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इंटरव्यू: “पीरियड्स के बारे में बात करने पर मुझे कैरेक्टरलेस कहा गया”

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स्वाति सिंह महावारी पर एक वर्कशाप के दौरान (फोटो साभार: फेसबुक) 

आज जब हम माहवारी, पीरियड जैसे शब्दों को बोलने में हिचकिचाते हैं। इन मुद्दों को आज भी हमारा समाज बात करने लायक नहीं मानता है। वहीं इन मुद्दों पर स्वाति सिंह लम्बे समय से काम कर रही हैं। स्वाति सिंह मेंस्ट्रुअल हाइज़ीन मैनेजमेंट पर जमीनी स्तर पर काफी काम कर रही  हैं. उनके काम को और ज्यादा दिलचस्प बनाता है, उनका ये कहना कि उनके सभी टीम मेम्बर्स पुरुष हैं।

स्वाति सिंह ने इस मुद्दे को समाज के आगे रखने का जिम्मा खुद लिया। हमसे बात-चीत के दौरान वो बताती हैं कि जब उन्होंने माहवारी को एक मुद्दा या कहिए समझ के रूप में लोगों तक पहुंचाने का निर्णय लिया, तब उनके ही मित्रों और परिचितों ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें माहवारी को छोड़ किसी और विषय पर काम करना चाहिए

स्वाति सिंह, (फोटो साभार: फेसबुक) 

आईये जानते हैं कैसे कि उन्होंने इसकी शुरुआत और कैसा रहा है अब तक का उनका सफर?

सृष्टि तिवारी: स्वाति, जब फिल्म पैडमैन आई तब लगा कि लोगों में माहवारी के विषय को लेकर संवेदनशीलता आएगी। क्या आपको लगता है कि उसके बाद लोग महावारी को लेकर ज़्यादा संवेदनशील हुए हैं?

स्वाति सिंह: मैं इस फ़िल्म को अपने काम से ही जोड़कर बताती हूं। जैसा कि हम माहवारी पर पैडमैन आने के बहुत पहले से काम कर रहे हैं लेकिन मुझे हमेशा कहा जाता रहा तुम कोई और मुद्दा लो इस पर तो तुम्हें कोई ढेला भी नहीं देगा बगैरहबगैरह।

वहीं मेरे सभी सातों टीम मेम्बर पुरुष हैं। जब हम माहवारी पर बात करने जाते तब मुझसे ज्यादा अजीब प्रतिक्रिया उनको मिलती थी या कह सकते हैं लोग उन्हें हेय दृष्टि से देखते थे कि ये क्या ही काम कर रहे होंगे। लेकिन पैडमेंन के बाद वही लोग आगे आए और हमारी तारीफ की कि ये एक ज़रूरी मुद्दा है इस पर बात की जानी चाहिए। वहीं कुछ अखबारों ने फिल्म से प्रभावित होकर चौपाल कार्यक्रम भी रखना शुरू किया

वे आगे कहती हैं कि पैडमैन फिल्म ने पैड्स को बेशक़ बढ़ावा दिया है लेकिन माहवारी का जो असल मुद्दा है वो कहीं पीछे रह गया है

सृष्टि तिवारी: सैनेटरी पैड्स की तमाम बहसों के बीच बायो डिग्रेडेबल पैड्स की तो बात ही नहीं होती है। ऐसा क्या किया जाए कि बायो डिग्रेडेबल पैड्स को समाज में स्वीकार किया जाए?

स्वाति सिंह: जी हां, बिल्कुल बायो डिग्रेडेबल पैड्स पर तो कहीं कोई बात नहीं कर रहा है लेकिन हम ग्रामीण क्षेत्रों में सेल्फ हेल्प ग्रुप (स्वयं सहायता केंद्र) को प्रमोट कर रहे हैं। जिससे वे अपना कॉटन बायो डिग्रेडेबल पैड्स खुद बनाएं ताकि उन्हें हर बार हमारा मुंह ना ताकना पड़े।इसका असर ये है कि लगभग दस गांव ऐसे हैं जहां सिलाई केंद्र में प्रशिक्षण लेती लड़कियां इन्हें बना रही हैं। साथ ही बहुत सी संस्थाए और स्कूल इन्हें बनवा रहे हैं और उपयोग भी कर रहे हैं। एक तरह से ये उनके लिए रोज़गार का साधन भी बना है।

