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दहेज प्रथा: सदियों से चली आ रही एक बेशर्म संस्कृति

Dowry System

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भारत में दहेज कोई एक दिन का सौदा नहीं है, बल्कि यह एक लंबी कहानी है जहां लड़की के घरवालों को ज़िन्दगी भर यह एहसास दिलाना होता है कि वे लड़की वाले हैं। क्या उन लोगों में ज़रा भी शर्म नहीं बची जो तोहफे लेते हैं और साथ में ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का नारा लगाते नहीं थकते।

मैं देखता हूं कि कुछ मिनी ट्रक सामान भरकर इधर से उधर शादियों के मौसम में जाते प्रतीत होते हैं। साथ में चमचमाती कार भी गुज़रती है जो ज़्यादातर स्विफ्ट होती है। 

तोहफा ना मिलने की गुंज़ाइश पर तोड़ दिए जाते हैं रिश्ते

यही नहीं, चार चक्का ना दे पाने की स्थिति में अपाचे, पल्सर या बुलेट को तोहफे में दिए जाने का चलन है ही! अगर तोहफे ना मिलने की आशंका लगे तो लड़के वाले मांगलिक या गुण ना मिलने का बहाना बनाकर रिश्ता खत्म करने में सिर्फ एक फोन कॉल की तकलीफ उठाते हैं।

भारत में आज भी तोहफे का यह खेल बहुत ही अच्छे ढंग से खेला जाता है। इसकी शुरुआत लड़की के लिए वर तलाशने से शुरू होती है और खत्म बच्चों की शादी तक भी नहीं होती।

अमीरी-गरीबी में फर्क नहीं करती तोहफे लेन देन की प्रक्रिया

चाहे परिवार कितना भी अमीर हो या कितना भी गरीब तोहफे की प्रक्रिया वही रहती है। लोग अपने खेत, गहने बेच देते हैं। यही नहीं, कर्ज़ लेने से लेकर एफडी तक तोड़ने के के लिए मजबूर हो जाते हैं।

भारत में बेटी की सामान्य सी शादी में 20 से 30 लाख का खर्चा किया जाना आम बात है लेकिन लड़की के घरवाले पूरी कोशिश के बावजूद भी उधार का ब्याज़ तक नहीं चुका पाते हैं। ज़रा सोचिए जब उस लड़की के भाई की पत्नी गर्भवती होगी तो क्या वह एक बेटी की कामना करेगा?

तोहफे का समीकरण

यह काफी साधारण सा है। अगर लड़का ज़्यादा कमाता है तो तोहफा ज़्यादा, अगर लड़की गोरी है और कद लंबा है या नौकरी करती है तो तोहफा कम। अगर लड़की में कोई दिव्यंगता है तब तो उसकी शादी ही तोहफे के आधार पर होती है।

उसके बाद कुछ बेहूदा रस्में आती हैं जिसमें लड़की वाले लड़के वालों को इतने कपडे़, रुपए, बर्तन, गहने देते हैं जैसे उससे पहले उन्होंने कभी देखे ही ना हों। इनमें नगद कैश और ज़मीन यानी प्लॉट तक शामिल होते हैं।

रस्म के नाम पर कुछ ना कुछ लेन-देन का खेल जारी रहता है

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

शादी में दिए गए उन कपड़ों का कभी कोई उपयोग हो इसकी संभावना बहुत कम होती है। उन रस्मों के चलते जो सोने के हार खरीदे जाते हैं, वे गले के फंदे साबित होते हैं। कर्ज़ के चलते लड़की के पिताजी आत्महत्या तक कर लेते हैं।

इन रस्मों के शिकार मुख्य रूप से लड़की वाले ही होते हैं। पूरी उम्र लड़की वाले लड़के वालों को रस्म के नाम पर कुछ ना कुछ देते ही रहते हैं। 

कुछ तथाकथित मॉडर्न परिवार कहते हैं हमारे जीजा जी आजकल काफी अच्छे दोस्त हो गए हैं। लड़की के घरवालों से दोस्ती हो चुकी है, हमारे साथ घूमते और पार्टी करते हैं।

