ही रहें।

जब प्रधानमंत्री ने की लॉकडाउन की घोषणा

इन सब के बीच जैसे ही प्रधानमंत्री ने 24 दिसम्बर रात्रि 8 बजे पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा की, मानो लगभग हर शहर में रोज़गार के तलाश में आए लाखों गरीब मज़दूरों में भूचाल सा आ गया हो।

जहां कारखानों में ये सारे काम करते थे। उन्होंने  सरकार के आदेश के बावजूद भी या तो इन्हें निकाल दिया या खुद ही गायब हो गए। उन्हें भूख से मरने के लिए छोड़ दिया ।

आखिर लाचार बेसहारा मजदूरों की कौन सुनेगा?

ये सारे लोग एक दम से लाचार और बेसहारा हो गए। मजबूरन ज़िन्दा रहने के लिए मौत (कोरोना वायरस) को सामने देखने के बावजूद  हज़ारों की तादाद में बस स्टॉप पर अपने-अपने घरों को जाने के लिए इकठ्ठा होने लगे।

ये अफरा-तफरी का माहौल लगभग तीन दिनों तक लगातार चलता रहा। बहुत सारे लोग तो पैदल, साईकिल और रिक्शे से ही अपने गाँव की ओर कूच कर दिए। रास्ते में इन्हें विभिन्न तरह की परेशानियों का सामना भी करना पड़ा।

यहां तक कि कुछ लोगों को मौत को गले भी लगाना पड़ा। अब स्थिति कुछ हद तक ठीक है। सरकार के कार्य सराहनीय हैं लेकिन कई सवाल अभी मौजूद हैं और रहेंगे।

शायद ही भारत में या दुनिया में इतनी बड़ी तादाद में कभी मज़दूरों का शहर से गाँव की तरफ पलायन हुआ हो। जो अभी देखने को मिला बहुत ही भयावह था। बहुत से मज़दूर यह कहते हुए मिले कि अब ज़िन्दगी में शहर कभी नहीं जाऊंगा।

इन सारे मंज़र को देखते हुए एक सवाल ज़हन में आता है और वो यह है कि इन मज़दूरों की रहनुमाई करने वाले नेता कहां हैं? जो चुनाव के वक्त चीख चीखकर वोट देने की अपील करते नज़र आते हैं। अपने आपको मज़दूरों का नेता बताते हैं और हर वक्त साथ खड़े होने का वादा करते हैं।

रहनुमाओं को याद करते हुए मेरी एक कविता- ‘किस पर ऐतबार किया जाए’

जब रहनुमा ही रहनुमाई के काबिल ना रहे
तो किस पर ऐतबार किया जाए।
ये जो हो रहा है हमारे साथ,
यकीनन सही हो रहा है।

कहीं ना कहीं हम चाहते भी यही हैं
रहनुमाओं को रहनुमाई के काबिल बनाया हमने,
फिर अचानक भूल गए।
अपने हक ओ हुक़ूक़ को,

हमारे रहनुमाओं ने ही साज़िश की हमारे खिलाफ
इंसानों को ही खड़ा किया हमारे खिलाफ,
हम किससे शिकायत करें
हमारे अपनों ने ही मुखबिरी की हमारे खिलाफ।

चंद अशरफियों ने गवाही दी हमारे खिलाफ
एक दम से हम लाचार बे सहारा हो गए।
अचानक एक रोज़
खुद ही हो गए अपने खिलाफ।

अपनों ने समझाया बहुत
मगर अब, ऐतबार नहीं होता।
जब रहनुमा ही रहनुमाई के काबिल ना रहें
तो किस पर ऐतबार किया जाए।

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