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क्या लॉकडाउन के बाद पलायन रोकने के लिए तैयार हैं उत्तर भारत की सरकारें?

देशव्यापी लॉकडाउन के कारण मज़दूर अपने पैतृक गाँव की तरफ पलायन कर रहे हैं। उनके हिसाब से वह सही भी है। काम बंद है, पैसे नहीं हैं और खाने-पीने की भी समस्या है।

ऐसे में उनका अपने गाँव जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस सफर के बीच मज़दूरों का जो हाल हो रहा है, वह काफी दर्दनाक है।

सरकारी व्यवस्था कहां है?

इन सबके बीच विपिन कुमार, लुधियाना से अपने गाँव उत्तर प्रदेश आना चाहते थे मगर सरकार ने इसका कोई प्रबंध नहीं किया। वो पैदल ही चल पड़े। 300 किलोमीटर से अधिक का सफर भूखे ही तय करने पर उनकी मौत हो गई।

डॉक्टरों ने कहा कि खाना नहीं मिलने से उनकी मौत हुई है। इस मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस भेजा है।

ऐसे ना जाने कितने विपिन कुमार दम तोड़ रहे हैं

पलायन करते मज़दूर। फोटो साभार- Getty Images

लॉकडाउन के बीच यह कोई पहला मामला नहीं है। पिछले 2 महीनों में ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं। चाहे वह महाराष्ट्र के औरंगाबाद के नज़दीक 16 मज़दूरों की रेलवे के नीचे आने से मौत हो या कर्नाटक से तेलंगाना जा रहे लोगों का रोड एक्सीडेंट।

ऐसी खबरें सैकड़ों की तादाद में मीडिया में चल रही हैं लेकिन मूल सवाल यह है कि हज़ारों-करोड़ों के पैकेज के बावजूद ऐसी दुखद घटनाएं सरकारें क्यों नहीं रोक पा रही हैं?

रेल में मज़दूरों को भोजन ना मिलने की घटनाएं शर्मनाक

सफर करे दौरान किसी को भोजन ना मिलने से लकर हादसों में मारे जाने तक के मामले बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं। उससे भी ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण हैं रेल में सफर के दौरान मज़दूरों को भोजन ना मिलने की घटनाएं।

प्रवासी मज़दूर या कोई भी व्यक्ति कोरोना संक्रमण के बीच महाराष्ट्र या गुजरात से उत्तर प्रदेश या फिर बिहार की ओर जा रहा है तो बीच में अलग-अलग स्टेशनों पर प्रवासियों के खाने-पीने की व्यवस्था की जा सकती थी मगर ऐसा क्यों नहीं हुआ?

इसका नतीजा यह रहा कि रेलवे इतिहास में शायद पहली बार बिना किसी एक्सीडेंट के इतने सारे प्रवासियों को अपनी जान गंवानी पड़ी।

अंततः रेलवे भी अपने मार्ग से भटक गई

यह क्या कम था जो रेलवे ने एक और गलती कर दी। जी हां, इस बीच कई ट्रेनें अपने उचित मार्ग से भटक गई जिसका नतीजा यह हुआ कि गुजरात से उत्तर प्रदेश जाने वाली गाड़ियां 24 घंटे की जगह 3 से 5 दिन में पहुंच रही हैं।

एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार ऐसी कुल 40 रेलगाड़ियां अपना रास्ता भटक गई थीं जिस कारण उन्हें पहुंचने में काफी देर हो गई। सभी का ज़िक्र यहां पर करना मुश्किल है फिर भी आप सोचिए कि उन प्रवासी मज़दूरों को कितनी तकलीफ उठानी पड़ी होगी?

रोज़गार के अभाव से पलायन और विकास का केंद्रीकरण

घर जाते प्रवासी मज़दूर। फोटो साभार- Getty Images

मज़दूरों की दर्द भरी कहानियां आपने मीडिया के ज़रिये सुनी होगी। आप खुद उस चीज़ को अपनी चारों तरफ महसूस कर रहे होंगे लेकिन इस बीच शायद ही किसी का ध्यान इस पर गया होगा कि इतने बड़े पैमाने पर मज़दूर एक राज्य से दूसरे राज्य की ओर पलायन क्यों करते हैं?

शायद इसका एक ही जवाब है और वो यह कि राज्यों में मज़दूरों के लिए रोज़गार के अवसर नहीं होते हैं।

उदाहरण के तौर पर देखें तो उत्तर प्रदेश में ज़्यादातर रोज़गार के अवसर गौतमबुद्ध नगर के  इलाके में हैं। बिहार में भी स्थानीय तौर पर रोज़गार के अधिक साधन नहीं हैं। शायद इन्हीं कारणों से उत्तर भारतीय राज्यों को बीमारू कहा जाता हैं।

शहरों पर बढ़ता दबाव

मुंबई इसका काफी सटीक उदाहरण हो सकता है। चेन्नई, कोलकाता, पुणे, बेंगलुरु के साथ-साथ कई शहर इस सूची में जोड़े जा सकते हैं। इन्हीं शहरों में ज़्यादातर रोज़गार के अवसर केंद्रित हो गए हैं जिस कारण शहरों की जनसंख्या भी बढ़ी है।

मुंबई जैसे शहर में आधी से ज़्यादा आबादी झुग्गी-बस्तियों में रहने को मजबूर हैं। ऐसे शहर में रह रहे बड़े समुदाय का जीवन स्तर कैसा होगा आप कल्पना कर सकते हैं।

स्थानीय रोज़गार की ओर ध्यान देने की सख्त ज़रूरत

कोरोना महामारी के बाद सभी राज्यों को इस तरफ ध्यान देना होगा कि स्थानीय रोज़गार के अवसर को बढ़ावा कैसे मिले? ज़्यादा-से-ज़्यादा पलायन कैसे रोका जाए? अगर पलायन होता है तो अधिक ना हो।

अंत में यही कहना चाहता हूं कि उत्तर भारत का पिछड़ापन एक राजनीतिक समस्या है। अगर इससे छुटकारा चाहिए तो काफी बड़ी कीमत चुकानी होगी। क्या इसके लिए वहां के राजनेता तैयार हैं?

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