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वन्दे भारत अभियान बनाम बेबस मजदूर

मौजूदा वक्त में पूरी दुनियां कोरोना नामक महामारी से जूझ रही है, जिसकी वजह से पूरे विश्व में मौत का तांडव चल रहा है। भारत भी शुक्रवार को 82933 कोरोना से प्रभावित मामलों को दर्ज करने वाला विश्व का 12 वां देश बन गया। और साथ ही साथ कोरोना महामारी के बीच इस साल के सबसे बड़े घर वापसी अभियान में भी जुट गया है। वन्दे भारत अभियान, भारत सरकार का वह अभियान है, जिसकी जितनी भी सराहना की जाये कम हैं। भारत सरकार इस अभियान के तहत विदेशों में फंसे भारतीय नागरिकों को उनके घरों पर वापस ला रही है। इस अभियान के तहत भारत सरकार ने विभिन्न देशों में विशेष फ्लाईट्स भेजी और पूरी सुविधाओं के साथ उन लोगों को वापस उनके घरों तक सुरक्षित पहुँचाया जा रहा हैं। इस अभियान के तहत पहला चरण 7-14 मई के बीच चला, जिससे 12 देशों के लगभग 15,000 भारतीयों को लाया जा सके तथा दूसरा चरण 16 मई से शुरू होगा (इंडियन एक्सप्रेस, 15 मई, 2020)। यह अभियान सिर्फ एक उच्च वर्ग के लिए ही नहीं है, अपितु इसमें मध्यम वर्ग के वे सभी विद्यर्थी और दूसरे लोग भी शामिल हैं, जो विदेशों में कोरोना महामारी की वजह से फंसे हुए है। यानि कहा जा सकता हैं, कि यह अभियान निम्न वर्ग के अतिरिक्त सभी वर्गो के लिए हैं। कहने का तात्पर्य है की निम्न वर्ग के लोगों के पास तो खाने के लिए अन्न नहीं है, तो वे विदेश में कैसे जायेंगे?

     वर्ल्ड बैंक (2020) के अनुसार भारत में आंतरिक प्रवास की भयावहता, अंतर्राष्ट्रीय प्रवास की तुलना में लगभग ढाई गुना हैं। भारत में शुरू हुई देशव्यापी तालाबंदी ने लगभग 40 मिलियन आंतरिक प्रवासियों को प्रभावित किया है।

     इन प्रवासियों को तो यह तक नसीब नहीं हैं, कि कोई उन्हें देश के भीतर ही किसी बस या ट्रेन से उनके घरों तक पंहुचा सके। इनमें सिर्फ एक तरह के व्यक्ति शामिल नहीं अपितु इनमें, बुज़ुर्ग, बच्चे, महिलाएं और गर्भवती महिलाएं भी शामिल हैं। वे तो भूखे पेट और पैदल चलकर ही अपने घरों पर लौटने को मजबूर हैं, और इस बीच इनके साथ दुर्घटनाओं का सिलसिला लगातर जारी हैं, कही इन्हें ट्रेन कुचल देती हैं, तो कही कोई इन पर कार चढ़ा देता है, कही ट्रक के पलट जाने से प्रवासी मर जाते हैं और घायल हो जाते हैं, और कही भूख की वजह से वे अपना दम तोड़ देते हैं। वैसे मौतों का यह सिलसिला सिर्फ यही नहीं थम रहा है, जो लोग अपने घरों पर पैदल जाने की हिम्मत नही जुटा पा रहे हैं, और अपने परिवार के लिए उसी स्थान पर रहे कर काम कर रहे हैं, उनके साथ भी दुर्घटनाओं का सिलसिला लगातार जारी हैं। किसी फैक्ट्री की गैस या आग की लपटे भी उन्हें जान से हाथ धोने को मजबूर कर रही हैं। इस तरह बीमारी के अलावा अन्य कारणों से भारत में लॉकडाउन लगाए जाने के बाद से लगभग 378 लोगों की मौत हो गई उनमें से, 69 लोग रेल या सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए (आलावा, 10 मई 2020)। ये वही मजदूर होते हैं जो अपने घर को छोड़ पर बड़े-बड़े शहरों में आते हैं और अपने खून-पसीना से शानदार मॉल बनाते हैं, जिसमे शायद इन्हें अन्दर तक जाने ना दिया जाता हो। इन्होंने बहुत ही मेहनत और खुशी के साथ ना जाने कितने आलिशान स्कूल बनाये हो, वे स्कूल जहां उनके बच्चों के भाग्य में पढ़ना भी न लिखा हो। एक से एक खूबसूरत इमारतें बनाने वाले ये वे मजदूर हैं, जिनके अपने आशियाने टूटे होते हैं। मजदूरों की इस स्थिति को अल्लामा इकबाल के इस शेर के समझा जा सकता है-

