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रोटी के लिए निकल पड़ रहें हैं घर, रास्तों में ही हो जा रहे शिकार आदमी…

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हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी,
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी..

सुबह से शाम बोझ ढोता हुआ,
अपनी लाश का खुद मज़ार आदमी..
हर तरफ भागते दौड़ते रास्ते,
हर तरफ आदमी का शिकार आदमी..

रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ,
हर नए दिन नया इंतजार आदमी..
रोटी के लिए निकल पड़ रहें हैं घर,
रास्तों में ही हो जा रहे शिकार आदमी..

सरकार हो गई पूंजीपतियों के साथ,
खुद में ही बिक गए लाचार आदमी..
जिंदगी का मुकद्दर सफर दर सफर,
आखिरी सांस तक बेकरार आदमी..

कुछ पल बिता सकूं परिवार के साथ
इसी जद्दोजहद में बेकरार आदमी..
आज इस दौर के लिए मुफीद ,
सपने बहुत देखा तलबगार आदमी..

सपने दिखाने वाले हो गए अदृश्य,
सिसक रहे, अब बना दिए गए लाचार आदमी..
आंखो से देख लिए और पढ़ रहे हैं रास्तों को,
अब खुद से ही सह रहे सड़कों की आग आदमी..

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