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“पीरियड्स के दौरान मुझे पूजा-पाठ करने और मंदिर जाने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती”

माहवारी के दौरान रसोई में ना जाना, मंदिर में ना जाना, सिर धोना, अचार ना छूना आदि धारणाएं मेरे अंदर माहवारी शुरू होते ही मेरी दादी ने डाल दी थीं। क्योंकि ‘बड़ों की बात माननी चाहिए’ इसलिए मेरे अंदर इन धारणाओं ने धीरे-धीरे मजबूती बना ली। लड़कियों की तरह मैं भी अपने परिवार और आस-पास इन्हीं सब बातों का पालन करते हुए और देखते हुए बड़ी हुई।

जैसे-जैसे मैं बड़ी हुई और मेरी समझ बढ़ने लगी, तो मन में इन सब धारणाओं को लेकर सवाल उठने लगे कि इन सबको ना माने तो क्या होगा?

एक दिन दादी से पूछ भी लिया कि माहवारी में मंदिर क्यों नही जाते हैं? तो जबाब मिला, “यह ठीक नही है, उन दिनों हम अपवित्र होते हैं इसलिए हम नहीं जाते हैं।”

मेरे सवाल का उत्तर मुझे भी सही लगा, क्योंकि मैंने पूजा पाठ वाली किताबों में भी यही पढ़ा और सुना था। कथा कहने वाले संत भी हमेशा यही सुनाते या कहते हैं कि हमें मंदिर नही जाना चाहिए?

यह सब मेरे शादी से पहले के अनुभव रहे हैं। मेरी शादी के बाद मेरे ससुराल में अधिकतर लोग काफी पढ़े लिखे हैं और नौकरी भी करते हैं। यहां मुझे माहावारी के दिनों में रसोई में काम करने पर मनाही नहीं थी मगर बाकि सभी धारणाएं ज्यों की त्यों थीं।

लेकिन मेरे पति जो कि विज्ञान विषय के टीचर हैं वे मुझे हमेशा कहते कि इन धारणाओं को मानने में क्या रखा है? और खासकर तब जब एक बार हम मनाली घुमने गए तब वहां मुझे पीरियड्स आ गए और हमें मंदिर जाना था।

मेरे पति ने बहुत कहा कि कुछ नहीं होता चल लो मंदिर, यह सब तो एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। तो मैंने पलटकर कहा कि आपको नहीं पता है पाप लगता हैं। ऐसे में हम अपवित्र होते हैं, क्योंकि हमारे धर्म-ग्रन्थ भी यही कहते हैं। व्रत की कथा-कहानियों में भी यही कहा जाता है कि हमें माहवारी में पूजा-पाठ नहीं करना चाहिए और मंदिर नहीं जाना चाहिए।

मैंने एम.ए. संस्कृत से पढ़ाई की है। इसमें भी मैंने रजो गुण, तम-सत्व गुण, आदि के बारे में पढ़ा है जिसमें माहवारी के समय महिला को 3 दिन तक अलग-अलग जातिसूचक शब्दों से जोड़ा गया है। इस तरह कुल मिलाकर इस धारणा को लेकर मेरे विचार पूरी तरह से रुढ़िवादी थे।

फिर मुझे ‘रूम टू रीड’ की ट्रेनिंग में जुड़ने का मौका नवम्बर 2019 में मिला। वहां हम सभी करीब 40 लोग थे। वहां हमारे साथ जेंडर जैसे मुद्दे पर खुली चर्चा हुई। जेंडर क्या है ? प्राकृतिक लिंग और सामाजिक लिंग क्या हैं? जेंडर अवधारणा कैसे बनी? और किस तरह से हम इससे प्रभावित होते हैं? इन सब पर काफी खुली चर्चा हुई।

वहां अलग-अलग विचारों वाले लोगों के बीच में मैंने माहवारी के समय की जाने वाली रोक-टोक और धारणाओं पर अपने विचारों सहित दोनों तरह के मत रखने वाले लोगों को सुना। सभी के बीच तर्क-वितर्क भी हुए कि हमें उक्त सभी धारणाओं को मानना चाहिए तो क्यों और नहीं तो क्यों नहीं मानना चाहिए? हमने जेंडर और समाज में पाई जाने वाली धारणाओं से सम्बन्धित कुछ कहानियां सुनी और वीडियोज़ भी देखें।

वहां हुई सभी चर्चाओं से मेरे अंदर एक द्वन्द चलने लगा कि मैं जो मान रही हूं क्या वो सही है? ये चर्चाएं पूरे समूह में चार दिनों तक चलती रहीं लेकिन यह चिंतन-मनन और द्वंद तो मेरे साथ लगातार तब तक चलता रहा जब तक मैंने इसे तोड़ नहीं दिया।

पीरियड्स के दौरान भी पूजा करती हैं प्रियंका

यह अवसर मुझे दिसम्बर 2019 में मिला जब मैं परिवार सहित उदयपुर घूमने गई और वहां मुझे पीरियड्स आए लेकिन मुझे वहां के मंदिरों को देखना था तो मैंने हिम्मत करके माताजी और श्रीनाथ जी के मंदिर चली गई मन डगमगा भी रहा था कि किसी तरह का कोई पाप ना लग जाए लेकिन दूसरी तरफ ट्रेनिंग के दौरान तथ्यभरी बातें और विचार भी मुझे सहारा दे रहे थे। वहां मैंने दो मंदिरों दर्शन किए।

मेरे पति मेरे द्वारा तोड़ी गई इस रुढ़िवादी विचारधारा से काफी खुश थे लेकिन मुझे कहीं-न-कहीं डर अब भी था कि घर वालों का रवैया क्या होगा। घर आकर मैंने सबसे पहले अपनी ननद को यह बात बताई तो उन्होंने मुझे सहारा देते हुए कहा, “तो क्या हुआ, अब तो पढ़ा लिखा समाज है, यह सब बातें अब आम हो गयी हैं, फिर बार-बार तो कोई घूमने जाया नहीं जाता है।” उन्होंने भी मुझे हिम्मत दी।

अब मुझे माहवारी में पूजा पाठ करने और मंदिर जाने में कोई हिचकिचाहट नहीं है। क्योंकि ये सब प्रक्रिया प्राकृतिक हैं और इससे संबंधित जो भी धारणाएं हैं, यह समाज द्वारा बनाई गयी हैं।

मैं हर महिला लड़की को भी यही सन्देश देना चाहती हूं कि हमें किसी भी सामाजिक धारणा को मानने से पहले उस पर विचार और तर्क करना चाहिए। मन में आ रहे अनसुलझे सवालों को परिवार, समाज और अपने टीचर्स से पूछना चाहिए। यह सच है कि माहवारी एक नेचुरल प्रक्रिया है जिसका इन धारणाओं से कोई लेना-देना नहीं है। यह धारणाएं सिर्फ समाज में महिलाओं को निर्बल बनाने के लिए समाज के कुछ रुढ़िवादी लोगों के द्वारा बनाई गयी सोच है। हमें इनको नकारना चाहिए।

प्रियंका मौर्य

अध्यापक, के.जी.बी.वी- कुचामन, सिटी-नागौर, राजस्थान।

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