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ब्राह्मणों द्वारा गायों की बलि दिए जाने का बुद्ध ने किया था विरोध

gautam buddha

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भारतीय इतिहास के पन्नो पर गौतम बुद्ध एक ऐसे ऐतिहासिक नाम हैं जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता है। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में उत्पन्न यह महापुरुष सम्पूर्ण विश्व के युगपुरुष बन गए।

प्रायः उन्हें स्मरण करते समय लोगों को उनके उन पहलुओं से परिचित नहीं कराया जाता जो एक सामाजिक परिवर्तन की दिशा में क्रांतिकारक के रूप में परिलक्षित है।

सामाजिक क्रांति के अग्रनायक गौतम बुद्ध

गौतम बुद्ध। फोटो साभार- Getty Images

गौतम बुद्ध के उपदेश तथा कार्यों का अध्ययन करते समय हमें तत्कालीन भारत वर्ष की सामाजिक, धार्मिक, भौगोलिक तथा राजनीतिक विषयों पर चर्चा करना नितांत आवश्यक हो जाता है।

सामाजिक क्रांति के अग्रनायक के रूप में गौतम बुद्ध को कैसे देखा जा सकता है? इस विषय की उपस्थापना करना समीचीन है।

गौतम बुद्ध ने जहां-जहां अपने जीवन काल में विचरण किया, वहां की भौगोलिक स्थिति को देखा जाए तो वह गंगा नदी के समीप का दोआब का प्रदेश दिखलाई पड़ता है। दोआब का प्रदेश होने के कारण यहा की ज़्यादातर जनता खेती-किसानी करती होगी।

कैसे बुद्ध ने किया था पशुओं की बलि का विरोध

गौतम बुद्ध। फोटो साभार- Getty Images

उस समय समाज में वैदिक कर्मकांड का ज़्यादा प्रचलन था। वैदिक कर्मकांड में मुख्यतः यज्ञ प्रमुख थे। उन यज्ञों में अधिकतर पशु बलि देने की वैदिक ब्राह्मण धर्मावलम्बियों में प्रथाएं एवं रूढ़ियां प्रचलित थीं जिस कारण अनेक पशुओं का यज्ञ समारंभ में बलि दिया जाता था।

खेती-किसानी करने वाली आम जनता के लिए पशु धन का अत्याधिक महत्व था। धार्मिक आडंबरों के चलते हिंसात्मक विधि से अनेक पशुओं का बलि देना और मेहनतकश जनता का शोषण करना ही परिलक्षित होता है।

भारतीय इतिहास में गौतम बुद्ध एक ऐसे युगदृष्टा हैं जिन्होंने सर्वप्रथम इस परम्परा का विरोध किया। पालि त्रिपिटक के दीघनिकाय के कूटदन्त सुत्त से ज्ञातव्य है कि मगध के खनुमाता नामक ब्राह्मण ग्राम में कूटदंत नामक ब्राह्मण यज्ञ कराने के लिए 700 गाय, 700 बैल, 700 बकरे और 700 बकरियां इत्यादि को इकट्ठा करवाता है।

उस समय गौतम बुद्ध भी मगध में विहार कर रहे थे। उन्होंने इस ब्राह्मण ग्राम में जाकर इस प्रकार पशु बलि देकर यज्ञ करने वाले ब्राह्मण धर्म की क्रूर परंपरा का खंडन किया।

ऐतिहासिक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में ब्राह्मण धर्मावलम्बी गाय, बैल आदि पशुओं की बलि देते थे। वैदिक परंपरा में इन पशुओं का बलि श्रेष्ठतर माना जाता था जिसका गौतम बुद्ध ने विरोध किया।

गाय के नाम पर राजनीति करने वाले खामोश क्यों हैं?

वर्तमान भारत में गाय को माता और उसके नाम पर राजनीति करने वालों को इस प्रश्न का जवाब देना चाहिए कि वे कौन से लोग थे जो बुद्ध काल में यज्ञ में गाय, बैल आदि पशुओं की बलि देते थे?

बुद्ध ने धर्म के नाम पर होने वाले इस आडंबर का विरोध किया था। सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य में तत्कालीन वैदिक-ब्राह्मणधर्म, रूढ़ियां, प्रथाएं, परम्पराएं और आडंबर का विरोध दृष्टिगोचर होता है।

कैसे हुआ समतामूलक समाज का निर्माण

बुद्ध के अनुयाई। फोटो साभार- Getty Images

प्राचीन भारत के इतिहास का अवलोकन सामाजिक दृष्टिकोण से किया जाए तो तत्कालीन समाज व्यवस्था कैसे थी, यह समझना होगा। पूर्वोक्त है कि बुद्ध पूर्व काल में वैदिक-ब्राह्मणधर्म का बोलबाला था। ब्राह्मणधर्म की वैदिक समाज व्यवस्था मुख्य आधार थी।

वैदिक समाज व्यवस्था के अनुसार चार वर्णों में समाज का विभाजन किया गया था। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त में इस वर्गीकरण का ज़िक्र है। विद्वानों के मतानुसार ऋग्वैदिक काल में यह विभाजन कर्म आधारित था मगर उत्तर वैदिक काल तक आते-आते वह जन्म आधारित हो गया।

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि यह सामाजिक विभाजन ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त से ही हुआ है। जिससे शोषण की यह संस्कृति समाज में प्रचलित हो गई थी। इस प्रकार की शोषण परख संस्कृति का गौतम बुद्ध ने विरोध किया।

