जब हमारे देश को स्वतंत्रा मिली तो देश ने दुनिया के सबसे बड़े और वृहद संविधान की रचना की। इसके पीछे सिर्फ उनकी एक ही मंशा थी कि देश के हर इंसान को चाहे वो अमीर हो या गरीब, दलित हो या आदिवासी, हिन्दू हो या मुसलमान, महिला हो या पुरुष सभी को समान कानूनी अधिकार प्राप्त हो सके और भारत के हर एक इंसान का समावेशी विकास किया जा सके।
इसके लिए हमारे देश की सरकारों ने बहुत सारी योजनाएं एवं नियम बनाएं लेकिन इन सबके बीच जो समाज का सबसे कमज़ोर समूह, जिसे हम आज आधुनिक अर्थो में LGBTQ+ कम्यूनिटी के नाम से जानते हैं, उनकी बेहतरी के लिए कोई भी काम नहीं किया गया।
शब्दों के ज़रिये LGBTQ+ कम्यूनिटी का होता है शोषण
काम ना करना तो ठीक है मगर इससे भी उपर सरकार ने उन्हें एक अंग्रेज़ी कानून, जिसे हम आर्टिकल-377 के नाम से जानते हैं, उसकी तलवार उनके गले पर लटका दी। तबसे लगभग 70 साल बीत गए, उन्हें पता नहीं कितनी मानसिक, लैंगिक, सामाजिक, पारिवारिक और सांस्कृतिक आदि प्रताड़नाओं को झेलना पड़ा।
आप सोच भी नहीं सकते कि उनका कितना शोषण हुआ। शायद अभी अगर मैं उनमें से एक का भी ज़िक्र करूं तो आपकी रूह कांप जाएगी। आज भी बहुत से लोग इस समाज के लोगों को मीठा, गुड़, चासनी, नामर्द और छक्का आदि जैसे नामों से संबोधित करते हैं।
कुछ लोग तो किन्हीं को हिदायत देते हुए कहते हैं कि थोड़ा मर्द बन जा पूरी जनानियों वाली हरकतें करता है। थोड़ा कम हिला-डुला कर! मीठा है क्या?
सेक्शुअल आइडेंटिटी छुपाने की जद्दोजहद
शायद उनको पता भी नहीं होगा कि इस ग्रुप का बहुत छोटा सा तबका है जिनको आप देखकर पहचान सकते हैं कि वे क्या हैं लेकिन ज़्यादातर संख्या ऐसे लोगों की है जो बिल्कुल हेट्रोसेक्सुअल जैसे दिखते हैं लेकिन वे होमोसेक्सुअल होते हैं।
जब ये लोग इस तरह का बर्ताव दूसरे लोगों के प्रति देखते हैं तो वे अपनी सेक्सुअलिटी को लेकर डर जाते हैं। उन्हें लगता है कि वे अगर अपने बारे में उनको बताएंगे तो वे उनके साथ भी ऐसा ही बर्ताव करेंगे।
आखिरकार वे खुद की सेक्शुअल आइडेंटिटी को छुपा लेते हैं जिसके बाद सोशल प्रेशर में शादी और उसके बाद कई मामलों में नौबत तलाक तक आ जाती है।
सामाजिक दबाव में खुद की ज़िदंगी के साथ-साथ एक और ज़िंदगी खराब होती है। वैसे अभी बहुत सी बातें करनी हैं लेकिन एक ही आर्टिकल में सब कुछ समेटना संभव नहीं है, इसलिए फिर कभी बात कर लेंगे।
आज के लिए बस इतना ही कहूंगा कि उन्होंने अपने बचपन से जितना भी दर्द झेला होता है, अगर उसका हमें एक भी प्रतिशत झेलना पड़े तो हम शायद टूट जाएं।
मुझे आपसे कुछ और नहीं चाहिए, मैं तो बस आपसे इतना ही कहूंगा कि हो सके तो आप अपना नज़रिया बदलिए और आंखें खोलकर देखिए कि वे भी हम में से एक हैं।
हमें अब और नहीं पूर्वाग्रहों के सहारे जीना चाहिए। उन्हें खुले मन से स्वीकार करना चाहिए। अंत में मै बस इतना ही कहूंगा कि होमोसेक्सुअलिटी कोई बीमारी नहीं, बल्कि होमोफोबिया एक बहुत बड़ी बीमारी है जिससे बाहर निकलने की ज़रूरत है।