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दादा साहेब फाल्के एक फोटोग्राफर से कैसे बने भारतीय सिनेमा के पितामह?

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दादा साबेह फाल्के की तस्वीर

भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहेब फ़ाल्के यानी धुंदी राज गोविंद फ़ाल्के का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के करीब एक गांव मे 30 अप्रैल 1870 को हुआ था। फाल्के में कला रुझान बचपन से ही मौजूद था। अपनी कला में रुचि को कायम रखते हुए उन्होंने सन् 1885 मे कला शिक्षा के लिए जे.जे. आर्ट्स स्कूल मे दाखिला लिया। फिर बडौदा स्थित कला भवन भी गए।

फोटोग्रााफर बनकर की थी शुरूआत

शिक्षा के दौरान उनकी बहुमुखी प्रतिभा खूब संवरी और उन्होंने फोटोग्राफी, नाट्य विद्या, स्थापत्य, जैसी उपयोगी कलाएं सीख लीं। सन् 1903 में दादा साहब फाल्के ने पुरातत्व विभाग में फोटोग्राफर के रुप में काम करते हुए चित्रकार, सेट-निर्माण, भ्रम-कला और ‘जादूगर’ का काम भी सीख लिया।

सन् 1909 मे जर्मनी जा कर आधुनिक मशीनों की तकनीक और संचालन के बारे में जाना, मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा के लिथोग्राफी प्रेस मे काम करते हुए उस महान चित्रकार की भारतीय देवताओं की चित्रकला को देखने का अवसर उन्हें मिला। इस अनुभव की अमिट छाप उनकी धार्मिक फिल्म निर्माण पर देखी जा सकती है।

‘लाईफ आफ क्राईस्ट’ से फिल्मों की ओर हुए आकर्षित

फाल्के साहब के जीवन में फिल्म निर्माण से जुड़ा रचनात्मक मोड़ सन् 1910 ‘लाईफ आफ क्राईस्ट’ फिल्म को देखने के बाद आया। उन्होने यह फिल्म दिसंबर के आस-पास वाटसन होटल में देखी थी। वह फिल्म अनुभव से बहुत आंदोलित हुए। इसके बाद उस समय की और भी फिल्मों को देखा।

सिनेमा के बारे मे अधिक जानकारी हासिल करने के लिए अत्यधिक शोध करने लगे। इस क्रम में उन्हें आराम का कम समय मिला, निरंतर फिल्म देखने, अध्ययन और खोज से फाल्के साहब बीमार पड़ गए। कहा जाता है कि बीमारी के दौरान भी उन्होंने अपने प्रयोग जारी रखते हुए ‘मटर के पौधे’ के विकास कालक्रम का छायांकन कर फिल्म बना दी। कालांतर मे इन अनुभवों को फिल्म निर्माण मे लगाया।

फिल्म बनाने की मूल प्रेरणा उन्हें ‘क्राईस्ट का जीवन’ फिल्म देखने से मिली, फिल्म को देखकर उनके मन मे विचार आया कि क्या भारत में भी इस तर्ज़ पर फिल्म बनाई जा सकती है? फिल्म कला को अपना कर उन्होंने अपने ही इस सवाल का ठोस जवाब दिया। फिल्म उस समय मूलत: विदेशी उपक्रम था और फिल्म बनाने के अनिवार्य तकनीक उस समय भारत मे उपलब्ध नहीं थे।

लंदन से ले आएं थे फिल्म बनाने के ज़रूरी सामान

फाल्के साहब सिनेमा के ज़रुरी उपकरण लाने लंदन गए। लंदन मे उनकी मुलाकात जाने-माने निर्माता और ‘बाईस्कोप’ पत्रिका के सम्पादक सेसिल हेपवोर्थ से हुई। कहा जाता है कि इन्होंने ही फिल्म सामग्री खरीदने में फाल्के साहब का मार्गदर्शन किया।

लंदन यात्रा से सफलतापूर्वक विलियम्शन कैमरा और अन्य सामग्री लेकर लौटने के बाद धनराशि जुटा कर लोकप्रिय नाटक ‘राजा हरिश्चंद्र’ पर फिल्म बनाने का निर्णय लिया। फिल्म की कहानी ईमानदार राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र के शासन और जीवन से प्रेरित थी। संकल्प के धनी फाल्के ने फिल्म के उपयुक्त कलाकारों की खोज के लिए ‘विज्ञापन’ निकाला।

उस समय महिलाओं के किरदार पुरुष ही किया करते थे इसलिए उन्हें रानी तारामती के किरदार के लिए कहीं कोई भी महिला नहीं मिली। यह रोल अंतत: सांलुके नामक युवक को मिला। यह फिल्म सन् 1913 मे बनकर तैयार हुई। बंबई कोरोनेशन थियेटर मे 3 मई, 1913 को इसका पहला सार्वजनिक प्रदर्शन हुआ। फिल्म के रिलीज़ के साथ देश मे ‘मूक सिनेमा’ युग के साथ-साथ सिनेमा युग का भी आरंभ हुआ।

