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कैसे ज्योति के असली सवालों को हौसले, हिम्मत और बहादुरी की कहानी के पीछे दबा दिया गया?

Jyoti Kumari from Bihar

ज्योति अपने पिता के साथ: तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

बीते कुछ दिनों से ज्योति की कहानी सुन रहा हूं। ज्योति, जो अपने पिता को साईकिल पर बैठाकर गुडगांव से दंरभंगा ले आई। उसके हौसले और हिम्मत को सलाम है।

लेकिन इन सब से बीच एक चीज़ हो रही है। ज्योति के हौसले और हिम्मत का इस्तेमाल सरकारें अपनी नाकामयाबी छिपाने के लिए कर रहीं हैं। कोई फोटो खिचवानें जा रहा है, तो कोई मिठाई खिलाकर उसे बधाई दे रहा है। इन सबका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाला जा रहा है। इसे बेशर्मी कहना ही ठीक होगा।

बेशर्म हो गई हैं सरकारें

बेशर्मी इसलिए क्योंकि किसी को उसके इतनी दूर साईकिल चलाकर लौटने का कोई दुख नहीं है कि वो कैसे इतनी लंबी दूरी तक साईकिल चलाकर वापस आई है? उसे इसमें कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ा होगा? आखिर इसका ज़िम्मेदार कौन है कि उसको मजबूर होकर ऐसा करना पड़ा? उसको बस, ट्रेन जैसी सुविधाएं सरकार क्यों नहीं दिला पाई?

बस, ट्रेन के बाद हवाई जहाज पढ़ने की आदत होगी न आपको। समझ सकता हूं लेकिन ज्योति और उसके जैसे तमाम लोगों के लिए सरकारों ने बस, ट्रेन के अलावा साईकिल का जुगाड़ किया है कि जब वो उन्हें बस और ट्रेन ना दे पाएं तो कोई एक ज्योति निकल आए जिससे सरकारें अपनी नकामयाबी को छिपाने में कामयाब हो जाए।

ज्योति अपने पिता के साथ तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

सरकार आखिर कौन-सी बहादुरी दिखा रही है?

ज्योति बेशक बहादुर है लेकिन उसको बहादुर बताकर खुद की गलतियों को छिपाने वाली सरकार को एक बार अपनी बहादुरी के बारे में भी सोचना चाहिए।

ऐसे समय में, जब लाखों लोग सड़कों पर हजारों किलोमीटर भूखे-प्यासे पैदल चलने को मजबूर हैं, ज्योति के जैसे साईकिल चलाकर अपने गांव वापस जाने को मजबूर हैं। तब सरकार कौन-सी बहादुरी दिखाने में व्यस्त है? आत्मनिर्भर बनने वाली या 20 लाख करोड़ के पैकेज वाली बहादुरी में?

ज्योति के असली सवालों को दबा दिया गया

दरअसल ये सारे बेसिक सवाल कोई नहीं पूछ रहा है। शायद, ये सब सवाल गुड़गांव से निकलते वक्त ज्योति के मन में भी रहे होंगें। क्या पता अब भी हो? लेकिन वो चुपचाप सब देख रही हो कि कैसे उसके सारे असली सवालों को बड़ी चालाकी से उसकी बहादुरी, हिम्मत और हौसले की कहानी के पीछे दबा दिया गया।

अब भी ना जाने कितनी ज्योति साईकिलों से, पैदल, ट्रकों और ट्रालियों पर चढ़कर अपने गांव पहुंचने के लिए निकलीं तो ज़रूर हैं लेकिन रास्तों में कहीं गुम हो गईं हैं।

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