जहां आज पूरी दुनिया एक ओर कोरोना महामारी से लड़ रही है, वहीं दूसरी ओर इस महामारी ने दुनिया की कई राजनैतिक शक्तियों को एक ऐसा अवसर दे दिया है जहां वे अपनी ताकतों का गलत प्रयोग करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानो उन्हें ऐसे ही किसी मौके का इंतज़ार था।
लोगों के विरोध से बचना चाहती है सरकार?
अपने ही देश में हम देख रहे हैं कि किस तरह से एक के बाद एक ऐसे निर्णय लिए जा रहे हैं जो शायद नहीं लिए गए होते यदि संसद सुचारु रूप से काम कर रही होती। भारत के अनेकों सार्वजनिक क्षेत्रों उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। कोयला खनन के लिए लॉकडाउन का फायदा उठाते हुए गुपचुप तरीके से संरक्षित वन क्षेत्रों में कोयला खनन की अनुमति दी गई और जंगल के जंगल काटे जा रहे हैं।
असम में रिसर्व वन क्षेत्र इसी का एक ऐसा सबसे बड़ा उदाहरण है। जहां एक ओर भारत सरकार को इस समय इस बात पर ज़ोर देने की ज़रूरत थी कि किस तरह से कोरोना महामारी पर नियंत्रण पाया जाए, वहीं लॉकडाउन की आड़ में सीएए का विरोध करने वाले कई मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, स्टूडेंट्स ओर अनेकों बुद्धिजीवियो को जेल में डाला जा रहा है।
ज़ाहिर है सत्ताधारी दल यह भलीभांति जानती है कि एक ऐसे समय में जब लॉकडाउन के चलते हर व्यक्ति अपने अपने घर में कैद है। विरोध के स्वर को कुचलने का इससे बेहतर अवसर भला और क्या हो सकता है?
यदि संसद सुचारु रूप से कार्यरत होती तो सत्ताधारी दल को विपक्ष के सवालों का सामना करना पड़ता, उसकी जवाबदेही तय की जाती और ऐसे किसी भी निर्णय को लेने से पहले उसे सौ बार सोचना पड़ता।
सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित कर रही है?
कई ऐसे न्यूज़ चैनल्स जो सरकार को आईना दिखाने की हिम्मत करते हैं, उनके संपादकों के खिलाफ कार्रवाई की जा रही है। सरकार बड़ी ही बेशर्मी से विरोध की हर आवाज़ को कुचलने का काम कर रही है। नए-नए हथकंडे अपनाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित किया जा रहा है।
समाज के हर वर्ग और प्रत्येक व्यक्ति को सरकार की निगरानी में रखने के लिए आरोग्य सेतु ऐप के नाम पर उनके निजता के अधिकार से खिलवाड़ किया जा रहा है। आखिर देश के किस कानून के अंतर्गत इसे मेट्रो स्टेशन ओर हवाई अड्डों पर अनिवार्य बनाया जा रहा है?
मेरे फ़ोन में कौन-सा ऐप्प होगा क्या अब यह सरकार तय करेगी? मानो हम जॉर्ज ओरवेल के उपन्यास 1984 में जी रहे हों। ऐसा हर कानून इस देश को फासीवाद के एक ऐसे कुंए में धकेल देगा जहां सिवाय अंधेरे और नाउम्मीदी के कुछ नहीं होगा।
लोगों के मूलभूत सवालों से उनको दूर क्यों रखना चाहती है सरकार?
किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सत्ता के द्वारा उपयोग की जाने वाली शक्तियों और नागरिक अधिकारों में एक संतुलन होना बहुत ज़रुरी है।यदि हमारा समाज किसी भी प्रकार से सत्ता के हाथ की कठपुतली मात्र बनकर रह जाता है तो हम ना सिर्फ स्वयं से बल्कि अपने आने वाली पीढ़ी के साथ भी अन्याय करेंगे।
दुनिया के विभिन्न देशो में तथाकथित राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी ताकतें इस महामारी से पैदा हुई आर्थिक मंदी का फायदा उठाने की भरपूर कोशिश कर रही हैं। कहीं धर्म के नाम पर, कहीं सामुदायिक बंटवारे, तो कहीं एक देश के लोगों को दूसरे देश के लोगों के खिलाफ भड़काया जा रहा है। अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए उन्हीं के बीच से एक दुश्मन पैदा किया जा रहा है, जबकि सच तो यह है कि महामारी, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, परमाणु दुर्घटना आदि किसी प्रकार के धर्म, जाति और देश की सीमाओं में कोई भेदभाव नहीं करती है।
सत्तापक्ष यह जानता है और अपने नागरिकों का ध्यान भटकाने के लिये हर सम्भव प्रयास करती है। ऐसे मौके का फायदा सिर्फ उस समाज के पूंजीपति वर्ग और उसके द्वारा नियंत्रित मीडिया को दिया जाता है जो समाज के विभिन्न वर्गों को ऐसे मुद्दों में उलझाए रखता है। जिससे उसके जीवन से जुड़े मूलभूत सवालों का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता है। यह मीडिया हर उस व्यक्ति को देशद्रोही बताता है जो सत्ता से सवाल पूछने की हिम्मत करता है और देखते ही देखते सरकार स्वयं, राष्ट्र बन जाती है।
एक-दूसरे के सवालों के साथ लोगों को आना होगा आगे
जिस तरह की दुनिया आज हम अपने चारों ओर देख रहे हैं वहां आज अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानूनों का समर्थन करना और भी अधिक महत्वपूर्ण होता जा रहा है। जब सरकारें हमें अपने सबसे कठिन समय मे निराश करती हैं तब समाज के एक वर्ग को दूसरे वर्ग के अधिकारों की रक्षा के लिए सामने आना पड़ता है।
अब लोगों को स्वयं को पहले से ज़्यादा जागरूक बनाना होगा। जिस तरह से हो सके, विषैली विचारधारा का एक स्वर में विरोध करना होगा और लोगों को सत्ता और देश मे जो अंतर होता है वह समझना होगा। मानवता और मानव अधिकारों को हर प्रकार के झूठे राष्ट्रवाद से ऊपर रखकर सबके लिए सोचना होगा और सबको साथ में लेकर चलना होगा।
कोरोना शायद एक शुरुआत मात्र है, जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया को ना सिर्फ भौगोलिक रूप से बदल कर रख देगा बल्कि अनेकों देशों के लोगों के विस्थापित होने का भी एक बड़ा कारण बनेगा और ऐसे समय मे समाज को एक-दूसरे की मदद के लिए हमेशा आगे आना होगा क्योंकि हममें से कोई भी यह नहीं जानता की हम स्वयं कल कहां होंगे?
हममें से बहुत से लोग शायद समाज के सबसे दबे कुचले, जानबूझ कर नज़रअंदाज़ कर दिए जाने वाले वर्ग से हों, हो सकता है हमारे पास पर्याप्त संसाधन ना हो मगर हम इस बात को ना भूलें के हमारे भीतर का इंसान आज भी ज़िंदा है। किसी-ना-किसी रूप में फिर चाहे वह कला हो या साहित्य, वह हमारे भीतर छिपी उस आखिरी उम्मीद को कभी मरने नहीं देगा, वही उम्मीद जो हमें आज भी अपने जल, जंगल, पहाड़ और मानव अधिकारों की रक्षा के लिए सजग बनाती है और यह विश्वास दिलाती है कि जब तक जिन्दा हो, जिन्दा रहना सीखो।