तू कादिर ओ आदिल है मगर तेरे जहां में

है सख्त बहुत बन्दा ए मजदूर के हालत

(इक़बाल)

      NBT नव भारत टाइम्स ने तो विदेशों में फंसे भारतीयों को घर लाने वाले स्टाफ और अन्य व्यक्तियों को भगवन की संज्ञा दी है। तो क्या गरीबों का कोई भगवान नहीं होता, जो उनको भी एक बेहतर जीवन जीने में मदद कर सके। लॉकडाउन की वजह से मजदूरों की हालात अत्यंत दयनीय हो गई है। उनके पास काम नहीं है, जिन स्थानों पर वह काम कर रहे थे वहां से उन्हें निकल दिया गया है। क्या धरती पर उनके लिए कोई भगवान नहीं है? जो उनके बारे में सोच सके, या इसे विश्व के सबसे बड़े संविधान की अवेहलना कहा जायेगा? क्योकि भारतीय संविधान का अनुछेंद 14 सभी भारतीयों को समानता का अधिकार देता है। सरकार के द्वारा मिलने वाली सुविधाए सभी नागरिकों को मिलें ये प्रत्येक नागरिक का अधिकार है और सरकार की जिम्मेदारी है। जब कि पिछड़े वर्गो के लिए ये बात और भी कठोरता से लागू की जानी चाहिए।

   इन्हें समानता का अधिकार तो नहीं दिया गया, परन्तु कोरोना फैलाने का आरोप ज़रूर इन पर मढ़ दिया गया। एक तरफ लोग बड़े विश्वास के साथ कह रहे हैं की कोरोना इस देश की बीमारी नहीं ये तो विदेशों की वजह से हमारे देश में फैली है, वही दूसरी ओर इसे फैलाने की जिम्मेदारी किसी खास वर्ग के ऊपर थोप दी जाती है। भले ही कोरोना की शुरुआत में हमारे देश में नमस्ते ट्रंप मनाया जा रहा हो, या विदेशों से आने वाले लोगों को एयरपोर्ट से बिना स्क्रीनिंग के ही छोड़ दिया जा रहा हो, परन्तु ज़िम्मेदार तो सिर्फ किसी एक हाशिये पर रह रहे तबके को ही कहा जा सकता है। वह तबका जो शिक्षा, रोजगार और आर्थिक स्थिति में काफी पिछड़ा हुआ हो, क्योंकि वह तबका इतना पिछड़ा हुआ है की वे सिर्फ मजदूरी करके अपने लिए अन्न के इंतेजाम में व्यस्त है। उसे अपने हक के लिए आवाज़ उठाने का वक्त ही नहीं है, तो क्या फर्क पढ़ता है की उस पर कोई कुछ भी इल्जाम लगा दिया जाये। 

    इस तरह हम देखते हैं, कि एक तरफ भारत विदेशों से आए भारतीय नागरिकों का स्वागत कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ एक बड़ी आबादी जिसने अपने खून पसीने से देश को आधार दिया, उसको देखने वाला कोई नहीं है। इससे लगता है कि हमारी पूरी की पूरी जो नीतियां हैं वे सिर्फ और सिर्फ उच्च वर्ग और मध्य वर्ग पर ही आकर रुक जाती हैं, हमारी नीतियों को देखते हुए लगता हैं, कि इसमें हमारे गरीब मजदूर आते ही नहीं और यदि आते हैं तो इनके बारे में क्यों नहीं सोचा जा रहा? इसके अलावा ऐसे हालात में जब पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा गई है, उसने ना केवल प्रवासी मज़दूरों को बल्कि समाज के अनेक हाशिये के शिकार वर्गों को भुखमरी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है, ऐसे समय में श्रम कानून के सुधार के नाम पर गरीबों को उनके ही अधिकारों से वंचित करने का भी एक नया तरीका ढूंढा जा रहा हैं। जो साथ ही साथ भारतीय संविधान के गरिमा से जीने के अधिकार की मूल भावना का भी अपमान है। अब देखना यह है की क्या इन मजदूर और पिछड़े वर्गो के लिए जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं, भारत सरकार के श्रम एवं रोजगार मंत्रालय और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय कोई ठोस कदम उठायेगें? या हमेशा की तरह इन्हें सिर्फ भुखमरी और परेशानियों का सामना करना पड़ेगा

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