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‘लॉकर रूम’ जैसी घटनाएं मनुस्मृति द्वारा स्थापित स्त्रीविरोधी मानसिकता का नतीजा हैं

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फोन चलाता एक स्कूली लड़का

भारतीय महिलाओं के लिए पुरुषसत्ता प्राचीन काल से ही जंजीर बन कर खड़ा रहा है। नारी को प्राचीन काल से ही का इस समाज ने दोयम दर्जे़ का माना है।

महिलाओं की आज़ादी से मनुस्मृति को क्यों है दिक्कत?

मनुस्मृति के नवमो अध्याय में कहा गया है कि पुरुष को अपनी स्त्रियों को कभी भी स्वतंत्र नहीं होने देना चाहिए। बाल्यकाल में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र उनकी रक्षा करे, स्त्री स्वतंत्र होने योग्य नहीं है।

साधारण कुसंगों से भी स्त्रियों को बचाएं क्योंकि अरक्षित स्त्रियां दोनों कुलों को दुख देती है। धन संग्रह, खर्च सफाई, पतिसेवा, धर्म, रसोई और घर को संभालने में ही स्त्री को लगाए। मद्यपान, दुर्जनसंग, पति से वियोग, घूमना, सोना, दूसरों के घर रहना ये सब के स्त्रियों के दूषण होते हैं। स्त्रियां रूप और अवस्था को नहीं देखती, केवल पुरुष देखकर ही मोहित हो जाती हैं। वह कुरूप हो या सुरूप। ब्रम्हा के रचे ऐसे स्त्रियों के स्वभाव जानकार उनकी रक्षा का खूब उद्योग करें।

सोना, बैठे रहना, गहने पर प्रेम करना, काम, क्रोध, उद्धतपना, दूसरों से द्रोह और दुराचार स्त्रियों में जन्मजात है ऐसा मनु ने कहा है। स्त्रियों के जात, कर्म आदि संस्कार मंत्रो से नहीं होते इसलिए वे धर्मरहित होती हैं। असत्य के समान है, यह धर्म शास्त्र की मर्यादा है।

इस प्रकार मनुस्मृति संहिता में स्त्रियों के खिलाफ तमाम बातें लिखी हुई हैं, जिसे हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति के नाम पर हजारों सालों तक लागू किया गया है। इस प्रकार घृणित मान्यताओं का आज भी हमारे समाज में बहुत ज्यादा बोलबाला है। महिलाओं में जन्मजात ही कोई क्षमता नहीं होती यह मनु संहिता कहती है और इसलिए स्त्रियों को स्वतन्त्रता नहीं देनी चाहिए ऐसा कहा जाता रहा है।

किस संस्कृति की बात करती है मनुस्मृति?

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो क्या महिलाएं पुरुषों से किसी क्षेत्र में कम है। लेकिन अपनी पुरुषसत्ता को कायम रखने के लिए इस समाज में ऐसे नियम तय किए गए है। महिलाओं का पुरूषों से किसी भी क्षेत्र में कम न होने के बावजूद भी समाज के ज़्यादातर लोग आज भी रूढ़िवादी मानसिकता का शिकार है। जैसे कि अधिकतर बलात्कार के मामलों में कहा जाता है कि लड़की को सही कपड़े पहने चाहिए, मर्यादा में रहना चाहिए और पढ़-लिख कर अपने रहन-सहन से लड़कियां संस्कृति को बिगाड़ रही हैं।

लेकिन सवाल यह है कि हमारी संस्कृति क्या है? स्त्रियों को अधिकारों से वंचित रखना ही हमारी धर्म और संस्कृति है? हमारे समाज का एक हिस्सा जिसे हम आदिवासी कहते हैं उन आदिवासी समुदायों में कभी हमें बलत्कार जैसी घटनाएं कम ही देखने को मिलती हैं। वहां लड़का और लड़की का भेद भी नहीं दिखाई पड़ता है। वे जन्म को प्रकृति का सृर्जन मानते हैं, उसे एक उत्सव की तरह मनाते हैं। चाहे लड़का पैदा हो या लड़की।

