भारत में एक ओर कोरोना हर दिन अपने पैर पसार रहा है। वहीं, दूसरी ओर हर दिन इस देश में कुछ एसा हो जाता है जिससे लोग यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि ऐसे वक्त में ऐसी घटना कैसे हो सकती है?
कोरोना संकट के बीच ‘मॉब लिंचिंग’ जैसी घटिया और शर्मसार करने वाली घटना केवल भारत में ही हो सकती है लेकिन ऐसे मुश्किल वक्त के बीच पालघर में हुई ‘मॉब लिंचिंग’ का ज़िम्मेदार आखिर कौन है?
बीते 6 सालों में मॉब लिंचिंग जैसी घटनाएं ना सिर्फ भारत के समाज पर एक काला गहरा धब्बा हैं, बल्कि एक कड़वा सच भी है लेकिन मौजूदा सरकार को यह सब पता होने के बावजूद आखिर क्यों वह इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाती है?
क्या देश को यह सब सहने की आदत हो जानी चाहिए या फिर इन घटनाओं के खिलाफ कार्रवाई हो इसकी मांग करनी चाहिए?
क्या हुआ था पालघर में उस दिन?
महाराष्ट्र के ज़िला पालघर में 16 अप्रैल 2020 की रात जुना अखाड़ा से सम्बन्ध रखने वाले दो साधुओं और उनके साथ उनकी गाड़ी के ड्राइवर को गाँव की भीड़ ने पीट पीटकर मार दिया।
ये दोनों साधु, गाड़ी में अपने ड्राइवर के साथ, मुंबई से गुजरात के सूरत में गुरु श्री महंत रामगिरी के अंतिम संस्कार के लिए जा रहे थे।
मुंबई से 140 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद ज़िला पालघर में गढ़चीनचले गाँव के स्थानीय चौकी पर उनकी गाड़ी को पुलिस ने पूछताछ के लिए रोक दिया।
इतने में ही गाँव के स्थानीय निवासियों की एक भीड़ मोटे डंडो और लोहे की कुल्हाड़ियां के साथ उन पर हमला करने के लिए दौड़ पड़ी।
भीड़ ने नहीं सुनी पुलिस की बात
एक रिपोर्ट के अनुसार, गाँव वालों ने उन्हें लुटेरा समझकर उन पर हमला किया। वहां मौजूद पुलिस वालों ने भीड़ को रोकने की कोशिश की लेकिन गाँव वालों ने उन पर भी हमला किया। इसलिए वे बाद में पीछे हो गए।
इस घटना का वीडियो भी बना और इसी वीडियो का प्रयोग कर के बाद में इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश भी की गई। खैर, इस पर हम बाद में आएंगे।
16 अप्रैल की इस घटना के हो जाने के बाद 19 अप्रैल तक प्रशासन ने 110 लोगों की गिरफ्तारी की जिनमें से 9 किशोर थे।
घटना के बाद मीडिया ने संभाला मोर्चा
इतनी भयानक, निंदनीय और शर्मसार कर देने वाली घटना के बाद ‘पाक-साफ’ मेनस्ट्रीम मीडिया ने मोर्चा संभाल लिया। इतनी बड़ी घटना हुई, आखिर किसी ना किसी को तो विलेन बनाना ही था।
इस बार भी हर बार की तरह विलेन बनाए जाने वाले एक विशेष समुदाय को पकड़कर यहां भी फिट करने की कोशिश की गई।
जैसे ही घटना का वीडियो वायरल हुआ और पूरे भारत को पता चला कि पालघर में मॉब लिंचिंग हुई है, उसके बाद से ही मीडिया चैनल के एंकरों ने अपने अंदाज़ में रिपोर्टिंग की जगह चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया।
घटना का एक वीडियो, टीवी चैनलों के इन एंकरों के लिए अमृत जैसा साबित हुआ। वीडियो में देखा गया कि लोग दोनों साधुओं को लाठियों से पीट रहे हैं। इसी बीच अचानक एक व्यक्ति पीटते हुए किसी दूसरे व्यक्ति को बोलता है, “बस शोएब बस।”
बस फिर क्या होना था, अमृत का घुट मिला था तो कुछ तो इस्तेमाल करना ही था। उस वीडियो के आधार पर प्राइम टाइम में बहस छिड़ गई।
फैक्ट चेक में सच्चाई आई सामने
एक बार फिर से सच्चाई छिपाएं नहीं छिपी। फैक्ट चेकर और फेक न्यूज़ की पड़ताल करने वाली न्यूज़ एजेंसी, ऑल्ट न्यूज़ ने इस वीडियो का सच लोगों के सामने रखा कि वीडियो में युवक “बस शोएब बस” नहीं बल्कि “बस ओए बस” कह रहा है।
20 अप्रैल 2020 के दिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने मीडिया द्वारा मामले को सांप्रदायिक रंग देने को लेकर एक वीडियो जारी किया। इसमे उन्होंने साफ-साफ यह अपील की कि इस मामले को सांप्रदायिक बनाने की कोशिश ना करें।
उद्धव ठाकरे ने जो वीडियो जारी किया उसमेॆ उन्होंने अंत में ये कहा कि अमित शाह को भी यह मालूम है कि यहां आस पास दूर दूर तक कोई दूसरे समुदाय के लोग नहीं रहते है। सवाल यह है कि उद्धव ठाकरे के मुंह से अमित शाह का ही क्यों नाम निकला?
