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सांस्कृतिक उत्थान की मजबूरियां

शराब के ठेके खोलने से अराजकता का सैलाब फूट पडा जिसमें लाॅक डाउन के सारे तटबन्ध टूट गये। सस्कारित लोगो में इससे जमकर क्षोभ उमड  रहा है जिसकी बाढ मे सोशल मीडिया के प्लेट फार्म डूबे नजर आ रहे हैं। इन अंदेशों में कोई अतिश्योक्ति भी नहीं है कि इसके कारण लम्बे लाॅकडाउन की तपस्या के सारे पुण्य बर्बाद जा सकते है। इस चिन्ता से अलग शराब को छूट देने की स्थितियों के कुछ और पहलू भी है। जिन पर गौर  होना चाहिए। इनका सम्बन्ध कल्चर से है। जिसकी नींव पर नयी अर्थ व्यवस्था का महल टिका है। इसी कारण लाॅक डाउन को बढाये जाते समय शराब की दुकाने खोलने की पैरवी भी जबरदस्त तरीके से हो रही थी। कहा जा रहा था  कि शराब के शौकीन लत पूरी न हो पाने से आत्म हत्या तक को मजबूर हो रहे है। मानसिंक बीमारियांे का पैर पसारना तो आम हैैैै। सांस्कृतिक उत्थान की प्रक्रिया में शराबनोशी को इतना बढावा दिया गया कि जैसे घर-घर में शराब पहुचा दी गयीं। युवा तो दूर किशोरावस्था की दहलीज चढते ही बच्चे सिग्रेट और शराब पीने के जरिये पर्सनल्टी डवलपमेन्ट का पाठ पढने लगे। शराबियों की नस्ल आज देश में इतनी ज्यादा फैल चुकी है कि सरकार उनकी सेहत से जुडे मुददे की अनदेखी नहीं कर सकती । सरकार की इस मजबूरी को भी सात्विको को अपनी उगली की बोर्ड पर मटकाने से पहले समझना चाहिए।
अपने प्राचीन रूप में यह देश परहेजगारी की प्रतियोगिता का देश है। छुआ-छूत को लोग यह समझते है कि इसका प्रवर्तन कमजोरो के प्रति घृणा प्रदर्शन के लिए हुआ था। जबकि इसका शुभारम्भ ब्राम्हणों ने आपस में बर्ताव के तहत किया था। ब्राम्हणों में परहेजगारी यानी संयम और त्याग की प्रतियोगिता थीं। जो ब्राम्हण लहसुन, प्याज सहित जीभ को आनन्द देने वाले खाद्य पदार्थाे का अधिकतम त्याग करता था उसका दर्जा उतना ही ऊंचा हो जाता था और वह दूसरे ब्राम्हणों से खानपान से लेकर विवाह सम्बन्धो तक में दूरी  बना लेता था। यह अकेली भारतीय धर्म सभ्यता की बात नही थी। दूसरे धर्माें में भी तमाम निषेधो को पवित्रता से जोडा गया था। इस्लाम में तो सादगी का बहुत ही महत्व है। ईसायत ने पोप से नाता तोडकर बनाये गये अपने रास्ते को आधुनिकता का पर्याय  बना दिया। धर्म निरपेक्षता के कुछ फायदे हुए लेकिन इसके कारण आध्यात्मिकता की तिलांजलि हो गयी और निरी दुनियादार बनकर ईसाई समाज ने सारी सभ्यताओं को विकृत कर दिया। उन्होने भौतिक संसाधनों पर कब्जे के लिए दूसरे देशों में शातिर तरीके से नरसंहार किये जिसमें अमेरिका के मूल निवासियों की बीमारों के कम्बल बांटकर हत्याये शामिल है। लाभ के लिए दूसरे देशो में उपनिवेश बनाकर वहा की जनता का निर्मम शोषण यह भी ईसाई सभ्यता की शैतानी विशेषता बनी। करूणा, स्ंायम, त्याग जैसे दैवीय गुण व्यक्ति में मौलिक रूप से विद्यमान होते है। उन्हे साधना के जरिये आरोपित करने का दावा सर्वथा प्रवंचना है। आरोपण तो इन दैवीय गुणों का उन्मूलन करने के लिए होता है। यूरोपियनो में शैतानी भावनाओं का विकास धर्म से दूर हो जाने के कारण संभव हो सका। लाभ के लिए वे निर्दय बने और दूसरो को भी इस रंग में रंगने पर आमादा है।
बाजार-वाद यूरोपीय सभ्यता का नया स्थिति विकास है। जो सारी दुनिया को आध्यात्मिक चेतना से विलग कर भोगवाद से आप्लावित करने का तानाबाना बुनने लगा। बाजारवाद  सारे संयमो के खिलाफ है। धार्मिक रूप से अधिक कटटर होने के कारण शुरूआती दौर में इसकी इस्लाम से भीषण टक्कर हुयी। भारत में भी ऐसा होना चाहिए था। तृष्णाओं को बेकाबू करना इसने जीवन स्तर उठाने की प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया। इसके लिए तमाम फिजूलखर्च शौक दिनचर्या के अंग सुनियोजित ढंग से बना दिये गये। शराब पीने का फैशन चलाना इसी कार्यवाही का एक अंग है। तथाकथित जीवन स्तर बढाने के अभियान में समाज के नैतिक अनुशासन को भंग किया गया। भारत का सारा उपभोक्तावाद भ्रष्टाचार के कन्धो पर सवारी करके आंगे बढ रहा है। 10 लाख रूपये से  ऊपर की लग्जरी गाडियों की फैक्ट्री को चलाने की अनुमति   देने के पहले सरकार को सोचना चाहिए था कि जिस देश में आयकर दाता इतने कम है उस देश मंे इतनी मंहगी गाडियों के लिए ग्राहक कहा मिलंेगे। पर सरकार को पता था कि यहां तो कुछ हजार रूपये महीने पाने वाले भी ऊपरी कमाई से करोडो रूपये की सम्पत्ति के मालिक बन चुके है इसलिए जब तक भ्रष्टाचार जिन्दाबाद है तब तक कितने भी महंगे सामान के लिए ग्राहक कम नहीं पडेंगे। धन्धो मंे भी बेईमानी की गुंजाइश इस कदर है कि रातों रात सडक पर चलने वाले लोगो  को अरबपति होते देखा जा रहा। ऐसे में रूल आॅफ ला वा भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की क्रान्तिकारिता दिखाकर कोई सरकार बाजारवाद का शीराजा क्यों बिखेरे। इस पाप को पोसने के कारण ही सारे संसार पर कोरोना का कहर टूटा है जो अपरिग्रह और सादगी से जीवन बिताने की प्रेरणा दे रहा है। फिर भी कोई सुधरने को तैयार नहीं है। एक बार फिर पढा जाना चाहिए लोहिया और अन्य स्वदेशी विचारकों को। लोहिया जी ने आवाहन किया था समृद्धि से सादगी की ओर। देश में नये नये आविष्कार हो, सुविधाये बढें यानी समद्धि को प्रोत्साहित करें लेकिन सार्वजनिक जीवन के लिए। व्यक्तिगत जीवन में सुरूचि बोध के साथ अधिकतम सादगी हो। क्या लोहिया का यह मत्र आज के समय पूरी तरह मौजूं नही है।  

 

 

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