प्रचलित तत्कालीन सामाजिक विभाजन एवं व्यवस्था के कारण शिक्षा और सत्ता की संप्रभुता कुछ लोगों तक ही सीमित थी। गौतम बुद्ध ने अपने संघ में इस व्यवस्था को तोड़कर समतामूलक समाज को बनाया है।

उन्होंने संघ के विषय में कहा है कि जिस प्रकार समुद्र मिल जाने पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह गंगा का पानी है, यह अचिरावती का या यमुना का पानी है, उसी प्रकार संघ में सम्मिलित किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके गोत्र या जाति से ना होकर उसके कर्म पर ही निर्भर करती है।

इस संदर्भ में सुत्तनिपात के वसलसुत्त से ज्ञातव्य है कि भारतीय इतिहास में तथागत बुद्ध पहले ऐसे महापुरुष हैं जिन्होंने यह कहा कि किसी भी कुल में उत्पन्न व्यक्ति जन्म के आधार पर श्रेष्ठ अथवा कनिष्ठ नहीं हो सकता।

न जच्चा वसलो न जच्चा होति ब्राह्मणो।

कम्मुना वसलो होति कम्मुना होति ब्राह्मणो।।

यानी कि जन्म से ना कोई श्रेष्ठ होता है और ना ही कनिष्ठ। कर्म से ही व्यक्ति कनिष्ठ होता है अथवा श्रेष्ठ होता है। तथागत बुद्ध इस बात को समझना होगा मगर इसमें भी सावधानी बरतनी होगी, क्योंकि इस संदर्भ में उन्होंने वर्तमान कालीक कर्मों के विषय में कहा है ना कि पूर्वकालीक कर्मों के विषय में।

शोषणकारी व्यवस्था का बुद्ध ने कैसे किया दमन

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

सनातन वैदिक परम्परा और बुद्ध की विचारधारा में यह बुनियादी अंतर है, अस्तु। यहां यह उदाहरण इसलिए उद्धृत किया क्योंकि वर्तमान में धर्म की श्रेष्ठता बोध का ज़्यादा बोलबाला है।

जन्मजात श्रेष्ठता यह दर्शाता है कि जन्म से ही किसी को योग्य अथवा अयोग्य मान लेते हैं। क्या किसी वर्ण, जाति, गोत्र एवं कुल में जन्म होने से कोई योग्य अथवा अयोग्य हो सकता है?

दीघनिकाय के अम्बट्ठ सुत्त से ज्ञातव्य है कि अम्बष्ठ, जो कोई जाति में फंसे हैं, गोत्रवाद में फंसे हैं, अभिमानवाद में फंसे हैं, आवाह-विवाह में फंसे हैं, वे अनुपम विद्या और आचरण की सम्पदा से दूर हैं। अम्बष्ठ! जातिवाद के बंधन, गोत्रवाद बंधन, मानवाद बंधन और आवाह-विवाह-बंधन छोड़कर ही अनुपम विद्या और आचरण की सम्पदा का साक्षात्कार किया जाता है।

संघ मे जब शाक्य कुमारों को प्रवज्या देने की थी, उस समय तथागत बुद्ध ने तत्कालीन निम्न जाति से आने वाले उपालि नाई को प्रथम प्रवज्रित किया, यह आदर्श प्रचलित किया की जन्म से कोई श्रेष्ठ अथवा कनिष्ठ नहीं होता है।  इस प्रकार सम्पूर्ण पालि तिपिटक  एवं बौद्ध साहित्य से शोषणकारी व्यवस्था का विरोध परिलक्षित होता है।

तथागत बुद्ध का संदेश जिसे तत्कालीन भाषा में धम्म कहा गया है, उसका उद्देश्य स्पष्ट था जिसे उन्होंने अपने शिष्यों को कहा था, “चरथ भिक्खवे चारीकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय।” बुद्ध की शिक्षा बहुजनों के हित एवं सुख के लिए है।

वे अपने शिष्यों को कहते हैं कि सर्वत्र भ्रमण करते हुए स्वयं के हित एवं सुख और बहुजनों के हित एवं सुख के लिए इस धम्म का प्रचार करो। यहां हमें इस बात को स्पष्ट करना समीचीन प्रतीत होता है कि जिस काल में ब्राह्मणधर्म की वैदिक समाज व्यवस्था प्रचलित थी, उस काल में तथागत बुद्ध बहुजनों को धम्म की शिक्षा देने की बात करते हैं जो तत्कालीन समाज में  बहुत क्रांतिकरक बात थी।

कहीं बुद्ध के विचार भी रूढ़ि बनकर ना रह जाएं

इतिहास के अवलोकन से ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज में  शिक्षा कुछ ही लोगों तक सीमित थी। उस परम्परा को तोड़कर सामान्य लोगों की भाषा में उन्होंने अपने  धम्म का प्रचार प्रसार किया। शिक्षा कुछ ही लोगों तक सीमित रखने के लिए भी भाषा का भी उपयोग प्राचीन काल से हुआ है।

इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था को अपने विचार एवं आदर्शों से तथागत बुद्ध ने परिवर्तित कर दिया। सम्पूर्ण मानव जाति के इतिहास में स्वतन्त्रता, समानता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय का संदेश सम्पूर्ण जीवनभर दिया इसलिए उन्हें सामाजिक क्रांति के अग्रनायक कहा जा सकता है।

अंततः यह कहा जा सकता है कि बुद्ध विचार भी एक रूढ़ि बनकर ना रहे, इसलिए बेहद ज़रूरी है कि सामाजिक क्रांति का जो उनका संदेश है वह उजागर होता रहे।


संदर्भ- The Long Discourses of the Buddha

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