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“आज भी हम महिला वैज्ञानिकों के नाम क्यों भूल जाते हैं”

1949 में प्रसिद्ध नारीवादी सिमोन द बोउआर ने कहा था कि औरत पैदा नहीं होती, बल्कि उसे बना दिया जाता है। यदि हम वर्तमान सन्दर्भों में भी देखें तो यह बात बिल्कुल सच प्रतीत होती है।

पैदा तो सभी शिशु रूप में ही होते हैं लेकिन समाज यह तय कर देता है कि किसको क्या करना है, क्या बनना है, कहां जाना है, कितना हंसना-रोना है, कितनी तेज़ दौड़ना है, कहां पर रुक जाना है, यहां तक कि क्या खाना है और क्या पीना है?

इतनी सारी बाध्यताएं जब एक व्यक्ति विशेष की ज़िन्दगी में होंगी तो उसके बनने-बढ़ने में उस व्यक्ति के विचार नहीं बल्कि उस समाज के विचार परिलक्षित होते हैं जिससे वह व्यक्ति ताउम्र उस खांचे में फिट आने की नाकाम कोशिशें करता है।

ये खांचे उसके लिए लोग बनाते हैं। बात पूरी दुनिया में और विशेषकर हमारे जैसे विकासशील समाजों में औरतों पर बहुत हद तक लागू होती हैं।

क्या महिलाओं के लिए वर्तमान परिदृश्य में बदलाव आए हैं?

प्रस्तुत लेख महिलाओं की इन्हीं स्थितियों पर बात करता है कि आज हालात कितने बदले हैं? हम कहां तक पहुंचे हैं? लेख को लिखने के लिए मध्य हिमालय में अल्मोड़ा जिले के कुछ राजकीय इंटर कॉलेजों के 11 और 12 के बच्चों के साथ बातचीत को आधार बनाया है।

इनमें लड़के और लड़कियां दोनों शामिल थीं। यह बात पूरी तरह सच है कि बचपन में विद्यालय में  सीखी गई चीज़ें व्यक्ति भूलता नहीं है। अगर ये सब बातें उनको जीना सिखा दिया जाए। खासकर मुझे ऐसा लगता है कि को-एड वाले स्कूलों में यह होना ही चाहिए।

लिंगभेद पर खुलकर चर्चा करने व लोगों को जागरूक करने का सबसे बेहतर मंच है विद्यालय

लिंगभेद जो हमारी नसों में खून बनकर बहता है, उस पर बात करने का सबसे मुफ़ीद मंच मुझे स्कूली प्रक्रियाएं और कक्षा- कक्ष लगता है। लड़कियों और लड़कों को बराबर अवसर देकर समता-समानता के मूल्य स्थापित किये जायें ताकि भविष्य में लड़कों/पुरुषों को लड़कियों/ महिलाओं के साथ सौहार्दपूर्वक कंधे से कंधा मिलाकर काम करने की आदत बचपन से ही हो जाये। इसे अलग से सिखाना न पड़े।

जब मेरा एक विद्यालय जाना हुआ

इन बच्चों के साथ बातचीत की शुरुआत करने के लिए मैंने विज्ञान और महिला वैज्ञानिकों का सहारा लिया और उनसे पूछा कि वैज्ञानिकों के नाम बताओ। अब बच्चे वैज्ञानिकों के नाम बताने लगे। बच्चों ने करीब 35 वैज्ञानिकों के नाम बताये जो कि भारत और दुनिया के अन्य देशों से थे। कुछ बच्चों ने नासा और इसरो जैसी संस्थाओं के नाम भी बताये।

गौर करने वाली बात ये है कि पैंतीस वैज्ञानिकों की इस सूची में एक भी महिला वैज्ञानिक नहीं थी। जो मुझे बहुत हैरत की बात लगी, जवाब भी ज्यादातर लड़कों की ओर से आये थे।

हमने बच्चों के अंदर भी लिंगभेद के बीज बो दिए हैं

अब जो बात मुझे बच्चों से करनी थी वो ये थी कि महिला वैज्ञानिकों के नाम क्यों नहीं आये? महिलाएं वैज्ञानिक थी ही नहीं या उनके ही नाम याद नहीं आये। दोनों प्रश्नों के कारणों पर जाना होगा। कोई महिला वैज्ञानिक क्यों नहीं बनीं और जो बनीं भी तो उनके नाम याद नहीं आये, ऐसा क्यों हुआ? अब मैंने यही सवाल बच्चों के साथ किया।

