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ऑनलाइन क्लास बनाम स्कूली शिक्षा, बेहतर कौन?

online education india

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बंदी के इस दौर में हम एक नई प्रविधि की ओर बढ़ रहे हैं। विवशता में ही सही मगर सरकार ने ऑनलाइन शिक्षा के लिए पहल की है। सामाजिक माध्यम और मीडिया में यह सवाल बार-बार उठाया जा रहा है कि यह कहां तक व्यावहारिक है?

निश्चित तौर पर इसकी सीमाएं हैं मगर जब परंपरागत गुरुकुल पद्धति में बदलाव कर आधुनिक शिक्षा पद्धति लागू की गई होगी, तब सीमाएं तो आधुनिक शिक्षा की भी महसूस हुई होंगी।

आधुनिक शिक्षा ने ही शिक्षा को एक बंद दरवाज़े से खुले दरवाज़े की ओर जाने का रास्ता दिखाया और शिक्षा के अवसर की समानता दी, उसी तरह यह नवाचारी शिक्षा उसमें कुछ नई सम्भावनाएं पैदा करती हैं।

आधुनिक शिक्षा प्रदान करने का अगला ज़रिया क्या है?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

शिक्षा शिक्षकों के निजी परिसर से निकलकर पाठशालाओं, विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की अपेक्षाकृत खुली ‘चौहद्दी’ तक आई है। तो इनकी भी सीमा तोड़कर आगे बढ़ेगी ही और बढ़ी भी है।

यह चौहद्दी तोड़ना अभी सूचना की ओर ही उन्मुख है। गूगल, विकिपीडीया, ई-पाठशाला, ई-पीजी पाठशाला आदि इस दृष्टि से उपयोगी माध्यम बन कर उभरे हैं।

क्या आप जानते हैं कि इनकी दो दिक्कतें भी हैं? पहली प्रामाणिकता और दूसरी गंभीरता का अभाव। पहले का सम्बंध मुख्यतः गूगल, विकिपीडिया और यूट्यूब तथा निजी ब्लॉग्स से है और दूसरे का संस्थानों से।

पहली कमी का कारण विशेषज्ञता का अभाव और शुद्ध व्यवसायिकता है। तो दूसरी का कारण सांस्थानिक भ्रष्टाचार तथा रुचि और प्रतिबद्धता की कमी के साथ ही तकनीकी-कुशलता का अभाव भी है। 

प्रायः संस्थानों में कार्यरत शिक्षक-फेलो अपनी निजी उपलब्धियों, निजी रुचियों और शिक्षा को तकनीकी माध्यमों से जोड़ने के प्रति उदासीनता के शिकार हैं। उनमें नए प्रयोगों के बजाय परम्परागत शिक्षण-परिपाटी के प्रति सुविधा प्रेरित आकर्षण अधिक है।

यह अरुचि और उदासीनता केवल शिक्षण संस्थानों तक सीमित नहीं है, बल्कि शिक्षा पर शोध और समग्री विकास के लिए स्थापित संस्थान भी इसमें कंधा से कंधा मिला कर चल रहे हैं ।  

क्या कोई पाठ्यक्रम केवल कुछ भी पढ़ाकर पास करने के लिए बनाए जाते हैं?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

यह स्थिति भले ही अचानक पैदा हुई हो मगर सरकारी योजनाओं में इसकी तैयारियां काफी पहले से चल रही हैं, जो आज तक इसी स्थिति में पहुंची है। कुछ महीने की परंपरागत कक्षाओं की बंदी से सरकारें और संस्थान पाठ्यक्रमों में कटौती की बात करने लगे हैं।

इससे एक दूसरा सवाल पैदा हो गया है कि क्या कोई पाठ्यक्रम केवल कुछ भी पढ़ाकर पास करने के लिए बनाए जाते हैं? या उनके पीछे कुछ निश्चित उद्देश्य और लक्ष्य भी होते हैं? जिन्हें टीचिंग-लर्निंग की प्रक्रिया में लर्नर द्वारा प्राप्त किया जाता है?

कम-से-कम पाठ्यक्रम निर्माण समितियों द्वारा ऐसी ही घोषणा पाठयक्रम निर्माण के समय की जाती हैं। प्रायः उसे पाठ्यक्रम की भूमिका के रूप में नत्थी कर प्रकाशित-प्रसारित भी किया जाता है।

ऐसे में पाठ्यक्रम में कटौती जैसे कदमों की प्रासंगिकता क्या है? यदि इस कटौती किए गए पाठ्यक्रम के बिना भी यह पाठ्यक्रम अपने आप में पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों और उद्देश्यों को पूरा करने में सक्षम है, तो विद्यार्थियों पर अतिरिक्त पाठ्यक्रम का बोझ क्यों?

