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जिंदा थे तो अहमियत नहीं थी

जब तक वो जिंदा थे तब तक वो किसिका मुद्दा नहीं थे. जब मर गए तो बाज़ार में अहमियत बढ़ गई.

रोटी देखकर सबकी चेतना जाग गई यही चेतना अभी तक दलगोना कॉफी में लीन थी. ऐसी भावनाए उमड़ उमड़ के आ रही हैं हम सब की जैसे आज ही हमे परमज्ञान प्राप्त हुआ हो. २५ मार्च से शुरू हैं ये. हम सब ज्ञानी तब चुप थे या कहे व्यस्त थे. नेटफ्लिक्स में अगला क्या देखे?. हम सब व्यस्त थे अपने टाईमपास में. टीका टिप्पणी करने में. रामायण में. महाभारत में. अर्णब गोस्वामी में. सुधीर चौधरी में. अपनी आंखो में पट्टी बांधने में.

जब सवाल करना था हम चुप थे. वो चुप चल रहे थे उनकी मजबूरी थी. हम क्यों चुप थे?. उन्हें आप पूछोगे कहा से आना हैं कहा जाना हैं वो हिचकिचा जाते हैं. समझ नहीं आता उन्हें. उन्हें बताया और सिखाया भी गया है “औकात नहीं हैं तुम्हारी सवाल पूछने की, गुलाम हो हमारे टुकड़े पर पल रहे हों आवाज़ मत उठाओ”. पर हम तो गुलाम नहीं हैं. हम क्यों चुप थे?. डेढ़ महीने हम बैठे रहे, उन्हें जाता देखते रहे. उन्हें ही दोष देते रहे. क्या जरूरत हैं कहीं जाने की? आज भी वैसे गलती उन्हीं पर थोपी गई है. क्या जरूरत थी पटरी पर सोने की?. सवाल का जवाब उस सवाल में ही हैं. अगर समझने कि इच्छा हो तो.

पर हम नहीं समझना चाहते.इस लड़ाई में भारत साथ हैं दर्शाने के लिए मिलकर थाली पिट दी, दिए जला दिए. फिर मिलकर सवाल क्यों नहीं कर पाए. किसी दबी आवाज़ की आवाज़ क्यों नहीं बन पाए. कथनी और करनी का फर्क इसे ही कहते हैं शायद. सकारात्मक होना मतलब यथार्थ को नजरअंदाज करना नहीं होता. वो उम्मीद में थे, आस लगाए बैठे थे “कोई हमारी आवाज़ बनेगा”. निराशा हाथ लगी उन्हें.

हम बचा सकते थे पर हम ने कोशिश ही नहीं की. अब मातम मना रहे हैं. क्यों?. अपराधी होने का पश्चाताप?

ट्विटर पर अब बोल रहे हैं #मोदी_माफी_मांगो. किस से? मरे वालो से? मरे वाले के परिवार वालो से? पैदल चल रहे वालो से? भुक से मरने वालो से? उनसे जो ये मान बैठे हैं कि आम आदमी बोलता हैं तो जेल भेज दिया जाता हैं. किस से? अच्छा मांग ली माफी,फिर?.

 

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