15 प्रवासी मज़दूरों का रेल की पटरियों पर कट कर मर जाना मात्र एक दुर्घटना नहीं है। यह एक प्रायोजित हत्या है और इसकी ज़िम्मेदार सिर्फ एक राजनैतिक व्यवस्था नहीं बल्कि मैं, आप और वह पूरा मध्यम वर्गीय समाज है जिसके भीतर की इंसानियत ना जाने कब दम तोड़ चुकी है।
यह वही समाज है जो यह तक भूल चुका है की राजनैतिक अंधभक्ति से परे भी एक दुनिया है, क्या आज हम इतनी उम्मीद कर सकते हैं कि जब समाज की इस अंधभक्ति का ये चोला उतरे तो शायद भीतर एक ऐसा इंसान निकले जिसका दिल और दिमाग दोनों आज भी पूरी तरह से से स्वस्थ हो।
कम-से-कम उसे इतना तो अहसास हो कि जिस तथाकथित देशभक्ति के कसीदे पढ़ने में हमारा मीडिया दिन रात एक कर देता हैं उस देशभक्ति में देश निर्माण करने वाले हमारे देश के प्रवासी मज़दूरों का क्या योगदान है।
मज़दूरों को मजबूरन करना पड़ता है पलायन
वे लोग जिनके जल, जंगल, पहाड़ और नदियां कभी बड़े-बड़े बांध बनाने के नाम पर तो कभी विशालकाय प्रतिमाएं बनाने के नाम पर उनसे छीन लिए जाते हैं, इन्हें मजबूरी में मज़दूरी के लिए अपनी मिट्टी को मीलों दूर छोड़ कर बड़े-बड़े शहरों की ओर पलायन करना पड़ता है।
गरीबी इनके लिए पैदा की जाती है, एक ऐसी तस्वीर बनाई जाती है जहां दो भारत बसते हैं। एक शहरी भारत को सींचने का काम हमारे समाज के सबसे कमज़ोर वर्ग पर छोड़ दिया जाता है।
एक लम्बा सफर तय कर के ये लोग हमारे बड़े-बड़े शहरों में आते हैं और अपना खून-पसीना एक कर ऐसे बड़े-बड़े शानदार मॉल बनाते हैं जहां शायद इन्हें भीतर घुसने तक ना दिया जाता है। ये मज़दूर ऐसे ना जाने कितने स्कूल बनाते हैं जहां इनके बच्चों को कभी पढ़ाई ही नसीब नहीं होगी। एक से एक बहुमंज़िला इमारतें बनाने वाले ये लोग खुद शहर के किसी कोने में एक छोटे से कमरे में दस-दस लोगों के साथ रहते हैं।
ऐसा नहीं है कि हमारी राजनैतिक व्यवस्था इन्हें पूरी तरह से भुला देती है, हर चुनाव से पहले इन्हें याद किया जाता है और ट्रक, टैम्पू में भर-भर कर इन्हें राजनैतिक दलों की रैलियों में ले जाया जाता है। फिर इन्हीं के वोट से सरकारें बनाई जाती हैं और फिर से इन्हीं के दमन के लिए काले कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
कानूनी रूप से भी मज़दूरों का लगातार होता रहा है शोषण
आज जब पूरा देश एक वैश्विक महामारी के चपेट में है। बड़े-बड़े शहरों से भारी संख्यां में हम एक ऐसा पलायन देख रहे हैं, जहां भूख, निर्ममता और मीलों-मील चलने वाले लोग जो किसी भी तरह अपनों तक पहुंचना चाहते हैं। वे कहते हैं कि अगर मर भी गए तो कम-से-कम इस बात की खुशी होगी के अपने परिवार के बीच मौत नसीब हुई है। क्या यह सब देख के 1947 के बंटवारे की यादें एक बार फिर से हमारे दिलों में नहीं पसीज जाती हैं?
जहां इस समय में मज़दूरों के लिए भोजन और आजीविका की व्यवस्था की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी वहीं उनके तथाकथित उत्थान के लिए श्रम सुधार कानून के नाम पर एक ऐसा अध्यादेश लाया जाता है जो कार्य समय को 8 से बढ़ाकर सीधा 12 घंटे करने की वकालत करता है।
आज जहां दुनिया भर में अनेकों औद्योगिक संगठन कार्य समय को कम करने पर बल दे रहे हैं, जापान जैसा छोटा-सा देश जहां माइक्रोसॉफ्ट ने हफ्ते में केवल चार दिन काम करने का एक छोट-सा प्रयोग करके यह पाया की उत्पादकता 40% तक बढ़ चुकी थी और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि एक कर्मचारी की उत्पादक क्षमता, खुशी से काम करने पर निर्भर करती है।
कहानी यहीं खत्म नहीं होती। ये श्रम कानून अध्यादेश 30 से अधिक ऐसे कई कानूनों को कुछ सालों तक निलंबित करने की अनुमति देता है जिसका सीधा-सीधा प्रभाव ना सिर्फ मज़दूर को शारीरिक रूप से अक्षुण करेगा बल्कि उसके मानसिक शोषण का भी एक बहुत बड़ा कारण बन सकता है।
एक ऐसे समय में जब देश में चरमराती अर्थव्यवस्था ने ना केवल प्रवासी मज़दूरों को बल्कि समाज के अनेक कमज़ोर वर्ग के लोगों को भूखमरी के कगार पर लाकर छोड़ दिया है, ऐसे समय में श्रम कानून सुधार के नाम पर ना सिर्फ यह शब्दों की हेरा-फेरी है बल्कि ये भारतीय संविधान के गरिमा से जीने के अधिकार की मूल भावना का भी अपमान है।
ऐसे काले कानून, जो इंसान को गुलाम बनने पर मजबूर कर दें उनका एक स्वर में समाज के हर वर्ग को विरोध करना चाहिए और अपने आप से यह पूछना चाहिए कि हम अपने समाज को किस दिशा में ले जा रहे हैं।