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हिन्दी पत्रकारिता के मिशन से व्यवसायीकरण तक का सफर 

आज ही के दिन वर्ष 1826 में हिंदी के पहले समाचार पत्र का प्रकाशन हुआ था जिस कारण आज के दिन को “हिन्दी पत्रकारिता दिवस” के रूप में मनाया जाता है। जब भी किसी को अपनी बात सहजता से जन-जन तक पहुंचनी हुई उसने समाचार पत्रों का सहारा लिया। फिर वो महात्मा गाँधी हों, तिलक हों या नेहरू।

स्वतंत्रता संग्राम का वो दौर जब पत्रकारिता मिशन थी

भारत में पत्रकारिता का जन्म उस वक्त हुआ जब देश स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा था। पत्रकारिता या यूं कहें हिन्दी पत्रकारिता ने स्वतंत्रता संग्राम में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। समाचार पत्रों ने अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों को काटने का काम किया। यह वो दौर था जब छिप-छिपकर अखबार निकाले जाते थे। अपने लेखों से संपादक देशवासियों में ऊर्जा का संचार करते थे।

समाज की कुप्रथाओं पर बेबाकी से लिखते थे। हिंदी के पहले समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ ने समाज के विरोधाभासों पर तीखे कटाक्ष किए थे। जिसका उदाहरण उदन्त मार्तण्ड में प्रकाशित यह गहरा व्यंग्य है,

‘एक यशी वकील अदालत का काम करते-करते बुड्ढा होकर अपने दामाद को वह सौंप के आप सूचित हुआ। दामाद कई दिन वह काम करके एक दिन आया और प्रसन्न होकर बोला हे महाराज आपने जो फलाने का पुराना और संगीन मोकद्दमा हमें सौंपा था, सो आज फैसला हुआ यह सुनकर वकील पछता करके बोला कि तुमने सत्यानाश किया। उस मोकद्दमे से हमारे बाप बड़े थे तिस पीछे हमारे बाप मरती समय हमें हाथ उठा के दे गए ओ हमने भी उसको बना रखा ओ अब तक भली-भांति अपना दिन काटा ओ वही मोकद्दमा तुमको सौंप करके समझा था कि तुम भी अपने बेटे पाते तक पालोगे पर तुम थोड़े से दिनों में उसको खो बैठे।’

अखबार पढ़ता एक व्यक्ति

जब बढ़ा व्यावसायीकरण का बोलबाला

समय के साथ ही पत्रकारिता में व्यवसायी प्रवृत्ति हावी होने लगीं। जिसके परिणामस्वरूप पत्रकारों के नैतिक मूल्यों का ह्रास होने लगा। जिस कलम में पहले धार थी धीरे-धीरे वो कुंद हो गई है। निष्पक्षता और सत्यता की नींव पर खड़ा हिन्दी पत्रकारिता जगत आज गैल्मर और विज्ञापन की बेड़ियों में जकड़ चुका है। यह स्थिति बहुत ही चिंताजनक है।

पत्रकारों की वर्तमान स्थिति और प्रेस की आजादी

आपातकाल के वक्त देश भर में बलपूर्वक पत्रकारों का दमन किया। आज हिंदी पत्रकारिता के 194 साल पूरे हो चुके हैं लेकिन स्थिति पहले से कहीं ज्यादा खराब हो चुकी है। एक ओर जहां प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 142 पायदान पर पहुंच गया है वहीं पत्रकारों के लिए देश सुरक्षित नहीं है। हर दिन राजनीतिक कारणों से, धन बल और बाहुबल के कारण पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं।

हिन्दी पत्रकारिता का फिर से स्वर्णिम युग में लौटना तो सम्भव नहीं है लेकिन पत्रकारिता जगत में आ रही नई खेप को यह ज़िम्मेदारी समझते हुए पत्रकारिता के वास्तविक रूप को फिर से वापस लाना होगा।

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