शिक्षक और अभिभावक होने के नाते मेरा निजी अनुभव

एक शिक्षक और अभिभावक दोनों भूमिकाओं में मेरा निजी अनुभव यह है कि बंदी के इस दौर में किए जा रहे शिक्षण को शिक्षकों द्वारा नई चुनौती या सम्भावना के रूप में ना लेकर एक विवशता के पर्याय के रूप में लिया जा रहा है। जबकि यह दौर इसके प्रयोग का एक उपयुक्त अवसर है।

इसका एक पहलू यह भी है कि ऑनलाइन शिक्षा को बहुत से शिक्षक अपनी नौकरियों पर संकट के रूप में भी देखते हैं। जबकि शिक्षण संस्थान केवल रोज़ी-रोटी देने के ज़रिया भर नहीं हैं।

आज नहीं तो कल इन्हें री-कंस्ट्रक्ट होना ही होगा जिसमें इन शिक्षकों को अपनी नई भूमिका तलाशनी होगी। अवसर कम नहीं होंगे, बल्कि बढ़ेंगे।

शिक्षा के क्षेत्र में सांस्थानिक प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ शिक्षकों में भी बेहतर प्रस्तुति की प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और इसका लाभ शिक्षा और शिक्षार्थी दोनों को मिलेगा। तोता रटंत और परिपाटीबद्ध ज्ञान की तुलना में नए शोध और इनोवेशन को वास्तविक रूप में बल मिलेगा।

सहायक शिक्षण सामग्रियों की प्रासंगिकता

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

वर्तमान में शिक्षार्थी जिस संस्थान में नामांकन कराता है, प्रायः उसी परिसर के संसाधनों शिक्षकों और पुस्तकालय आदि का उपयोग कर पाता है। कुछ बड़े संस्थानों या विश्वविद्यालयों आदि को छोड़कर प्रायः महाविद्यालयों और विद्यालय के पुस्तकालय हमारे देश में समृद्धि नहीं हैं।

ऐसे में विद्यार्थी को नया सीखने-जानने के पर्याप्त अवसर कैसे उपलब्ध होंगे। विद्यार्थी या तो अपने अध्यापकों द्वारा दी गई शिक्षा और सामाग्री तक सीमित होता है अथवा वह सहायक पुस्तक सामग्रियों पर आश्रित हो जाता है जिनमें से अधिकांश व्यावसायिक उद्देश्यों से तैयार की जाती हैं। 

उन शिक्षण सामग्रियों की गुणवत्ता को लेकर सवाल भले उठते रहे हैं लेकिन उन्हें रोकने का कोई स्थाई उपाय नहीं दिखाई देता है। शिक्षकों की तकनीकी दक्षता और उसकी एक बंद परिसरीय मनः स्थिति अथवा अपने पूर्वाग्रहों के कारण वे मुक्त-परिसर पर उपलब्ध सामाग्री की बाढ़ के बीच विद्यार्थियों के लिए उनमें से सामाग्री चयन में सहयोगी भी नहीं बन पा रहे हैं। 

समस्या का समाधान

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

समस्या का समाधान यह है कि सस्थानों में शिक्षकों की तुलना में रिसोर्स पर्सन, रिसर्चर, कंटेन्ट डेवलपर और फेलो की संख्या बढ़ाई जाए। ऑनलाइन अधिगम-सहायक सामाग्री का विकास किया जाए।

यह माध्यम किसी एक परिसर, वहां के संसाधनों और शिक्षकों पर विद्यार्थियों की निर्भरता कम करेगा। किसी एक विषय पर विद्यार्थियों को विविध सामग्रियों और शिक्षण शैलियों से परिचित होने एवं उनमें से अपने लिए उपयुक्त सामग्री के चयन की स्वतन्त्रता देगा।  

विद्यार्थियों के भीतर उस विषय पर विभिन्न समग्री की तुलना से तर्क और विवेक शक्ति को विकसित करेगा। शिक्षा को सब्जेक्टिव से ऑब्जेक्टिव बनाने में मददगार होगा। तब सही अर्थों में शिक्षण अधिगम के प्रत्येक स्तर पर ऑब्जेक्टिविटी को शामिल किया जा सकेगा। अन्यथा यह ऑब्जेक्टिव प्रश्न पूछने की रस्म अदायगी तक ही सीमित रहेगी। 

गुरुकुल परंपरा में ज्ञान सीमित के हाथों में कैद था, उसी तरह आज यह चौहद्दियों में बंद है

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

जिस तरह गुरकुल परंपरा में ज्ञान सीमित वर्ग के हाथ में था, उसी प्रकार आज भी परिसरों की चौहद्दियों में बंद है। सभा-संगोष्ठी के सीमित अवसरों के अलावा प्रायः शैक्षिक परिसर परस्पर आदान-प्रदान और संवाद नहीं करते हैं।

खुला माध्यम होने से यह संवाद विकसित होगा और शिक्षण प्रक्रिया में पारदर्शिता तथा गुणवत्ता को प्रोत्साहन मिलेगा।  

विश्वविद्यालय, विद्यालय या पाठशाला में दी जा रही शिक्षा की भी यह समस्या है कि वह स्टूडेंट्स को निर्णय करने की स्वतंत्रता नहीं देता है। शिक्षण संस्थान की एक सीमा यह भी है कि वह एक निश्चित समय और निश्चित स्थान पर उपलब्ध कराई जाती है। विद्यार्थी को उसकी रुचि सुविधा और सहज मानसिक स्थिति में सीखने के लिए प्रेरित नहीं करते।

शिक्षण संस्थान की चौहद्दी एक परिसरीय वातावरण का निर्माण तो करती है लेकिन स्टूडेंट्स के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से संभावनाएं ऑनलाइन शिक्षा में अधिक मानी जा सकती हैं।

सच तो यह है कि उसका परिसरीय जीवन उसे जीवन और समाज की सहज-स्थितियों से अलग एक सुरक्षित और सुविधाप्रद वातावरण भी मुहैया कराता है जिससे उसकी सामाजिक सच्चाइयों से काटने की संभावना भी रहती है। ऐसे में उस सुविधा और सुरक्षा से परे उसका जीवन सामाजिक वास्तविकताओं के बीच विकसित हो सकेगा।

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