जब वह घर से जाने लगते हैं तब उन्हें सोफे पर बैठाकर माथे पर टीका लगाया जाता है, आरती उतारी जाती है और 5 या 1000 रुपये दिए जाते हैं। चाहे वह रुपए घर में किसी बच्चे के ट्यूशन के लिए ही क्यों ना रखे हों।

जीजा या दामाद एक ऐसी नस्ल से हैं, जिन्होंने कभी अपने सुख से समझौता नहीं किया

ऐसा उन घरों में भी होता है जहां बेटी और दामाद दोनों अमेरिका में रहते हैं, अंग्रेजी बोलते है और हिंदी बोलने वालो को गंवार भी कह देते हैं। इन परिवारों में हनीमून का खर्चा भी लड़की वाले उठाते हैं।

जीजा या दामाद एक ऐसी नस्ल से होते हैं, जिन्होंने कभी अपने सुख से समझौता नहीं किया और ना ही उन्हें करने दिया जाता है। दरअसल, यह रस्म नहीं सदियों से चली आ रही बेशर्म संस्कृति का वह चेहरा है जिसमें यह साबित होता है कि आपके घर दुर्भाग्यवश लड़की पैदा हो गई है।

लड़के वालों की सोच यह होती है कि हमने लड़की से शादी करके तुम पर एहसान कर दिया है, अब इसके बदले तुम्हें ज़िन्दगी भर एहसान याद रखना होगा। जिसे चुकाने का यही तरीका है कि हमारी फरमाइशें पूरी करते रहो यानी कुछ ना कुछ देते रहो।

बेटी एक बोझ है लेकिन कैसे?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

इस बात का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि लड़की के पिता अपनी पगड़ी तक उतारकर लड़के वालों के चरणों में रख देते थे। इसका मतलब है लड़की के पिता ने अपना आत्मसमर्पण कर दिया है। ऐसा भी होता है कि लड़की का भाई उसके ससुराल वालों का ज़िन्दगी भर का नौकर बनकर उसके साथ चला जाता है।

लड़की के ससुराल वाले नाराज़ ना हो जाएं इस कोशिश में उनकी हर मनमानी चलती ही रहती है। चाहे गलत हो या सही उनके फैसलों के आगे कुछ भी नहीं है। उनके साथ हमेशा विशेष व्यक्तियों की तरह व्यवहार किया जाता है। 

आज भी हम कितने ही मॉडर्न बनने की एक्टिंग कर लें मगर घर के दामाद के नखरे उसी तरह से उठाए जाते हैं। एक आईएएस अफसर जो समाज सेवा की प्रतिज्ञा लेता है या आईआईटी से पढ़े लोग या वकील जिनके लिए संविधान से पवित्र किताब कोई नहीं है, डॉक्टर, पुलिस अफसर जो कानून के रखवाले हैं ये सभी दहेज को जटिल बनाने के खेल में पीछे नहीं हैं।

क्या हम पढ़ाई इसलिए करते हैं कि तोहफा मांग सकें?

कुछ लोग कुतर्क देते हैं कि लड़का अगर पढ़ा-लिखा नौकरी वाला चाहिए तो दहेज तो लेगा ही। इसमें गलत ही क्या है? एक लड़का अपने लिए भी तो पढ़ी-लिखी लड़की चुन सकता है, क्या हम पढ़ाई इसलिए करते हैं कि तोहफा मांग सकें?

जिस शिक्षा को हम एक तरक्की याफ्ता देश की नींव मानते हैं‌, जो शिक्षा हमें सामाजिक कुरीतियों और बेशर्म संस्कृतियों से लड़ने का साहस देती है, क्या उसी शिक्षा के बल पर हम उन कुरीतियों को दोबारा ज़िंदा करेंगे?

जब तक समाज में इस तरह की मानसिकता में सुधार नहीं होगी तब तक हमारा यूं ही पतन होता रहेगा और हम कुछ भी नहीं कर पाएंगे। यह दिखावा हमारे देश में लोग बहुत अच्छे से कर रहे है्ं।

दिखावे से याद आया कि हरियाणा में दिखावे के नाम की रस्म है जिसमें लड़की वाले दिखाते हैं कि हम इतने कपड़े दे रहे हैं! उन कपड़ों का बाज़ार लगा दिया जाता है और साथ में उन तोहफों का भी। फिर पूरे मोहल्ले के लोगों को आमंत्रित किया जाता है दर्शन के लिए। 

