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शानदार अभिनय के बावजूद घूमकेतु को नहीं बचा पाए नवाज़ुद्दीन

Dhumketu Movie Review

Dhumketu Movie Review

बॉलीवुड में ऐसे कई लेखक, फिल्मकार, कलाकार हैं जिनके स्ट्रगल के किस्से तो काफी मशहूर हुए हैं मगर इस स्ट्रगल के ऊपर बनने वाली फिल्में स्ट्रगल ना होकर एक घटिया कॉमेडी बन जाती है। मतलब जिस इंडस्ट्री में स्ट्रगल के इतने किस्से हैं जब वही लोग किसी और के स्ट्रगल को दिखाने का काम करते हैं तो इंसाफ नहीं करते।

यह कहानी है महोना के एक ऑर्डिनरी इंसान की जो बचपन से राइटर बन फिल्में लिखना चाहता है और प्रैक्टिस के लिए वो बचपन से ही संतो बुआ को अलग-अलग तरह की कहानियां सुनाता है मगर उसका लेखन और जीवन अनुभव इतना औसत दर्जे़ का है कि गुदगुदी अखबार वाले भी उसको रखना नहीं चाहते।

लेखक बनने का भूत घूमकेतु के ऊपर इतना सवार है कि अपनी नई नवेली दुल्हन को छोड़कर मुंबई भाग जाता है और संघर्ष का रास्ता पकड़ लेखक बनना चाहता है और वह भी 30 दिन में!

अब भैया घूमकेतु के लेखक को कौन समझाए कि किसी के लेखक बनने के संघर्ष को आप दिखाना चाहते हैं जिसमें 30 दिन नहीं, बल्कि 30 साल भी लग सकते हैं।

खैर, फिल्म है जिसमें कुछ भी संभव है इसलिए मैं कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। घूमकेतु लेखक बनने मुम्बई भाग जाता है जहां उसका सामना होता है इंस्पेक्टर बदलानी और उसे भी 30 दिन का टास्क दिया गया है कि वो घूमकेतु को खोज निकाले नहीं तो उसका ट्रांसफर कर दिया जाएगा।

अब इन तीस दिनों में घूमकेतु लेखक बनकर बड़े-बड़े कलाकारों के साथ काम कर पाता है या लेखक बनने का उसका भूत उतर जाता है, क्या मायानगरी मुम्बई उसका साथ देती है या उसके साथ धोखा होता है, क्या इंस्पेक्टर बदलानी घूमकेतु को खोज निकालता है या ट्रांसफर ऑर्डर लेकर अपना रास्ता नापता है, यह सब आपको घूमकेतु देखने के बाद पता चलेगा। यह सब इस तीस दिन के सो कॉल्ड संघर्ष की कहानी में घटित होता है।

नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी के लिए फिल्म के निर्देशक और लेखक पुष्पेंद्र नाथ मिश्रा ने जो किरदार लिखा है, उसे निभाने में नवाज़ कामयाब रहे हैं मगर स्क्रिप्ट इतनी कमज़ोर है कि खुद नवाज़ जैसा कलाकार भी इतने निचले दर्जे़ की एक्टिंग नहीं कर सकता। मतलब कहीं ना कहीं स्क्रिप्ट चुनने में नवाज़ से गलती हो गई।

बात कहानी की

‘घूमकेतु’ का पोस्टर।

संतो बुआ के किरदार में हैं इला अरुण, जो घूमकेतु की बुआ हैं मगर हैं माँ समान क्योंकि घूमकेतु की माँ का इंतकाल बचपन में ही हो गया था। संतो बुआ का किरदार बेहद मज़ाकिया है जो बड़े-बड़े डकार लेने के लिए फेमस हैं। घूमकेतु को मुम्बई भगाने में उनका बड़ा हाथ है।

