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Bois Locker Room

ज़िंदगी जेहद में है सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू काँपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है निकहत ख़म-ए-गेसू में नहीं
जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उस की आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे
-कैफ़ी आज़मी

ऐसा लगता है कि कुछ बातों में दोहराव जरूरी होता है। लेकिन मसला ये है कि ये बेअसर रह जाता है।
अभी ज्यादा वक़्त नहीं गुजरा जब निर्भया के दोषियों को फांसी की सजा दी गयी. तमाम हलकों में ये कानाफूसी हुई कि अब महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचार व हिंसा में कमी आएगी। ज़ाहिर तौर पर आयी भी होगी। लेकिन आंकड़े और जमीनी हालत एक अलग तस्वीर बनाते हैं। खैर, इस पर चर्चा फिर कभी।

इंस्टाग्राम पर छात्रों द्वारा बनाया गया एक ग्रुप बहस का मुद्दा बना हुआ है और ये बहुत जरूरी है कि इसके बारे में बात की जाये।
कौन हैं ये? बच्चे या छात्र या युवक या पुरुष? या मानसिकता? कैसे बने ये इतने असंवेदनशील? कहाँ से इनके दिमाग में इतनी घटिया बातें आयीं? I remember a dialogue by Ramadheer Singh in Gangs of Wasseypur : ‘और कितना बेइज़्ज़त कराओगे बाप को बेटा?’
यूँ समझिये कि इसके जिम्मेदार इनकी परवरिश है, इनके संस्कार हैं। बार बार एक ही बात अलग अलग तरीके से समझानी पड़ती है लेकिन भेजे में भूसा भरा है। परत दर परत जमी कुंठा ऐसे बच्चों को भटका रही है। ‘हंसी तो फँसी’ टाइप की छिछोरी बातों ने कुछ लड़कों का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है। वक़्त रहते इन्हें जमीन पर लाना ही होगा। बहरहाल, जरूरी है कि इस मुद्दे की तह तक जाया जाये, जांच हो और दोषियों को सजा भी मिले। दूसरी तरफ बच्चों के नैतिक विकास का मूल्यांकन समय समय पर माता पिता, अभिभावक व शिक्षक द्वारा किया जाना भी आवश्यक है।

साहिर साहब की नज़्म की पंक्तियाँ हैं :

जिन होठों ने इनको प्यार किया, उन होठों का व्यापार किया
जिस कोख में इनका जिस्म ढला, उस कोख का कारोबार किया
जिस तन से उगे कोपल बन कर, उस तन को जलील-ओ-खार किया

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