मोहल्ले की महिलाएं आती हैं और असंतुष्टि ज़ाहिर करके चली जाती हैं। बारात में एक समय की दावत के लिए लड़की का पिता अपनी उम्र भर की कमाई झोंक देता है तब भी लड़के के घरवाले कमी निकालने से बाज़ नहीं आते हैं।

यहां तक कि लड़की वालों को माफी तक मांगनी पड़ती है। हम सब इन बातों को चाहे कितना भी नज़रअंदाज़ करें मगर भारत में ये श्रापित संस्कृतियां हर रोज़ हज़ारों लोगों का गला घोटती हैं।

बेटी वाले जब इतना त्याग करते हैं फिर वे सुरक्षित क्यों नहीं?

नेता, अभिनेता लोग हर अभियान का समर्थन करते हैं, उन्हें ब्रांड एंबेसडर बना दिया जाता है। यह ठीक वैसे ही होता है जैसे नेताओं की रैलियों में “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” के पोस्टर मिलते हैं मगर सवाल यह है कि क्या उनके इलाके में लड़कियां सुरक्षित हैं?

क्या इस देश में ऐसी कोई जगह है जहां रात के 8 बजे से सुबह 7 बजे तक लड़की बिना किसी डर के अकेली जा सकती है? बहुत नारे लगा दिए, बहुत कानून बना दिए गए मगर भ्रूणहत्या और बलात्कार अब भी जारी है।

यही सब तो भ्रूणहत्या की जड़ हुआ करती थीं जो आज भी उतनी ही फैलती जा रही हैं। भ्रूणहत्या का कारण यह नहीं है कि लोगो को बेटियां पसंद नहीं मगर इस समाज में बेटी को पालना, पढ़ाना या लड़की द्वारा अपने आत्मसम्मान को ज़िंदा रखना कुछ इस तरह से है जैसे मांस के टुकड़े को लेकर भूखे शेरों के बीच से गुज़रना।

ऐसे डर के माहौल में एक लड़की को पालना, पढ़ाना, समाज से लड़ना और एक दिन बहुत सारे तोहफे के साथ उसे घर से अलग कर देना रिवायत सा हो गया है। इस तरह का समझौता किसे पसंद हो सकता है?

तोहफे ना देने होते, तो लड़कियां एक बोझ की तरह ना देखी जातीं

भ्रूणहत्या नाम का शब्द ही ना होता अगर यह संस्कृति ना होती। यदि लड़की वालों को तोहफे ना देने होते तो लड़कियों को बोझ की तरह तो कतई नहीं देखा जाता। विज्ञान के नज़रिए से इंसान या हर जीव बच्चे इसलिए पैदा करता है, क्योंकि हर डीएनए अपने आप को आगे बढ़ाना चाहता है यानी वंश का अंत ना हो।

यह सच है कि लड़की हो या लड़का, डीएनए दोनों में ही जाते हैं मगर लड़के की इच्छा इसलिए होती है, क्योंकि “बेटियां तो पराया धन होती हैं” वाली प्रणाली ने इंसान को मजबूर कर दिया है।

आप जो भी देंगे वह अपनी बेटी को देंगे ताकि ससुराल में कोई परेशानी ना हो!

शादी की प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

दहेज का नाम तोहफा रखकर हमारे दोगले समाज ने फिर से अपनी कुरीतियों को ज़िंदा कर लिया है। लोगों को पता है कि यह एक कुप्रथा है, ज़ुर्म भी है इसलिए लोग खुलेआम तोहफे देने पर मजबूर नहीं करते मगर हां धीरे से अपने दोगलेपन के चोले को उठाते हैं।

जो कहते हैं कि आप जो भी देंगे वह आपनी बेटी को देंगे ताकि ससुराल में कोई परेशानी न हो और यह कहने के बाद सभी कानून, आंदोलन, जागरूकता, रैलियां, बहस व पोस्टर जलकर खाक हो जाते हैं।

हम फिर से वहीं खड़े हो जाते हैं जहां से हमने शुरुआत की थी। उसके अलावा रिश्ता टूटने का खतरा भी हमेशा रहता है, क्योंकि तोहफा देने की भी प्रतिस्पर्धा लगी रहती है।