‘हिंदू-मुस्लिम’ से ‘लेफ्ट-राइट’ तक
मेनस्ट्रीम मीडिया पालघर में हुई इस घटना को जब ‘हिन्दू-मुस्लमान’ बनाने में नाकाम रही तो उसके बाद उन्होंने इसको दूसरा एंगल दिया। ‘लेफ्ट बनाम राईट’ का एंगल। मीडिया ने इसको अब यूं कहते हुए रिपोर्ट किया कि जिस गाँव में यह घटना हुई वहां का लोकल लीडर सी.पी.आई.एम. पार्टी का है।
यहां पर भी मीडिया वालों की और मौजूदा सरकार की रिसर्च फेक निकली। 21 अप्रैल 2020 को सी.पी.आई.एम. पार्टी के नेता नरसय्या एडम ने बताया कि गढ़चीनचले गाँव के सरपंच की कुर्सी पिछले 10 सालों से भाजपा की है।
मीडिया की इतनी बुरी हालत देखकर कई बार दया भी आती है कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ किस-किस के पैरों तले रौंदा जा रहा है।
हाल के दिनें में बढ़ी हैं लिंचिंग की घटनाएं
पालघर की इस निंदनीय घटना के बाद मीडिया चैनलों की चिल्ला-चोट सुनकर ऐसा महसूस होता है जैसे कि भारत में पहली दफा ऐसी कोई घटना हुई है लेकिन ऐसा नहीं है।
वैसे तो भारत में पहले भी मॉब लिंचिंग से जुड़े कई मामले होते थे लेकिन हाल के दिनों में ‘मॉब लिंचिंग कल्चर’ को काफी बढ़ावा मिला है। राजनीतिक पार्टियों ने यह काम बखूबी किया है।
क्या कहते हैं मॉब लिंचिंग के आंकड़े
2014 में मौजूदा सरकार सत्ता में आई। इसके बाद 28 सितम्बर 2015 के दिन दादरी, उत्तर प्रदेश में मोहम्मद अखलाक़ की वहां के स्थानीय गाँव वालों ने पीट-पीटकर जान ले ली। बाकायदा माइक से अनाउंसमेंट किया गया कि फलां के घर में गाय का गोश्त है।
अखलाक़ की मृत्यु के बाद ये खूनी सिलसिला सिर्फ यहीं नहीं थमा। ‘दी क्विंट’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2015 की अखलाक़ की मॉब लिंचिंग से 2019 तक पूरे भारत में 113 मॉब लिंचिंग की घटनाएं हुईं।
ये सभी घटनाएं सिर्फ गाय के नाम पर नहीं हुईं। कहीं पर मॉब लिंचिंग बच्चे चुराने के नाम पर हुई तो कहीं पर दलितों पर हमला किया गया लेकिन इनमें एक चीज़ कॉमन थी, भीड़ और उसकी हत्या कर देने की मानसिकता।
इन सभी घटनाओं में 3 दिसम्बर 2018 को इंस्पेक्टर सुबोध कुमार गुप्ता को भी भीड़ ने नहीं बख्शा। चिन्ग्रावती पुलिस चौकी, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश के नज़दीकी जंगल में पशुओं के शव की खबर मिलने पर करीब 400-500 लोगो की भीड़ ने चौकी पर हमला कर दिया।
भीड़ ने कुल्हाड़ी से सुबोध कुमार गुप्ता पर हमला किया। इससे उनकी वहीं मौके पर मौत हो गई। बता दें कि सुबोध कुमार गुप्ता वही पुलिस अफसर थे जिन्होंने मोहम्मद अखलाक़ मॉब लिंचिंग केस की जांच की थी।
अब प्रधानमंत्री की भाषा में इसे ‘संयोग कहें या फिर प्रयोग’ समझ नहीं आता मगर यदि हम मॉब लिंचिंग के मामलों को एक-एककर गिनवाने लगें तो लिस्ट बहुत ही लम्बी है।
रिज़वान, मोकाती एलिसा, संगीता, प्रवीण पुजारी, पहलु खान, शेख नईम, हाफिज़ जुनैद, जयेश सोलंकी, मधु चिन्दाकी, नीलोत्पल दास, तबरेज़ अंसारी और ना जाने कितने ऐसे नाम हैं जो भीड़ के हाथों मार दिए गए। ये फेहरिस्त और भी लम्बी है क्योंकि कई ऐसी घटनाएं मीडिया तक पहुंचती भी नहीं हैं।
मौजूदा सरकार से सवाल पूछना है बेहद ज़रूरी
इन सभी घटनाओं के होने पर मौजूदा सरकार से सवाल करना बहुत ज़रूरी हो जाता है कि आखिर क्यों सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठाती है? आखिर कब तक समाज, भीड़ बनता रहेगा और कानून अपने हाथों में लेकर न्याय करता फिरेगा?
