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भारत में प्रेस की स्वतंत्रता

प्रेस की आजादी केवल अभिव्यक्ति की आजादी तक सीमित नहीं होनी चाहिए दरअसल प्रेस के लिए अभिव्यक्ति की आजादी तो मौलिक आवश्यकता है ही प्रेस को थोड़ा इससे बड़ा दायरा चाहिए वह है जनहित से जुड़ी जरूरी सूचनाओं को पाने और उनको बिना डरे प्रकाशित करने की स्वतंत्रता।

इन्हीं जरूरी सूचनाओं और जानकारियों को पाने का विस्तृत दायरा(एक माध्यम) था सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 जिसे हाल ही में मोदी सरकार ने कमजोर किया है।

सूचना के अधिकार अधिनियम की वजह से कई जरूरी और महत्वपूर्ण जानकारियां पब्लिक डोमेन तक आई है। बड़े-बड़े भ्रष्टाचार के खुलासे भी इसे अधिनियम की वजह से हुए हैं।

हाल ही में इसी सूचना के अधिकार अधिनियम के वजह से बैंकों के द्वारा जिन 50 बड़े विलफुल डिफाल्टर्स के 68,607 करोड़ रुपए के कर्ज की बड़ी राशि को को बट्टा खाते में डाल दिया गया था देश के उन टॉप 50 विलफुल डिफॉल्टर्स की सूची (जिसमें भगोड़ा हीरा कारोबारी मेहुल चोकसी भी शामिल है।) बाहर आई है, यही जानकारी जब राहुल गांधी ने संसद में मांगी तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह जानकारी उन्हें देने से मना कर दी। अब यह जानकारी आईटीआई कार्यकर्ता साकेत गोखले के जरिए पब्लिक डोमेन तक आई है।

स्वस्थ्य लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है, विपक्ष के प्रति उदासीनता, सरकारों का निरंकुश और तानाशाही रवैया तोड़ने का काम भी मीडिया ही करती है।

दरअसल प्रेस की स्वतंत्रता लोकतंत्र के जरूरी नहीं बल्कि प्रेस की स्वतंत्रता ही लोकतंत्र है।

भारत में प्रेस की स्वतंत्रता की स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में जब एक रिपोर्टर सरकारी स्कूल में मिड डे मील में बच्चों को नमक के साथ खिलाई जा रही रोटियों की वीडियो बना लेता है। तो उसे यह कहकर कि वह प्रिंट का पत्रकार है उसने वीडियो क्यों बनाई, सरकार उल्टे उस स्थानीय पत्रकार पर एफआईआर दर्ज करा देती है।

अभी हाल में जम्मू कश्मीर में दो महिला पत्रकारों सहित ‘द हिन्दू’ अखबार के श्रीनगर संवाददाता पीरजादा आशिक के खिलाफ भी गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम यानी यूएपीए लगाया जाता है। जम्मू कश्मीर में पत्रकार गौहर गिलानी पर उनकी एक फेसबुक पोस्ट के खिलाफ यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज किया जाता है। जबकि दूसरी फ्रीलांस फोटो जर्नलिस्ट मसरत जहरा हैं, मसरत ज्यादातर हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों में महिलाओं और बच्चों से जुड़े मुद्दों पर रिपोर्टिंग करती हैं। 

वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2020 की रिपोर्ट में भारत लगातार दो और पायदान खिसक कर 142वें नंबर पर आ गया है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि 180 देशों की सूची में हम 142वें नंबर पर है। हैरानी वाली यह भी है कि हम नेपाल, भूटान, श्रीलंका और म्यांमार से भी बुरी स्तिथि में है।

यह रपट एक अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संस्था रिपोर्टर विदाउट बॉर्डर जारी करती हैं जो पूरी दुनिया में प्रेस पर नजर रखती है। यह रिपोर्ट कई स्तरों और मानकों पर किसी भी देश में उसकी पत्रकारिता की स्थिति बताती है

ऐसा नहीं है कि पत्रकारिता कि यह दुर्दशा केवल मोदी काल में हुई है। लेकिन पिछले 4 सालों में यह और 9 पायदान नीचे आ गई।