लड़कों की ओर से जवाब आया सर लड़कियां होंगी ही नहीं तो याद भी नहीं आएगा न उनका नाम।मैंने फिर सोचने को कहा क्या सच में कोई औरत वैज्ञानिक नहीं बनी होगी आज तक? मैं फिर से यहाँ लिखना चाहूंगा कि ये बच्चे कक्षा 11-12 के थे, जिनकी एक स्तर की समझ बन चुकी होती है।

जब मैंने बच्चों से महिला वैज्ञानिकों के नाम जानना चाहा

अब बच्चों के साथ और बात करनी शुरू की कि कैसे वो कुछ महिला वैज्ञानिकों के नाम बता पाएं। तभी मैंने उनसे कहा कि क्या तुमने मैरी क्युरी का नाम सुना है? तो कई बच्चे बोले हां, जिन्होंने रेडियम की खोज की।

रेडियम की खोज मैरी क्युरी ने की यह पता होना मैरी क्युरी को जानना जैसा नहीं है बल्कि यह सिर्फ़ इम्तिहान में एक नम्बर हासिल करने के लिए किसी भी समान्य सवाल को रटने जैसा है या सुनीता विलियम्स को जानना महज़ एक सवाल कि वे 195 दिन तक अन्तरिक्ष में रहीं, भर नहीं है।

आज भी वैज्ञानिक का ज़िक्र आता है तो हम महिलाओं के नाम क्यों भूल जाते हैं

यह इससे ऊपर की बात है। जब वैज्ञानिकों के नाम बताने की बात आती है,हम महिलाओं को आज भी वैज्ञानिकों के रूप में सोच ही नहीं पाते। आज भी डॉक्टर, टीचर या नर्स का ख़याल ही ज्यादा आता है, औरतों को लेकर।

ये सोच बदल रही है लेकिन उस रफ़्तार के साथ नहीं जैसे बदलनी चाहिये। कक्षा 12 के एक बच्चे का यह कहना कि महिला वैज्ञानिक होंगी नहीं तो कहां से नाम आएगा? यह हमारे समाज में लिंगभेद की जो जड़ें फैली हुई हुईं हैं,उन्हीं की एक बानगी है।

यह बच्चों की विफलता नहीं, यह हमारे शिक्षण व्यवस्था की विफलता है

इंटरमीडिएट के बच्चों का महिला वैज्ञानिकों के विषय में न जानना या बात न करना उनकी गलती नहीं है। यह गलती हमारी पूरी व्यवस्था और पाठ्यचर्या की ज्यादा लगती है।

क्या हमारे यहां विज्ञान की पुस्तकों में महिला वैज्ञानिकों के बारे में इतने विस्तार से दिया होता है? या विद्यालय में इस तरह की बातचीत इस विषय पर हो पाती है? ऐसे समाज जहां सौ से भी ज्यादा सालों तक महिला को दोयम माना गया हो, वहां बराबरी लाने के लिए ऐसी बातचीतों को स्थान देना ही होगा।

आख़िर महिलाओं की राह में प्रमुख बाधाएं क्या हैं?

अब बच्चों के साथ इस बात पर बात करने की जरूरत थी कि बीते समय में महिलायें क्यों वैज्ञानिक नहीं बन पायीं या आज भी उनके आगे जाने की राह कठिन ही लगती है? ऐसे क्या कारण थे कि महिलाएं सिर्फ घरेलू कामकाज या ज्यादा से ज्यादा उन प्रोफेशन में जाती हैं, जिनको करने में घर-परिवार में बाधा नहीं आती। पहाड़ों के सन्दर्भ में मुझे इसके प्रमुखतः जो कारण लगते हैं उनको यहां रेखांकित किया है-

महिलाओं के लिये एक स्वस्थ परिवेश के निर्माण कैसे होगा?

इनमें और भी कई कारण हो सकते हैं जिनकी आगे व्याख्या हो सकती है। मूल मुद्दा फिर वही हालात बदलें कैसे? सरकार अगर बड़ी संख्या में विज्ञान कॉलेज खोले, जहां विज्ञान की शिक्षा दी जाती है, वहां पूरी संख्या में अध्यापक-अध्यापिकाओं की नियुक्ति हो। कहीं-कहीं विद्यालयों में तो मैंने देखा है कि जीव विज्ञान के शिक्षक ही कक्षा 12 में रसायन विज्ञान भी पढ़ा रहे हैं।

दूर-दराज में तो शिक्षक ही नहीं हैं। ऐसे में कहां से उम्मीद करेंगे कि इन पहाड़ों को लांघ कर और गधेरों को लकड़ी के पुलों से पार कर कोई मैडम क्यूरी और सुनीता विलियम्स या शकुंतला देवी निकल कर आएगी।

जो विज्ञान के आकाश में सितारा बनकर चमकेगी।

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