उनका किरदार हमारे-आपके बुआ की याद दिलाता है। दद्दा बने हैं रघुवीर यादव जो घूमकेतु के पिता हैं। ये बड़े गुस्सैल किस्म के इंसान हैं जो बात-बात पर आसमान सर पर उठा लेते हैं। संतों बुआ और दद्दा ही इस फिल्म की एक मज़बूत कड़ी हैं, ये दोनों अपने परफॉर्मेंस से वाहवाही बटोरने में कामयाब रहते हैं।

अनुराग कश्यप ने एक्टिंग के ज़रिये रायता फैला दिया

अनुराग कश्यप इंस्पेक्टर बदलानी के रोल में हैं जो कि एक करप्ट इंस्पेक्टर हैं और अपने 15 साल के कैरियर में एक भी केस सॉल्व नहीं कर पाए हैं। इनको 30 दिन का अल्टीमेटम दिया गया है कि वो घूमकेतु को खोज निकाले नहीं तो उनका ट्रांसफर ऐसे जगह होगा जहां ना घूस मिलेगी और ना ही घास!

इनका किरदार और परफॉर्मेंस देखकर आप सर पकड़ लेंगे। अनुराग जी आप फिल्म निर्माता के तौर पर ही अच्छा काम कर रहे हैं। खामखा एक्टिंग में आकर रायता मत फैलाइए।

बड़े-बड़े कलाकारों के माध्यम से घूमकेतु के लेखक बनने की कमज़ोर कहानी

अमिताभ बच्चन।

बेचारी जानकी देवी घूमकेतु की पत्नी है। मैं उन्हें बेचारी इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि एक पत्नी होने का सुख उन्हें मिला ही नहीं। उनका पति तो शादी के 10 दिन बाद ही भाग गया। पति के वियोग में वो सूखकर आधा हो गई है फिर भी पति के इंतज़ार में है।

अमिताभ बच्चन, रणवीर सिंह, सोनाक्षी सिन्हा और निखिल आडवाणी ने कैमियो रोल किया है मगर उन सबके हिस्से ऐसा कुछ नहीं है जिसे रिव्यू में बताया जाए। हां अमिताभ बच्चन का रोल मुझे थोड़ी देर के लिए इफेक्टिव लगा जहां वो घूमकेतु के लिखे डायलॉग बोलते हैं। वो डायलॉग मैं नहीं बताऊंगा वरना नवाज़ुद्दीन का नुकसान हो जाएगा।

राइटर-डायरेक्टर पुष्पेंद्र नाथ मिश्रा ने कमज़ोर कहानी लिखकर बड़े-बड़े कलाकारों के माध्यम से घूमकेतु के लेखक बनने के संघर्ष को दिखाने की नाकाम कोशिश की है।

आप किसी आदमी के संघर्ष को दिखाना चाहते हैं तो ऐसे में ज़रूरी है कि आप अपने विषय से चिपके रहें मगर आप बीच में ही अपने रास्ते से भटक जाते हैं। ऊपर से मुंबई जैसे शहर में 30 दिन में लेखक बनाने का मज़ाकिया आइडिया ना जाने ये लोग कहां से लाते हैं।

स्क्रीनप्ले इतना कमज़ोर है कि कब घूमकेतु के संघर्ष से भटककर उसके घर के शोर-शराबे में तब्दील हो जाता है। मोटा मोटी तौर पर कहूं तो यार आइडिया तो यूनिक था कि एक आम आदमी के लेखक बनने के संघर्ष को दिखाया जाए मगर कमज़ोर स्क्रिप्ट और घटिया निर्देशन ने इस आईडिया की लुटिया डुबो दी।

फिल्म में एक आइटम नम्बर के साथ और भी बहुत कुछ है। इसके बावजूद भी फिल्म इम्प्रेस करने में नाकाम रहती है। अब बात आती है कि देखें या नहीं, तो मैंने जो फिल्म की बातें बताई हैं अगर कुछ आपके पल्ले पड़ता है तो देख लीजिए ज़ी5 पर उपलब्ध है।

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