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बाल मज़दूरी करती थी निशा, कोरोना संक्रमण में मुश्किलों के बीच भी उम्मीदें हैं ज़िंदा

problems during lockdown

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कोरोना संक्रमण के मौजूदा हालातों के बीच समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े लोगों के लिए लगातार मुसीबतें बढ़ती जा रही हैं। दो वक्त की रोटी का जुगाड़ ना हो पाने की कसक और संक्रमित होने के डर से कहीं ज़्यादा आजिविका छिन जाने का खौफ उनकी परेशानी की वजह बन रही है।

लॉकडाउन के कारण रिक्शा चालकों से लेकर सड़क किनारे रेहड़ी लगाने वाले दिहाड़ी मज़दूरों का व्यापार पूरी तरह से ठप्प है। वहीं, लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में घरेलू कामगार महिलाओं को लोगों ने बगैर काम के पैसे भी दिए मगर अब बढ़ते संक्रमण को देखते हुए बढ़ाई गई लॉकडाउन अवधि के कारण ज़्यादातर घरेलू कामगार महिलाएं बेरोज़गार हो रही हैं।

स्लम में रहकर पढ़ाई करने वाली निशा की कम्यूनिटी पर लॉकडाउन का प्रभाव

निशा।

दिल्ली के जंगपुरा स्लम में 9 साल की उम्र तक लोगों के घरों में डोमेस्टिक हेल्पर का काम करने वाली निशा अपने समुदाय में होने वाली परेशानियों का ज़िक्र करते हुए बता रही हैं, “लॉकडाउन के कारण ज़ाहिर तौर पर समुदाय विशेष को दिक्कतें हो रही हैं मगर संक्रमण पर काबू पाने के लिहाज़ से यह ज़रूरी है।”

वो आगे बताती हैं, “मेरी कम्यूनिटी में लोग बेरोज़गार हो गए हैं, जिस कारण आर्थिक तौर पर उन्हें संघर्ष करना पड़ रहा है। अब उन्हें जो भी मिल जाता है वे खा लेते हैं। उनकी निर्भरता पूरी तरह से सरकारी राशन पर हो गई है। लोग अपने बच्चों को दूध, केला और बिस्कुट तक नहीं खिला पा रहे हैं मगर हां उम्मीदें अभी ज़िंदा हैं।”

संक्रमण के बीच आपसी सौहार्द दिखा रही है उम्मीद की किरण

निशा कहती हैं कि लॉकडाउन तो समय की मांग है मगर आर्थिक मोर्चों की बात ना भी करूं तो मुझे व्यक्तिगत तौर पर और भी पेरशानियां हो रही हैं। जैसे- दोस्तों के साथ मस्ती, स्कूल जाना, शाम को पार्क जाना, ट्यूशन जाना, घूमना-फिरना और टिकटॉक बनाना आदि पूरी तरह से बंद है।

निशा का मानना है कि इन परिस्थितियों में भी देशवासियों के बीच एकता बरकरार है जो उन्हें इसका सामना करने के लिए ऊर्जा प्रदान करता है। लॉकडाउन की समाप्ति को लेकर तमाम अनिश्चितताओं के बीच निशा अपनी कम्यूनिटी को जागरुक कर रही हैं।

स्लम के अन्य बच्चों की शिक्षा हो रही है प्रभावित

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

9 साल की उम्र तक निशा जब स्लम में रहकर लोगों के घरों में सफाई का काम करती थीं तो उन्हें यह अंदाज़ा भी नहीं था कि एक रोज़ स्कूल की दहलीज़ पर उनके कदम पड़ेंगे और सामान्य बच्चों की तरह उन्हें भी शिक्षा मुहैया हो पाएगा।

स्कूल की दहलीज़ पर कदम पड़ते ही फिर कभी निशा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा मगर कोविड-19 के मौजूदा हालात ज़ाहिर तौर पर उन्हें और उनकी कम्यूनिटी को प्रभावित कर रहे हैं।

निशा चाहती हैं कि स्लम के और भी बच्चों को उनकी तरह बेहतर शिक्षा मिल पाए मगर लॉकडाउन के मौजूदा हालातों में ऐसा मुमकिन होता नहीं दिखाई पड़ रहा है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि वंचित समुदायों के बच्चों में लॉकडाउन का खासा असर देखने को मिल रहा है।

बहरहाल, स्लम में रहकर बाल मज़दूर के तौर पर अपने उज्जवल भविष्य के सपने को अपनी आंखों के सामने टूटते देखने के दर्द और दो वक्ति की रोटी के जुगाड़े की जद्दोजहद के बीच शिक्षा के ज़रिये जीवन को नई राह दिखाने का जज़्बा प्रेरणा का स्त्रोत है।


नोट: लॉकडाउन के कारण जिस तरह से निशा और उनकी कम्यूनिटी की ज़िन्दगी प्रभावित हुई है, उसी प्रकार वंचित समुदायों के हज़ारों बच्चे रोज़मर्रा की परेशानियों से दो-चार हो रहे हैं। बावजूद इसके वे अपने भविष्य को लेकर आशावान हैं। कोरोना संक्रमण के बाद निशा और उनके जैसे अन्य बच्चे कैसे अपने सपनों को पूरा करें, इस बारे में कोई सुझाव हो तो #EveryOneCounts कैंपेन के तहत स्टोरी पब्लिश करें।

यूनाइडेट नेशन्स हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीज़, सेव द चिल्ड्रेन और Youth Ki Awaaz की साझी पहल है #EveryOneCounts कैंपेन। कोरोना संक्रमण के मौजूदा हालातों के मद्देनज़र इस कैंपेन का मकसद यह है कि वंचित समुदायओं की समस्याओं पर चर्चा का एक स्पेस तैयार हो। निशा संग श्रीपूर्णा मजुमदार की बातचीत के आधार पर प्रिंस मुखर्जी ने यह स्टोरी लिखी है।

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