Site icon Youth Ki Awaaz

कैसे आपके टीवी स्क्रीन से आपके ही मुद्दे गायब होते जा रहे हैं?

media, anchor, corona virus, democracy

Media

इतिहास में हर अंतराल को किसी ना किसी घटना से जोड़कर याद रखा जाता है। यदि उस घटना की प्रवृत्ति नकारात्मक पाई जाती है तो समझ लीजिए कि इतिहास का वो विशेष अंतराल भविष्य में ‘काले इतिहास’ के नाम से जाना जाएगा।

आने वाली पीढियां जब उसे किताबों में पढ़ेंगी अथवा किसी चलचित्र के माध्यम से देखेंगी तो सवाल उस घटना की प्रवृत्ति पर नहीं बल्कि उस अंतराल पर और उस अंतराल के दौरान मूकदर्शक बने लोगों पर उठेगा।

वर्तमान में चल रहे समय को भविष्य में जब किसी घटना से जोड़कर देखा जाएगा तो सवाल हम पर उठेगा। इसी डर के कारण कई बार लगता है जैसे हम गलत दौर में पैदा हो गए हैं। ना तो वर्तमान में हमें कुछ समझा जा रहा है और ना ही भविष्य में सम्मानित पूर्वज होने का दर्ज़ा ही दिया जाएगा, तो डरना स्वाभाविक है।

किस ओर जा रही है पत्रकारिता?

साफ शब्दों में कहा जाए तो वर्तमान दौर को आने वाले समय में पत्रकारिता के पतन के लिए याद रखा जाएगा। जब छठीं कक्षा का बच्चा राजनीतिक विज्ञान में ‘डेमोक्रेसी’ का चेप्टर पढ़ेगा तो वो सवाल जरूर खड़ा करेगा कि किस सन् में लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ बिखर गया था और हमारा लोकतंत्र तिपहिया हो गया था?

इसी सवाल के डर ने मुझे आज कलम उठाने को मजबूर किया है। जिस देश के लोकतंत्र में मीडिया को चौथे स्तम्भ की ज़िम्मेदारी दी गई हो और मीडिया उस ज़िम्मेदारी का निर्वहन ना कर रहा हो तो एक पत्रकारिता का विद्यार्थी होने के नाते मेरा धर्म है कि मैं अपने परिवार के मुखिया को उनका धर्म याद दिलाऊं।

जनता के मुद्दे टीवी स्क्रीन से हो रहे हैं गायब

30 मार्च को दिल्ली की निज़ामुद्दीन दरगाह में लोगों के फंसे होने की सूचना सामने आती है, मीडिया नाच उठता है। भूखे भेड़ियों की तरह मीडिया साम्प्रदायिक दृष्टि से कुछ मसालेदार मुद्दा खोज रहा था और आखिरकार उसे सफलता मिल ही गई। फिर वही हुआ जो होता आया है और आगे भी होता रहेगा। कोरोना का सारा ठीकरा जमातियों पर फोड़ दिया गया। ना दिल्ली के प्रशासन पर सवाल उठे, ना इंटरनल सेक्योरिटी एजेंसियों पर सवाल उठे और ना ही गृह मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली पुलिस पर सवाल उठे।

लेकिन सरकार पर सवाल उठते भी कैसे? 25 मार्च को हुए लॉकडाउन से पहले सरकार ने टीवी चैनलों के मालिकों से बात करते हुए कहा था कि इस समय सरकार की सिर्फ सकारात्मक खबरें ही चलाई जाएं। इससे साफ होता है कि पीपीई किट, वेंटिलेटर, आइसोलेशन सेंटर, खाना आपूर्ति, आईसीयू बेड और मज़दूरों की परेशानियों जैसे मुद्दे आपकी टीवी स्क्रीन से कैसे गायब हुए।

एंकर घोल रहे हैं समाज में ज़हर

30 मार्च को भारत में ना सिर्फ तब्लीगियों का धर्म तय हुआ बल्कि भारत में कोरोना का धर्म भी तय कर दिया गया। 30 मार्च से ही तब्लीगियों को कोसना जारी रहा एवं उनसे संबंधित ढेरों झूठी खबरें फैलाई गई। जिसका परिणाम बहुत ही डरावना साबित हुआ। लोगों के अंदर न्यूज़ एंकरों ने इतना ज़हर घोल दिया कि मुस्लिम सब्जी वालों को सब्जी नहीं बेचने दी गई और कई जगहों पर उनसे मारपीट की गई।

