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घर लौटते मज़दूरों की बेबसी पर एक कविता

माँ ने मेरी राहों में पलकों को बिछा रखा है
बूढ़ी आंखों में कई ख्वाबों को सजा रखा है,
ख्वाब में मुझको वो हाथों से खिलाएगी खाना
मैं लौट आऊंगा यह सबको बता रखा है।

मैं तो परदेस से बस खाली हाथ आया हूं
बाबा से घर आने का मैं वादा निभा आया हूं,
मेरे बाबा ने आंसुओं के एवज में भेजा था
मैं अपने घर का बस एक ही सरमाया हूं।

मेरी एक बहन है जो रो रोकर तड़पती होगी
मेरी आवाज़ में ‘मुनिया’ को तरसती होगी।,
उसकी राखी के थाल में अभी आंसूं होंगे
कभी वो गोद में माँ के यूम बिलखती होगी।

मैं सहम जाती हूं लोगों का शोर सुनती हूं
लाल जोड़े में भी में बेवा का ख्वाब बुनती हूं,
इतनी सी बात लिखी है मेरे खत में मेरी हमसर ने
मैं तन्हा हूं बस तन्हाई की आंधी में फ़क़त रुलती हूं।

मैंने घर में अपने फूलों को खिला रखा है
अपने सीने से उनकी तस्वीर को लगा रखा है,
कौन ले जाएगा मेले में उनको सोचा है
या आपने भी दिल को अपने पत्थर सा बना रखा है?

मेरे पैरों के आबले को ज़रा देखो तो
उसमें एक बाप की परछाई नज़र आएगी,
लौट जाओगे कभी तुम भी अपने घर की तरफ
मेरे अपनों को बस मेरे मरने की खबर जाएगी।

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