बहुत बार ऐसा होता है कि रिश्ता तय हो जाता है और सगाई भी हो जाती है। यहां तक कि शादी कि तैयारियां शुरू हो जाती हैं और लड़की वाले उधार पैसे लेकर तोहफे खरीद लेते हैं फिर लड़के वालों को कोई और ज़्यादा तोहफा देने वाला मिल जाता है, तो रिश्ता तोड़ दिया जाता है।

इसलिए जल्द-से-जल्द तोहफा इकठ्ठा कीजिए और बेटी को ससुराल भेजिए वरना अगर उन्हें दूसरे तोहफे देने वाले मिल गए, तो हमारी बेटी का क्या होगा। समाज तो यही कहेगा कि सारी उम्र कमाने के बाद भी बेटी को घर बैठा रखा है।

अगर बेटी ने खुद से किसी को पसंद कर लिया तो हम किसी को क्या मुंह दिखाएंगे? भविष्य में या आज भी लोग यह औचित्य साबित करते हैं कि एक अमीर करोड़पति बाप अपनी बेटी को एक कार तोहफे में दे दें तो इसमें क्या गुनाह हो गया मगर वही लोग उसके पड़ोस में रहने वाले किसी गरीब इंसान को क्या छोड़ देंगे?

कानून तो बन चुका है मगर सोच वही है

हमें सोच तो बदलनी ही पड़ेगी चाहे उसका तरीका कुछ भी हो। जैसे मेरे कुछ दोस्त चाहते थे कि उन्हें तोहफे में गाड़ी मिले फिर मैंने उनको कहा कि अगर किसी दिन तुम्हारी पूज्य पत्नी से कहासुनी हो जाए और वह यह कह दे कि यह गाड़ी मेरे पिताजी ने अपने पैसों से दी है, मैं चाहती हूं इससे नीचे उतर जाओ तो क्या करोगे।

अगले दिन वह दोस्त कहने लगे हमें माफ कर दो। उनकी तोहफे को लेकर सोच ही बदल गई। अब वह तोहफे के सख्त खिलाफ हैं।

यह कहना बिल्कुल ही गलत है कि दुल्हन ही दहेज है

दुल्हन लड़की है जिसका एक वजूद और आत्मसम्मान है। वो एक नागरिक है जिसके पास वे सभी हक हैं, जो एक पुरुष के पास होते हैं। वह अपनी इच्छनुसार शादी कर रही है। ना वह किसी को दी जा रही है और ना ही किसी के द्वारा ली जा रही है, ऐसा करने का हक किसी के पास नहीं है।

भारत में शादी के दौरान निभाए जाने वाले रीति-रिवाज़ कम होने की जगह बढ़ते ही जा रहे हैं। समस्या रिवाज़ों का बढ़ जाना ही नहीं है मसला है रिवाज़ों का दिन प्रतिदिन महंगा हो जाना। इन महंगी रस्मों को निभाने के लिए बहुत धन खर्च होता है।

इन रस्मों को निभाने के लिए जितना खर्चा लोग करते हैं, उतना वे अपनी ज़िन्दगी में एक साथ कभी नहीं करते मगर याद रहे शादी एक ऐसा व्यापार है जिसमें सिर्फ पूंजी निवेश होती है लेकिन उसका लाभ शून्य है। इतना धन वे अगर किसी और व्यापार में खर्च कर दें तो शायद अखबारों में प्रतिदिन कर्ज़ के कारण आत्महत्या जैसी खबरें ना देखनी पड़ें।

लेन-देन केवल शादी के दौरान ही नहीं होती है, बल्कि यह तो एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जो ज़िन्दगी भर चलती रहती है। दहेज़ तो इस प्रक्रिया का छोटा सा हिस्सा है जिसे हम आज तोहफे के नाम पर निभा रहे हैं।

ऐसी हज़ारों ज़हरीली रस्में और संस्कृतियां हैं जिन पर किताब लिखी जा सकती हैं मगर मैं सबका ध्यान दहेज की उस गाड़ी पर ही केंद्रित करना चाहता हूं जिसमें बिठाकर एक बेटी को बेच दिया जाता है। उसके पीछे लिखा होता है बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ। ठीक उसी क्षण हमारे समाज का दोगला चेहरा एक बार फिर से नंगा हो जाता है।

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