इसको अपनाने की एक वजह है, बारबार उन्हें इसके लिए प्रेरित करना। वहीं हाल ही में संस्कृति मंत्रालय द्वारा भी हमारे इस आईडिया को बेस्ट प्रैक्टिस में लिया गया था। शहरी क्षेत्रों में  ये एक बेहतर विकल्प बन सकता है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में जहां लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं, वहीं शहरी क्षेत्रों में ये समझाना बहुत जटिल हो रहा है।

बायो डिग्रेटबल पैड्स एक तो प्रकृति को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। वहीं हमने अपने सर्वे में देखा है कि प्लास्टिक पैड इस्तेमाल करने वाली महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर की समस्या देखी जाती है। ग्रामीण क्षेत्रो में 80 प्रतिशत महिलाओं की बच्चेदानी को इसीलिए निकाल दिया जाता है। लेकिन बायो डिग्रेडेबल की कीमत बहुत ज्यादा होती है 

सृष्टि तिवारी: पीरियड्स से जुड़े टैबूज़ को खत्म करने की हम तमाम बातें करते हैं लेकिन चीज़ें वहीं जाकर खत्म हो जाती हैं कि रसोई में नहीं जाना है, पूजा नहीं करना है। ये सारी चीज़ें कैसे ख़त्म होंगी ?

स्वाति सिंह: बिल्कुल लोग पीरियड्स पर तो बात करना चाहते हैं लेकिन मिथ्य पर नहीं। पीरियड्स पर तो बहुत हद तक लोग जागरूक हो चुके हैं और मेरा ये काम शुरू करने का मक़सद यही था कि हमें इन मिथ्यों पर बात करना है

जब मुझे बनारस में एक महिला समूह ने वर्कशॉप के लिए बुलाया था। वहां कक्षा आठ तक की बच्चियां मौजूद थीं तब किसी बच्ची ने पूछा कि महावारी के दौरान पूजा क्यों नहीं कर सकते?

तब मुझे रोकते हुए उनमें से एक महिला ने कहा आप रुकिए मैं देती हूँ इसका जबाब और लगभग झिड़कते हुए बोलीं,क्यों जी, बड़ी दादी अम्मा बनी हो 4दिन पूजा नहीं करोगी तो मर जाओगी क्या?

तब मैंने कहा बेटा याद रखो ये खून गंदा नहीं होता और जब गंदा नहीं होता तब हम अपवित्र कैसे हुए? ये चीज़ें खुलकर बात करने पर ही खत्म होंगीं जैसे हम कहीं भी वर्कशॉप के लिए जाते हैं तब पूरी प्रोसेस वीडियो के द्वारा सारी चीज़ें बताते हैं

स्वाति सिंह महावारी पर एक वर्कशाप के दौरान (फोटो साभार: फेसबुक)

सृष्टि तिवारी: पीरियड्स का जब भी जिक्र होता है तब हम अक्सर समुदायों में बंट जाते हैं। आदिवासी समुदाय की कोई बात ही नहीं करना चाहता है। आप उन्हें किस तरह देखतीं हैं?

स्वाति सिंह: जी, बिलकुल लेकिन हमने आदिवासी क्षेत्रों में भी काम किया है। जैसे हाल ही मैं खजुराहो के पास ही हमने एक वर्कशॉप किया था। जहां किशोरियों ने हमसे पूछा पैड का इस्तेमाल करते कैसे हैं।

मतलब उनके पास जानकारी का ऐसा कोई साधन नहीं और इतनी अनभिज्ञता है कि लोगों को इसकी कोई जानकारी ही नहीं है और हो भी तो उनके पास खरीदने का सामर्थ्य नहीं है। वे पूरी तरह से कपड़े पर ही आश्रित हैं और उनकी स्थिति ये है कि उनके पास पहनने तक को ठीकठाक कपड़ा नहीं होता है। 

सृष्टि तिवारी: आपने पीरियड पर काफी काम किया है। कोई ऐसा अनुभव जब आपको लगा हो कि ज़मीनी स्तर पर चीज़ें कुछ ठीक नहीं हैं?

