Site icon Youth Ki Awaaz

आखिर ‘रेप कल्चर’ को बढ़ावा देना कब बंद करेगा समाज?

एक ओर सरकारें और समाज का बड़ा हिस्सा बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के लिए फांसी की सजा को एकमात्र रामबाण इलाज़ मान रहे थे और सोच रहे थे कि इससे बलात्कार जैसे जघन्य अपराध पर नियंत्रण पा लेंगें।

रेप कल्चर पर लगाना होगा लगाम

उसी समाज के नाबालिग लड़के खुशी-खुशी नाबालिग लड़कियों से रेप और गैंगरेप की योजनाएं बना रहे थे। ज़ाहिर है रेपिस्टों को फांसी दे देना ही काफी नहीं है। हमें उस सोच पर जमकर हमला बोलना होगा जो रेपिस्टों को तैयार करता है। लड़कियों को बस एक भोग की वस्तु समझता है।

समाज के बनाए हुए विशेषाधिकार जो पुरुषवादी सोच को श्रेष्ठ बनाता है जिससे वह दूसरे किसी भी लिंग को भोग की वस्तु समझते हैं। इस प्रवृत्ति का दमन करने की आवश्यकता आज के दिनों में सबसे अधिक है।

अलग-अलग तरीकों से पितृसत्ता को समाज मे बनाए रखने और शोषण करने के लिए पुरुषवादी व्यवहार का इस्तेमाल किया जाता है। इसको जड़ से खत्म किए बगैर हम समाज में ‘लॉकररूम’ जैसे व्यवहारों को कभी नियंत्रित नहीं कर सकते है।

कानून का खेल भी है अटपटा

कानून के दायरे में देखें तो 2012 में पॉक्सो और ‘निर्भया’ केस के बाद 2013 में बने नए कानून ने लड़कियों के लिए सहमति की उम्र 16 साल से बढ़ा कर 18 कर दी। शायद बेटियों की सुरक्षा के लिए ऐसा किया गया लेकिन बेटे की बहू के लिए यह अपवाद स्वरूप बचा लिया गया कि पत्नी की उम्र 15 साल हो तो कोई अपराध नहीं।

लड़कों के लिए सहमति की कोई उम्र कभी तय ही नहीं की गई। ‘पॉर्नोग्राफी’ जमानत योग्य अपराध है, पकड़े भी गए तो फौरन जमानत मिल जाती है।

इतने जलेबीनुमा कानूनों को समझना बेहद मुश्किल है। सामाजिक स्तर पर शिक्षा, चेतना, जागृति और संवेदनशीलता का दूर-दूर तक नाम-ओ-निशान कहीं नहीं है। ऐसे में आधुनिक तकनीक से बने-बनाए गए ‘बॉयज़ लॉकररूम’ पर किसी का भी नियंत्रण नहीं था।

‘बॉयज लॉकररूम’ एक मानसिकता है

‘बॉयज लॉकररूम’ एक दिन-महीने-साल में ही विकसित नहीं हुआ है। हमने कैसा घर, परिवार और समाज बनाया है? अब ज़मीन पर गिरे दूध को देख-देख कर रोने, चीखने या चिल्लाने से क्या हो जाता है? यह पहली या अंतिम घटना-दुर्घटना नहीं है।

सवाल यह है कि हम उस संस्कृति पर हमला कैसे करें जो नाबालिग रेपिस्टों को तैयार कर रहा है? इसका जवाब हमको अपने आस-पास रोज घट रही सामाजिक व्यवहारों में मिल सकता है जो हर रोज घट रही होती हैं लेकिन हम उसको अनदेखा कर देते हैं या जानबूझकर उन व्यवहारों को बढ़ावा देते हैं।

महिलाएं समान अधिकारों के लिए कर रही हैं संघर्ष

मसलन, समाज में बदलाव अपने गति से गतिशील है लेकिन महिलाओं को लेकर ना ही समतामूलक स्थिति है  और ना ही सम्मानजनक स्थिति। घर और बाहर किसी भी दायरे में महिलाएं लैंगिक भेद के सामाजिक व्यवहार से न केवल टकरा रही हैं बल्कि अपने लिए अस्मितापूर्ण महौल के निमार्ण के लिए संघर्ष भी कर रही हैं।

महिलाओं के साथ घर के अंदर घरेलू हिंसा और लैंगिक भेदभाव है तो वर्कप्लेस पर यौनशोषण की परिस्थितियां, ऐसे में क्या हम घर या बाहर किसी भी स्पेस में, जो महिलाओं के लिए वध का स्थल बना हुआ है, होने वाली छोटी-सी-छोटी घटना का विरोध करते हैं या उस घटना को कटघरे में रखते हैं?

हमारा विरोध या मौजूदा परिस्थितियों पर सवाल करना ही आगे वाली पीढ़ी के अंदर एक नई लोकतांत्रिक परिस्थिति का निमार्ण करता है। शायद हम इसको ध्यान में नहीं रखते हैं और अपने चंडाल-चौकड़ी वाले परिवार की संख्या बढ़ाने में विश्वास रखते हैं जो किसी महिला को वैसे ही ताड़ते हैं जैसे हमारा समाज ताड़ता है।

हम इसी परंपरा में विश्वास रखते हैं, फिर विपरीत जेंडर के प्रति संवेदनशील होना दूर की कौड़ी  होने के बराबर ही है। क्या हम इस महौल में बदलाव कर सके हैं? ज़ाहिर है इसका जबाव सभी के पास है पर पुरुषवादी लोग पित्तृसत्ता का चादर ओढ़ कर और लेटेस्ट डियों/ परफ्यूम लगाकर सबसे कूल बने हुए हैं।

महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्यातारों पर सवाल क्यों नहीं उठाता समाज?

करोना काल में ही दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे रामायण/महाभारत के पात्रों पर टीवी पर प्रसारण के दौरान चंदन-तिलक की तस्वीरें सिर्फ सोशल मीडिया पर वायरल ही नहीं हो रही हैं, बल्कि मुख्यधारा की मीडिया और अखबारों के लिए भी यह खबर है।

लेकिन क्या किसी ने यह खबर बनाई कि फलां परिवार के लोगों ने या मुखिया ने राम के सीता त्याग या दौपद्री के चीर-हरण को महिलाओं के साथ किया गया अपमान बताया हो?

हम मिथकीय कथाओं से प्रेरणा लेने वाले समाज में जीते हैं लेकिन जब मिथकीय कथाओं के गलत को गलत नहीं कह सकते हैं तो फिर उससे ही प्रेरणा लेता हुआ समाज आधी-आबादी को केवल उपभोग की वस्तु मान रहा है तो अचंभित क्यों है?

हम या समाज और कुछ नहीं कर रहे हैं अपना बोया हुआ काट रहे हैं। चूंकि हम तथाकथित लोकतांत्रिक समाज में रह रहे हैं इसलिए पुरुषवादी वर्चस्वशाली मानसिकता को उस कटघरे में लाकर पटक दे रहे है जहां से जमानत मिलना और फूलों की माला पहनाकर स्वागत करना पहले से तय हैं।

Exit mobile version