2015 से 2019 तक 113 मॉब लिंचिंग की घटनाएं हो जाती हैं लेकिन यह सिलसिला थमने का नाम क्यों नहीं लेता है? आखिर बार-बार भीड़ क्यों लोगों की जान ले रही हैं?
सरकार की मंशा पर खड़े हो रहे हैं सवाल
इन सभी सवालों को पूछने से पहले एक सवाल आपके लिए भी! क्या आपको लगता भी है कि मौजूदा सरकार इन घटनाओं को रोकना चाहती है? क्या इन घटनाओं के होने पर सरकार को लाभ तो नहीं हो रहा है?
2014 में बहुमत हासिल करने के बाद यह सरकार हर लेवल पर अपने कार्यकर्ताओं को फैलाना चाहती है। ये अपने कार्यकर्ताओं का ऐसा नेटवर्क बनाना चाहते हैं कि हर जगह उन्हीं का बोलबाला रहे। ऐसा हर राजनीतिक पार्टी करती है।
राजनीतिक पार्टियां लोगों को पहले एक-दूसरे समुदाय के बीच उलझाकर, एक-दूसरे की जाति में उलझाकर, एक-दूसरे की क्षेत्रीयता के बीच उलझाकर, भाषा में उलझाकर, वर्गों में उलझाकर लम्बे वक़्त तक राज करना चाहती हैं।
भीड़ का इस्तेमाल केवल किसी को मार देने के लिए नहीं किया जाता है, बल्कि अपना डर बनाकर रखने के लिए भी किया जाता है।
शायद यही वजह है कि 2018 में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा, रामगढ़ मॉब लिंचिंग के 8 दोषियों का हाई कोर्ट से रिहा करने पर स्वागत करते हैं। यही वजह है कि अखलाक़ मॉब लिंचिंग घटना के 6 आरोपियों की एन.टी.पी.सी. में नौकरी लग जाती है।
सरकार को इन घटनाओं के दोषियों को सज़ा देने की ज़रूरत है लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं हो रहा है। कमाल की बात है ना? ऐसा कर के सरकार भीड़ का मनोबल बढ़ाने का काम कर रही है। क्या आपको नहीं लगता कि मौजूदा सरकार मॉब लिंचिंग जैसे गंभीर मुद्दों को नज़रअंदाज़ करने का काम कर रही है?
आखिर कब तक ये सब सहना पड़ेगा?
इसका जवाब तो सरकार ही जाने कि आखिर कब तक भीड़ की इस मानसिकता को बढ़ावा मिलता रहेगा। इस मानसिकता के पीछे का बहुत बड़ा कारण हेट स्पीच है।
एक हेट स्पीच का नकारात्मक प्रभाव इस समाज पर इतना अधिक पड़ता है जितना कि अच्छे से अच्छे स्पीच नहीं कर पाते। हेट स्पीच से ही लोगों के दिमाग में ज़हर भर दिया जाता है और उस ज़हर को आगे बढ़ाने का काम व्हाट्सएप फॉरवर्ड पर किया जाता है।
पालघर मॉब लिंचिंग के केस में भी यही हुआ लोगों को अपने इलाके में बच्चों की चोरी-चकारी और लूटमारी होने का व्हाट्सएप फॉरवर्ड मिला था। इससे लोग पहले से ही आतंकित थे। ऐसे में अचानक से उनके गाँव में एक गाड़ी आती है जिस पर गाँव वाले हमला कर देते हैं।
एंटी मॉब लिंचिंग कानून की है सख्त ज़रूरत
इन सभी घटनाओं को रोकने के लिए ज़रूरी है कि सरकार जल्द से जल्द एंटी मॉब लिंचिंग का कानून बनाए। हालांकि यह बात सभी को पता है कि भारत में कानून किस तरह से काम करता है। फिर भी इससे संबंधित कम-से-कम एक कानून तो बनाया जाना चाहिए।
इससे सरकार की प्राथमिकता और लोगों के प्रति विश्वसनीयता भी साबित होगी। अन्यथा यह कहने में कोई शक और शर्म नहीं होनी चाहिए कि सरकार मॉब लिंचिंग जैसे घटिया घटनाओं को नज़रंअदाज़ कर रही है।
यह बात और है कि पूरे भारत में राजस्थान वह सबसे पहला राज्य है जिसने एंटी लिंचिंग कानून अपने राज्य में लागू किया है लेकिन भाजपा ने इस कानून का विरोध किया।
पालघर जैसी घटनाएं फिर कभी ना हों इसके लिए मौजूदा सरकार से उम्मीद है कि वह कुछ ना कुछ ज़रूरी कदम उठाए।