स्वाति सिंह: जी, नए अनुभव तो रोज़ ही मिलते रहते हैं। लेकिन पहली चीज़ जो ठीक नहीं है वो है लोगों का नज़रिया और धारणाएं

जैसे कि मैं बताऊं मास कम्युनिकेशन करने के दौरान हम इसी मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे और वहां बैठे कुछ और पुरुष सहयोगी चर्चा में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे कि हां, इस पर बात की जानी चाहिए

लेकिन बाद में उनमें से ही किसी को कहते सुनास्वातिका कैरेक्टर ठीक नहीं है। भला कोई लड़की लड़कों के बीच इस तरह पीरियड पर बात कैसे कर सकती है? मतलब तब लगा आप पीरियड पर बात करेंगे तो उसे आपके चरित्र से जोड़ लिया जाएगा। जबकि यह एक सहज मुद्दा है असहज कर देने जैसा इसमें कुछ भी नहीं है

सृष्टि तिवारी: टैम्पून्स और मैन्सट्रूल कप के विषय में आपकी क्या सोच है। सरकार द्वारा इसका प्रमोशन क्यों नहीं किया जाता है?

स्वाति सिंह: बेशक़ प्लास्टिक पैड्स का एक बेहतर विल्कप है टैम्पून्स और मैन्सट्रूल कप लेकिन ये हर जगह से गायब हैं। इन्हें बनाने वाली कम्पनियां गायब हैं और जो हैं वे इतनी महंगी हैं की उन्हें लेने से कहीं बेहतर पैड्स का उपयोग समझा जाता है और विशेषकर शहरी क्षेत्रों में एक मानसिकता ये भी है जिसका नाम सुना नहीं उस उत्पाद को कैसे लिया जा सकता है या उस पर भरोसा कैसे किया जा सकता है। 

सृष्टि तिवारी: आप अपने इस काम के जरिये अपने आस-पास कितना बदलाव देख पाती हैं?

स्वाति सिंह: बदलाव तो बहुत हुआ है। जैसे जब हमने पहला वर्कशॉप किया तब सोचा इसे अख़बार में देते हैं कि हमने कुछ शुरू किया है। अखबारों ने खूब सराहा लेकिन छापा गया कि महिला स्वास्थ्य पर लोगों को जागरूक किया। मतलब माहवारी लिखने में कोई भी सहज नहीं था।

उसके कुछ महीने बाद उ.प्र. सरकार के साथ मिलकर हिन्दुस्तान अखबार ने महिला सम्मान में कार्यक्रम रखा। कार्यक्रम के ठीक एक दिन पहले अखबार ने जो सूचना छापी थी, जिसमें जहां सबके काम का परिचय था कि कौन किस मुद्दे पर काम कर रहा है। वहां मेरा परिचय महिला स्वास्थ्य जागरूकता कार्यकर्ता की तरह दिया गया था। जिसके बाद मैंने एडिटर को मेल किया कि अगर आप माहवारी जैसे शब्द पर सहज नहीं हैं तब किसी को भी सम्मान के लिए मत बुलाईयेगा

लेकिन अब ऐसा नहीं है बात करने पर लोगों की झिझक टूटी है और शहरों से कहीं ज्यादा सहज रूप से ग्रामीण इलाकों में लोग इसे व्यवहार में ला रहे हैं इस पर खुलकर बात कर रहे हैं

अपनी बात खत्म करते हुए स्वाति कहती हैं,

“हम काम कर रहे हैं लगातार करेंगे। संस्कृति मंत्रालय ने हमें सम्मानित किया ये बड़ी बात है लेकिन हमें सम्मान से ज्यादा उन संसाधनों की ज़रूरत है जिससे हम अपने आईडिया को लोगों तक पहुंचा सकें।”

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