Site icon Youth Ki Awaaz

“हाशिमपुरा” सरकारी क़त्ले-आम की 33वीं बरसी

 

तेग़ मुंसिफ हो जहाँ दारो रसन हों शाहिद
बेगुनाह कौन है उस शहर में क़ातिल के सिवा

‘हाशिमपुरा” अचानक से चर्चा में आया यह शब्द मेरे लिए एकदम नया था । हो भी क्यों ना ? यह घटना तब
की थी जब में पैदा भी नहीं हुआ था। जब तक मैं समझ
पाता कि यह क्या बला है, उससे पहले ही अखबार, टीवी, सोशल मीडिया सब जगह हाशिमपुरा जंगल में लगी आग की तरह फैल गया । जब इस हाशिमपुरा नामक आग के दरिया में थोड़ा क़रीब से झांक कर देखा तो पता चला कि इतिहास में कितना कुछ दफ़न है। बीते 33 सालों से मुर्दे की तरह दफ़न इस मामले के बारे में पहली बार 2014 में सुना था।

 

 

आज इस हाशिमपुरा नरसंहार के 33 साल बीतने के बाद भी लपटें किसी को भी झुलसाने के लिए काफी हैं। चौकाने वाली बात तो यह यह है कि स्वतंत्र भारत में ‘कस्टोडियल किलिंग’ के इस सबसे बड़े मामले को अंजाम देने में सेना की मदद ली गयी थी।

दिल्ली से सटे मेरठ के हाशिमपुरा में 22 मई 1987 को पीएसी के जवानों ने मुस्लिम समुदाय के 42 लोगों की गोली से भून कर हत्या कर दी थी । हुआ कुछ यूं था कि 1956 में तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार ने अयोध्या के विवादित ढांचे को खोलने का फैसला लिया था जिसके बाद से ही उत्तर प्रदेश में रह-रहकर दंगे भड़करते रहे थे। धीरे-धीरे दंगों की आग मेरठ जिले तक पहुंची । 21 मई 1987 को मेरठ के हाशिमपुरा में एक युवक की हत्या करदी गयी । हत्या के बाद हाशिमपुरा जल उठा । कैसा जल उठा होगा ? उस समय क्या हालात रहे होंगे ? मुझे पता नहीं। जहां तक में अंदाज़ा लगा सकता हूं, शायद मुजफ्फ़रनगर दंगों की तरह या उससे भी अधिक भयावह हालात रहे हॉंगे । पूरा इलाका दंगे की चपेट में आ चुका था । गली-चौराहे की दुकानों को आग के हवाले किया जा चुका था । दंगा-फसाद चरम पर था।

22 मई, 1987 को रमज़ान का आख़री जुमा यानी अलविदा था मस्जिद में धार्मिक सभा हो रही थी जवानों से लदा पीएसी का एक ट्रक मस्जिद के सामने रुकता है। ट्रक से भारी संख्या में जवान उतरते हैं और सभा में शामिल लोगों को हिरासत में ले लेते हैं । यह था इस घटना का पहला दृश्य दूसरा दृश्य इस नरसंहार के चश्मदीद मुहम्मद उस्मान बताते हैं कि हम घर पर थे। मैं, अपने वालिद के साथ बैठा था कुछ लोग तलाशी के बहाने से आये और हमें घर से बाहर निकाला। हम से हाथ ऊपर करने की कहा गया और फिर हमें पीएसी के हवाले कर दिया गया । हमने देखा कि वहां बहुत सारे लोग पहले से बैठे हुए थे । शाम के समय सब को ट्रकों में भर के सिविल लाइंस धाने भेजा गया। फिर उसके बाद कुरीब 50 मरदों को छांट कर अलग किया गया । औरतों और बच्चों को एक तरफ़ कर दिया गया। इसके बाद जो हुआ उसका बखान करने में शायद किसी का भी कलेजा कांप उठे । सूरज ढलने के बाद सभी को पीएसी की 41 बटालियन के एक ट्रक में लादा गया। सभी को ट्रक में बैठने के लिए कहा गया और पीएसी के जवान उनकी निगरानी के लिए खड़े रहे । पीएसी के इरादों से बेपरवाह वह सभी शून्य भाव होकर एक-दूसरे का मुंह ताक रहे थे । उन बेचारो को क्या पता था कि यह उनकी जिंदगी का आख़िरी सफ़र होगा। ट्रक को मुरादनगर क़स्बे के नज़दीक गंग नहर की ले जाया गया था । नहर के निकट एक जगह ट्रक को रोका गया। वहां एक व्यक्ति को नीचे उतारा गया और उसे गोली मार दी गयी। और यह देख ट्रक में बैठे बाकी के लोग सहम गये । पीएसी के इरादों की भनक लगते ही उनमें से कुछ ने हिम्मत कर के ट्रक से कूद कर भागने की कोशिश की, लेकिन जवानों ने उन्हें वहीं वहीं गोलियों से भून कर छलनी कर दिया । इसके बाद सभी को नहर में फेंक दिया गया।

इस घटना में 42 लोग मारे गये थे। इंसाफ का इन्तिजार करते-करते पीड़ितों के बाल सफेद हो गये थे सालों बाद घटना की जांच रिपोर्ट सौंपो गयी । मामला दर्ज हुआ 161 गवाह बने और पीएसी के जवानों को आरोपी भी बनाया गया। तक़रीबन साढ़े 31 साल बाद 2018 में हाशिमपुरा नरसंहार मामले में तो दोषी 16 पीएसी वालों को आजीवन क़ैद की सज़ा सुना भी दी गई.

लेकिन 23 मई 1987 को मलियाना नरसंहार मामले में तो अभी अदालती कार्यवाही शुरू भी नहीं हुई है जहाँ कथित तौर पर 72 मुसलमानों को पीएसी की एक प्लाटून ने गोली मारकर एक कुएं में दफना दिया था

हाशिमपुरा नरसंहार का मामला तो इसलिए लोगों के सामने आ सका क्योंकि उस समय ग़ाज़ियाबाद में एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस कप्तान विभूति नारायण राय एसपी थे और उन्होंने इस घटना की रिपोर्ट थाना लिंक रोड में दर्ज करवा दी थी। इसके आधार पर सीबी सीआईडी ने जांच की और मुक़दमा पहले ग़ाज़ियाबाद की एक अदालत और फिर दिल्ली की तीस हज़ारी अदालत में चला लेकिन मलियाना का वाक़या इसलिए सामने नहीं आ सका क्योंकि वो मेरठ के एकदम पास में था और वहां पीएसी ने 72 मुसलमानों का क़त्ले आम कर लाशों को वहीं दफ़न कर दिया था। कहा जाता है कि यह क़त्लेआम पीएसी के एक कमांडेंट के नेतृत्व में हुआ था, जिनके ख़िलाफ़ कार्रवाई होना तो दूर की बात उन्हें सर्विस मैं मज़ीद तरक़्क़ी दी गयी।

इसके अलावा मेरठ शहर के तक़रीबन दस अन्य मुसलमानों की मौत गिरफ़्तारी के बाद पुलिस हिरासत में हुई. जिनमें छह लोग फतेहगढ़ जेल में पीट-पीट कर मार डाले गए और चार मेरठ की अब्दुल्लापुर जेल में।

इन दस लोगों की मौत के मुक़दमे तो दर्ज किये गए, लेकिन हुकूमत ने इंसाफ़ देने के बजाये उन मुक़दमों की फ़ाइल दबा दी।

 

 

Exit mobile version