देश के कई हिस्सों से अजीबो-गरीब खबरें सामने आने लगीं जैसे की अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में मरीज़ों को हिंदू-मुस्लिम के आधार पर अलग वार्डों में रखा गया। इसी प्रकार बीजेपी के एक विधायक का वीडियो भी सामने आया जिसमें वो सब्जी वाले का नाम व धर्म पूछ रहा है।

कोट, पेंट और टाई लगाकर आने वाले न्यूज़ एंकर दिखने में सभ्य और सौम्य नज़र आते हैं लेकिन वही सभ्यता एवं सौम्यता उनके शब्दों में नहीं पाई जाती। देश के इतिहास में पहली बार हुआ है जब मीडिया सरकार से नहीं बल्कि विपक्ष से सवाल करता है। यह मात्र खतरे की घंटी नहीं है बल्कि खतरे की गर्जना है, जिसे सुनकर भी हम अनसुना कर रहे हैं।

हर घटना को दिया जा रहा है सांप्रदायिक रंग

पालघर में एक गलतफहमी के कारण साधुओं की मॉब लिंचिंग होती है, जो कि एक जघन्य अपराध है। लेकिन भारत के एक बड़े पत्रकार ने इसे हिंदुओ की भावनाओं से जोड़ दिया। जबकि उस एंकर को यह बात भी अच्छे से पता थी कि हत्यारे भी हिन्दू ही थे।

वो असीमित बौद्धिक इंसान यहीं नहीं रुका बल्कि राष्ट्रीय दल की राष्ट्रीय अध्यक्षा पर भी निराधार फैसले सुना दिए। सूट-बूट वाले पत्रकार पर सैकड़ों जगह मामला दर्ज़ करवाया गया। पुलिस के पूछताछ करने पर मामला प्रेस की आज़ादी से जोड़ दिया गया।

कहीं कोरोना को जिहाद बताया जा रहा है तो कहीं कोरोना को मुसलमान बना दिया गया है। तब्लीगी जमात के नाम पर मुसलमानों का मान-हरण किया। बूंद-बूंद ज़हर लोगों में भरा गया है जिसका परिणाम आने वाले वर्षों में काफी भयानक होगा। लेकिन वर्तमान समय को देखते हुए कहा जा सकता है कि लोकतंत्र के रक्षक ही भक्षक बन चुके हैं।

शाम छः बजे से लेकर रात के दस बजे तक होने वाला यह मीडिया का तांडव देश के साम्प्रदायिक सौहार्द व सहिष्णुता को धीरे-धीरे खतरे में डाल रहा है। एक तरफा बात कहकर और बुलाए गए प्रवक्ताओं पर चिल्लाकर आजकल के पत्रकार जनता के मन में ‘बौद्धिक प्राणी’ के रूप में स्थापित हो रहे हैं।

गिरता जा रहा है लगातार भाषा का स्तर

मीडिया में भाषा का बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है। आमतौर पर टीवी में आने वाले पत्रकार से जनता प्रेरित होती है, जिसके कारण उनकी भाषा मे सौम्यता व नम्रता पाई जानी चाहिए।

दूरदर्शन पर नीलम शर्मा ने कई वर्षों तक काम किया था। उनकी भाषा, सरलता, सौम्यता एवं विनम्रता को देखते हुए जनता सकारात्मक रूप से प्रेरित होती थी। नीलम शर्मा की भाषा उनकी पहचान बन चुकी थी क्योंकि टीवी पर आने वाले चेहरे अपनी पहचान किसी-ना-किसी बल पर बहुत ही जल्दी बनाते हैं।

आज के समय में विडम्बना की बात यह कि जो न्यूज़ एंकर जितना चिल्लाता है, उसे उतनी ही प्रसिद्धी व टीआरपी मिलती है और लोग उसे नायक के तौर पर स्थापित कर लेते हैं। मोहल्ले के किसी गुंडे जैसी भाषा आज न्यूज़ एंकरों द्वारा बोली जा रही है। ‘चिल्लाना, धमकाना और बहकाना’ यह सब वो पर्दे पर उकेर कर अपने नायकत्व में उछाल लाता है।

लाइव टीवी पर एडिटर्स गिल्ड से इस्तीफा देने पर भी नायकत्व सातवें आसमान पर होता है और हैदराबाद रेप केस पर रोने से भी नायकत्व ऊंचा उठता है। इन कथित राष्ट्रवादी एंकरों की वजह से लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ उखड़-सा गया है। भवानी प्रसाद मिश्र की कविता में कठपुतली कम-से-कम आज़ाद तो होना चाह रही थी लेकिन यह कठपुतली खुद ही नाच रही है और जनता को भी नचा रही है।

Exit mobile version