फाल्के साहब पूर्व सावेदादा ने विदेश से आयातित कैमरे से नाटकों और विशेष सामारोहों के फिल्मांकन की पहल कर भारत में फिल्म निर्माण की नींव रखी थी। सावेदादा की ही तरह दादा साहेब तोरणे ने ‘पुंडालिक’ नाटक को कैमरे से शूट कर फिल्म की तरह दिखाया। दादा साहेब फाल्के की तुलना मे सावेदादा और तोरणे के उपक्रम को खालिस ‘फिल्म’ नहीं कहा गया।

सिनेमा को समर्पित कर दिया पूरा जीवन

फाल्के साहब ने पूरा जीवन फिल्मों को उस समय समर्पित करने का संकल्प लिया जिस समय सिनेमा की ओर बड़ी ही उदासीनता एवं अविश्वास के साथ देखा जाता था। इस तरह वह भारतीय सिने जगत के पितामह कहे गए। राजा हरिश्चंद्र पूरी तरह से दादा साहेब फाल्के की फिल्म थी, उन्होंने अकेले ही सब प्रबंधन किया। वह उस फिल्म के प्रदर्शक और वितरक भी बने। प्रदर्शक के रुप मे वह अपनी फिल्म लेकर गाँवों में भी गए।

भारतीय फिल्मों के महानतम ‘पथ-प्रदर्शक’ के रुप मे फिल्म निर्माण के मूल उपक्रम से जुडे़ लगभग हर एक विभाग को जन्म दिया। वह अपनी फिल्म के स्वयं ही कला निदेशक, दृश्यकार, कैमरामैन, संपादक, वेश भूषाकार, मेक-अप मैन, डेवलपर, चित्रकार और वितरक थे।

इन कलाओं के ज्ञान से उन्होंने ‘मोशन-पिक्चर’ को मनोरंजन का प्रतिरुप, कला का माध्यम और अमूल्य भारतीय संस्कृति के वाहक के रुप में स्थापित किया। अपने स्वर्णिम अविस्मरणीय योगदान से वह एक संस्था के रुप मे स्थापित हुए।

प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद जुड़े रहे सिनेमा जगत से

फिल्म के क्षेत्र में अभिनव प्रयोग करते हुए उन्होंने भारतीय सिनेमा को सांलुके के रुप मे पहली हिरोईन उस समय दी जिस समय फिल्म में प्रतिभावान कलाकारों की भारी कमी थी। फिल्मों में काम करने के लिए कोई भी राज़ी नहीं होता था। सांलुके ने फाल्के साहब की फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ और ‘लंका दहन’ में काम कर उस समय के सर्वाधिक लोकप्रिय अभिनेता–अभिनेत्री का मुकाम मिला।

दादा साहेब फाल्के ने फिल्म में अपना तन, मन, धन लगाने की पहल की। वह कठिन समय में इस ओर उन्मुख हुए। फिल्म उद्योग के लिए परिस्थितियां प्रतिकूल थीं। बुद्धिजीवी, शिक्षित और आम लोग सभी फिल्मों के भविष्य को लेकर बेहद ऊहापोह में थे और इससे दूरी बनाए रखी। इससे जुडी शंका के बादल लोगों के मन पर हावी थे। लेकिन फाल्के साहब की आशातीत सफलता ने इस पर विराम लगा दिया। लोग फिल्म जगत से जुडे़ने लगे और इसमे रोज़गार का अवसर पाया।

नासिक में खोला एक स्टूडियो

राजा हरिशचन्द्र की कामयाबी के बाद उन्होंने नासिक जाने का निर्णय किया। अब वह नासिक मे फिल्म बनाने लगे। शहर के दक्षिण भाग में उन्हें काफी खुली जगह मिली। यहां पर उन्होंने फिल्म स्टूडियो स्थापित करने का फैसला किया। स्टूडियो के आस-पास सुंदर बगीचा, मंदिर और झरने से दृश्य काफी मनमोहक थे।

नासिक स्टूडियो में भवन, पुस्तकालय, चिड़ियाघर, कलाकारों एवं तकनीशियनों के लिए विश्राम घर जैसी सुविधाएं थीं। मुख्य कार्यालय और रासायनिक प्रयोगशाला यहीं लगाई गई। उन दिनों दृश्य दिन या रात किसी भी समय का हो सभी की शूटिंग खुली हवा में होती थी। फिल्म की शूटिंग के लिए यहां कापी जगह थी।

