जब लॉकडाउन घोषित किया गया तब हर किसी की फिक्र यह थी कि इतना वक्त घर में भला कैसे काटा जाएगा। लॉकडाउन के कारण जब सभी घर में कैद थे तब मैंने जाना घर का हर एक कोना आपका दोस्त बन सकता है।
ज़रूरत है तो बस उसे वक्त देने की। यूं तो मैं लम्बे समय से घर से दूर रहती आई हूं, शायद इसलिए कभी महसूस ही नहीं कर पाई कि घर पहुंचना और घर में मौजूद रहना दो अलग बातें हैं।
वक्त हर रिश्ते की पहली ज़रूरत है
लॉकडाउन की फुर्सत में जो सबसे बेहतर मिला वह है वक्त, यही वक्त हर रिश्ते की पहली ज़रूरत है जिसे हम जल्दबाज़ी में कब से भूल बैठे थे।
इस थोड़ी फुर्सत से ही मैंने जाना दादी की झुर्रियां अब भी बेबाकी के साथ कैसे मुस्कुराती हैं। अक्सर ही चुपचाप उन्हें, उनके तजुर्बों को सुन लिया करती थी। पहली बार इतनी फुर्सत मिली तो जाना कि दादी अपने बेटे को डांट लगा सकें कि वह भी तो बचपन में कितने ज़िद्दी थे।
मैंने अब जाकर जाना कैसे एक उम्र से बगैर किसी खीझ के माँ सब कुछ संभाले चली जा रही हैं। यह इस समझ का ही नतीजा है कि मैं चुपचाप उनकी हर बात मानने लगी हूं। शिकायतों और फरमाइों का कोई पहाड़ अब उनके सामने खड़ा नहीं करती हूं।
लॉकडाउन ने रिश्तों की गाठें खोल दी हैं
हर रिश्ता एक-दूसरे के लिए कुछ ज़्यादा ही फिक्रमंद हो गया है। घर की छतों, बरामदों पर अब पतंगों के साथ हंसी, खिलखिलाहट भी बांटी जाने लगी हैं। बेशक इस महामारी के दौर ने हमें कैद कर लिया है लेकिन क्या वाकई कैद जैसा कुछ घर, छत, दीवारों या चेहरों पर रह गया है?
लगता है जैसे लॉकडाउन ने रिश्तों की बहुत सी गांठें खोल दी हैं। वे सभी अपने जो बेफिक्र से थे कुछ-कुछ फिक्रमंद हो गए हैं। हर कोई घर पहुंच जाने, मिलने-मिलाने को बेताब सा है। यकीनन लॉकडाउन ने कुछ रोज़ मुझे परेशान रखा, उसके बावजूद भी आज कल कुछ लिखना ज़रूरी नहीं लगता है, क्योंकि अब चेहरों को पढ़ने लगी हूं।
उम्मीद है जब सब कुछ ठीक होगा काम पर लौटने के बाद हम में से हर एक चेहरा घर लौटने की थोड़ी बेसब्री के साथ मिलेगा। वे सारे लोग जो घर के आंगनों में एक साथ बैठे नज़र आ रहे थे, फिर कुछ फुर्सतें तलाशकर साथ बैठे नज़र आएंगे। महामारी ने कितनी भी बड़ी मार दी हो लेकिन रिश्तों को बहाल रखने के लिए वक्त का मरहम भी दिया है।