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कविता: “खामोश मैं, सब खामोश चेहरे, सिर्फ नज़रें बोलती हैं”

migrant labourers

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कोरोना त्रासदी में मैंने इस धरती को कैसे देखा है, इसी पर चंद पंक्तियां पेश कर रहा हूं। आप सभी का आशीर्वाद चाहता हूं।

खामोश मैं, सब खामोश चेहरे, सिर्फ नजरें बोलती हैं
देखती है हर तरफ, हसीं फिज़ा में डोलती हैं।

चुप है जब जुबां मेरी, सिर्फ कोयलें अब कूंकती हैं
बंद दरवाज़ों के परे, चिड़ियां बेहद अब घूमती हैं,
खिलखिलाती ये धरा, जैसे आसमां को चूमती हैं
खामोश मैं, सब खामोश चेहरे, सिर्फ नजरें बोलती हैं।

सूनी सडकें, सूना यह जग, चौतरफ सब सूना पडा है
इंसानी बस्ती में जैसे, आज कोई पतझड़ रमा है,
देखकर जब कुछ ना दिखता, सिर्फ हवा ये दौड़ती है
उगते दिन और ढलती रातें, खुद धरा अब जोड़ती है,
खामोश मैं, सब खामोश चेहरे, सिर्फ नज़रें बोलती हैं।

पेड़ था जो कल तक को सूखा, आज लहराता बहुत है
नदियां थीं जो कल तक को रोती, आज मुस्काई बहुत हैं,
हिम धरा को मेरी नज़रें, अब घर की छत से देखती हैं
आसमां था जो बुझा हुआ सा, आज दीप्त एक रौशनी है,
खामोश मैं, सब खामोश चेहरे, सिर्फ नज़रें बोलती हैं।

क्या गज़ब यह ज़ुल्म है, एक सवाल है अब खड़ा
किसने किसको सदियों लूटा, कौन ज़्यादा है बडा,
उड़ता पंछी, सूरज की‌ किरणे और चांद की ये चांदनी है
पूरी दुनिया आज जिसमें जवाब अपने छानती है,
खामोश मैं, सब खामोश चेहरे, सिर्फ नज़रें बोलती हैं।


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