नासिक मे आकर फाल्के साहब ने अगली फिल्म ‘मोहनी भस्मासुर’ और ‘सत्यवान-सावित्री’ का निर्माण किया। मोहनी भस्मासुर में पहली महिला कलाकार दुर्गा और कमला गोखले ने काम किया। इन फिल्मों के हिट होने से फाल्के साहब लोकप्रिय हुए और अब उनके हरेक फिल्म के 20 प्रिन्ट ज़ारी होने लगे। उस समय की परिस्थितियों मे यह एक महान उपलब्धि थी।

तकनीक के स्तर पर

इन फिल्मो में कुशल तकनीक के रुप मे ‘स्पेशल इफेक्ट’ यानी विशेष प्रभाव का रचनात्मक प्रयोग हुआ। ‘विशेष प्रभाव’ और ‘ट्रीक फोटोग्राफी’ का प्रयोग दर्शकों के आकर्षण का कारण बना, यह एक क्रांतिकारी पहल थी। फाल्के तत्कालीन फिल्म उपकरणों को लेकर बेहद सजग रहे और सन् 1914 में फिर से लंदन गए। लंदन से लौटकर उन्होंने सन् 1917 में नासिक में ही ‘हिन्दुस्तान फिल्म कंपनी’ स्थापित करते हुए अनेक फ़िल्मे बनाई।

अपने यादगार सफर के 25 वर्षों में दादा साहेब ने राजा हरिश्चंद्र (1913), सत्यवान सावित्री (1914), लंका दहन (1917), श्री कृष्ण जन्म (1918), कालिया मर्दन (1919), कंस वध (1920), शकुंतला (1920), संत तुकाराम (1921) और भक्त गोरा (1923) समेत 100 से ज्यादा फिल्में बनाई।

फाल्के पर जार्ज मेलिस का स्पष्ट प्रभाव देखा गया, उनमें दृश्य निर्माण की सुलझी हुई संवेदना के साथ प्रशंसनीय तकनीकी ज्ञान भी था। भारतीय सिने मंच पर आरंभ में मिथक फिल्मों का जादू बना फिर 20 के दशक से परिपाटी में परिवर्तन आया। अब मिथक की प्रतिस्पर्धा में अन्य विचारधारा की फिल्में भी बनने लगी।

फिल्मों का कारोबार बढ़ने लगा व्यवसाय की ओर

फिल्मों के साथ दर्शकों का रुझान बदला एवं कारोबार का स्वरुप व्यवसायिक हो चला। इन परिवर्तनों में फाल्के ने स्वंय को अजनबी पाया और दशक के उतरार्द्ध में फिल्मो से सन्यास लेने का मन बना लिया।

प्रख्यात फिल्मकार आर्देशिर इरानी की आलम-आरा(1931) से ‘सवाक-युग’ का सुत्रपात हुआ। ‘मूक-युग’ एवं फ़ाल्के कालीन सिनेमा के दिन अब समाप्त हो चले। सन् 1932 में रिलीज़ ‘सेतुबंधन’ उनकी अंतिम मूक फिल्म थी। इसके बाद वह एक तरह से इस फिल्मी दुनिया से बाहर रहने लगे। लेकिन संकल्प के धनी फाल्के साहब ने फिर से सवाक फिल्म ‘गंगावतरण’(1937) के ज़रिए सिनेमा जगत मे लौटने का प्रयास किया। हालांकि यह असफल रहा। इस बार फाल्के साहब का जादू नहीं चल पाया। गंगावतरण उनकी पहली और अंतिम सवाक फिल्म रही।

शुरू हुआ ‘दादा साहेब फाल्के सम्मान’

सन् 1938 मे भारतीय सिनेमा ने रजत जयंती पूरी की। इस अवसर पर चंदुलाल शाह और सत्यमूर्ति की अध्यक्षता में एक सामारोह आयोजित हुआ, दादा साहेब फाल्के को बुलाया तो ज़रूर गया लेकिन उन्हें कुछ विशेष नहीं मिला। सामारोह मे उपस्थित ‘प्रभात फिल्म्स’ के शांताराम ने फाल्के साहब की आर्थिक सहायता करने की पहल की। पहल करते हुए वहां आए निर्माताओं, निदेशक, वितरकों से धनराशि जमा कर फाल्के साहब को भेज दिया। इस राशि से नासिक में उनके लिए घर बना। उनके जीवन के अंतिम दिन यहीं बीते।

फाल्के शताब्दी वर्ष 1969 में भारतीय सिनेमा की ओर फाल्के साहब के अभूतपूर्व योगदान के सम्मान मे ‘दादा साहेब फाल्के सम्मान’ शुरु हुआ। राष्ट्रीय स्तर का यह सर्वोच्च सिने पुरस्कार सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया जाता है।

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