पोशाख एवं परिधान से भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती, न उनमें कभी बलपूर्वक किसी महिला का शोषण होता है। ज़्यादातर इनकी महिलाओं का शोषण गैर आदिवासी समुदाय के पुरुषों के द्वारा किया जाता है, जो  खुद को सभ्य और उनको असभ्य समझते है। सिंधु घाटी की प्राचीन सभ्यता जो की मातृसत्तात्मक थी वह मेरे अपने सोच से आदिवासी सभ्यता के अधिक नजदीक है। मध्ययुगीन उत्तर वैदिक ब्राह्मण धर्म की सभ्यता जो महिलाओं को जंजीरों में बांधकर रखती है, क्या उसे हम अपनी संकृति और सभ्यता कहें?

क्यों महिलाओं को ही दी जाती है हिदायत?

दिल्ली की बॉयज लाकर रूम की घटना का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है जो ध्यान देने योग्य है, जिस लड़की ने इस मामले को सबके सामने लाया उसने अपनी पोस्ट में यह लिखा कि अब ये रिपोर्ट करने बाद उसके माँ ने उसे इन्स्टाग्राम सोशल मीडिया छोड़ने के लिए कहा है। क्या आज भी हम इस सामाजिक विषमतावादी व्यवस्था से क्या इतना ऊपर उठ पाएं हैं कि लड़कियों बिना डरे और ससम्मान से रहने के लिए प्रोत्साहित कर सकें।

जिन लड़कों ने ये चर्चा की उनका न इन्स्टाग्राम सोशल मीडिया छुड़वाया जाएगा और न उनके सोशल मीडिया चलाने पर कोई आपत्ति की जाएगी, क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में उनको ये प्रीविलेज मिला हुआ है। अपराधी चाहे पुरुष ही हो लेकिन सोशल मीडिया तो लड़की को ही छोड़ना पड़ेगा। यही हमारे प्रगतिशील समाज की असल सच्चाई है।

समाज में पुरुषत्व, लैंगिक अत्याचार की संकल्पनाएं, पुरुषसत्ता के द्वारा सत्ता को प्रस्थापित कर खुद के पुरुषत्व को सिद्ध करने के लिए किए जाने वाले प्रयास और उन्हीं प्रयासों से महिलाओं के शरीर पर उत्पन्न होने वाली स्वामित्व की भावना और इसी स्वामित्व के द्वारा महिलाओं का किया जाने वाला वस्तुकरण इस प्रकार के अनेक पहलू इस मामले से संबन्धित है।

स्त्री और पुरूष के आधार पर आखिर कब तक बंटा रहेगा समाज

हमारे समाज की व्यवस्था में किसी भी व्यक्ति की सोच और समझदारी विकसित होने के पहले ही वो स्त्री है या पुरुष इस आधार पर यह सीखाया जाता है कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। महिलाओं को पुरुषसत्ता के द्वारा वस्तु माना गया है। जिसके पास शक्ति होती है, वह शक्तिशाली या शक्ति के मालिक के रूप में जाना जाता है जिसके पास शक्ति नहीं है वह शक्तिहीन अथवा वस्तु के रूप में मानी जाती है।

शासक शक्तिहीन पर शक्ति और बल का प्रयोग कर सकता है और वस्तु का स्वामित्व खुद के पास रखकर वस्तु को जैसे चाहे वैसे उपयोग कर सकता है। सामाजिक व्यवस्था के इस सत्ता खेल में शक्तिशाली पुरुषसत्ता शक्तिहीन महिलाओं का वस्तुकरण कर उपभोग करना चाहती है। यह सिलसिला निरंतर चलता रहेगा जब तक की घर-घर में लैंगिक भेदभाव समाप्त नहीं होता और परिवार लड़का और लड़की के भेद से ऊपर नहीं उठता।

घरों में ही ही समझदारी आते ही जब तक ये नहीं सिखाया जाता कि लड़का और लड़की में केवल शारीरिक संरचनाओं का फर्क है ना कि क्षमताओं का। समाज में जब तक पूरी तरीके से ‘नेशनल चेंज’ नहीं होगा तब तक पुरुषसत्ता के इस प्रकार के अनेक लॉकर रूम मौजूद हैं, थे और रहेंगे।

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