भारत की मीडिया से सवाल यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त इस संस्था की रिपोर्ट वह क्यों नहीं दिखाती। पत्रकारिता पर इतनी जरूरी रिपोर्ट पर वह चुप्पी कैसे साध जाती है।

भारत में मीडिया की लगातार खराब हो रही रेंकिंग का एक कारण यह भी है कि भारत की जनता में मीडिया साक्षरता का अभाव है। मीडिया साक्षरता का तात्पर्य है कि आम आदमी को लोकतंत्र और लोकतंत्र में मीडिया के भूमिका और दायित्व की समझ होनी चाहिए।

सरकारें तो मीडिया पर दबाव बनाती ही हैं, लेकिन राजनीतिक दबाव के अलावा मीडिया पर कॉरपोरेट दबाव भी आ जाता है। जहां एक ओर मीडिया एक मोटी रकम वाला व्यापार बन गया है। जिसमें पूंजीपति मोटी रकम कमाना चाहता है।

वहीं दूसरी ओर भारत में न्यूज़ का पाठक, श्रोता या दर्शक मुफ्त में ही या बहुत कम पैसे में न्यूज़ देखते रहना चाहता है।

और यहीं से शुरू होता है सेल्फ सेंसरशिप का पूरा खेल। मीडिया उन के खिलाफ कुछ नहीं बोलता जहां से उसे विज्ञापन यानी पैसा मिलता है। और यहीं से गायब होती है आम जनता की जरूरी आवाज। मीडिया खबरों की जरूरी जिम्मेदारी से हटकर विज्ञापन का व्यापार बन जाता है।

प्रेस की स्तिथि खराब होने का एक कारण यह भी है कि लोकतंत्र में आपको अभिव्यक्ति की आजादी और सवाल पूछने का अधिकार तो है लेकिन उन्हें यानी सरकार या प्रशासन को जवाब देने की जिम्मेदारी नहीं है। न ही उन पर जवाबदेही का कोई दायित्व है।

भारतीय लोकतंत्र में जवाबदेही की स्थिति यह है कि पिछले 6 सालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक भी ओपन प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने पहले कार्यकाल के 5 साल बाद जनता को अपनी सरकार का हिसाब किताब देने बैठे, तो उसमें पत्रकारों के सवालों के जवाब अमित शाह दे रहे थे। प्रधानमंत्री मोन चुप्पी धारण किए उन्हें देख थे। और मजेदार तथ्य यह है कि पहले कार्यकाल में अमित शाह ना तो सरकार का हिस्सा थे ना संसद का और ना ही कैबिनेट का तो फिर वह जवाब किस हैसियत से दे रहे थे।

दरअसल लोकतंत्र में सरकारें लोक कल्याणकारी राज्य होने का दावा करती हैं और इन्हीं दावों की पड़ताल करने का जिम्मा होता है पत्रकारिता के ऊपर के। पत्रकारिता का काम जनता और सरकार के बीच पुल का होता है। सरकारें सीमित संसाधन का बहाना बनाती है। सवाल पूछने वालों को निशाना बनाती हैं।

दरअसल आपको लोकतंत्र में जो अभिव्यक्ति की आजादी और सत्ता से सवाल पूछने का अधिकार मिला है, उसके लिए आपको एक सशक्त माध्यम की आवश्यकता होती है। पत्रकारिता का एक काम जन सरोकार के मुद्दों को उठाना और आम जनता की आवाज को सरकार तक पहुंचाना भी होता है। जनता के लिए अपनी बात को रखने के लिए मंच उपलब्ध कराना भी। सोशल मीडिया और वेबमीडिया के पहले तो आम आदमी के पास ऐसा कोई भी माध्यम नहीं था।

पत्रकारिता का काम सरकार से जरूरी सवाल करना। जनता की परेशानियों को सरकार के नजर में लाना। सरकार की अच्छी नीतियों को जनता तक पहुंचाना। बुरी नीतियों पर जरूरी टिप्पणी करना। और सरकारों को फीडबैक देना भी।

स्वतंत्र प्रेस के लिए नागरिकों को भी मीडिया साक्षरता के प्रति जागरूक और जिम्मेवार होना चाहिए। और जब मीडिया अपना काम बेहतर तरीके से ना कर रहा हो तो सोशल मीडिया के इस दौर में यह और भी जरूरी हो जाता है।

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