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“माँओं को लड़का पैदा करने की ‘ट्रेनिंग’ देने वाला यह कैसा समाज?”

मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कहूंगी कि यह मेरी कहानी है, क्योंकि कभी-ना-कभी ऐसा कई लोगों के साथ ज़रूर हुआ होगा। मेरे लिए माँ पर लिखना उतना ही मुश्किल है जितना कि एक बच्चे का पहली बार पेंसिल पकड़कर ‘क’ ‘ख’ ‘ग’ लिखना।

मैं कोई बड़ी-बड़ी बातें नहीं करूंगी। बस वो बताऊंगी जो आपने भी कभी-ना-कभी देखा-सुना समझा होगा। माँमारे लिए क्या है, यह मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है। हर किसी के लिए माँ का अलग-अलग मतलब और एहसास होगा।

मैं वो पक्ष बताना चाहती हूं जो माँ को देवी नहीं. बल्कि समाज द्वारा बनाए एक इंसान के रूप में  दिखाता है। कभी-कभी लगता है कि समाज जैसी कोई चीज़ हमारी ज़िंदगी में नहीं होती तो ज़िंदगी ज़्यादा आसान होती।

इस समाज ने हमारी ज़िंदगी को बहुत हद कर कंट्रोल कर रखी है। कुछ लोग मेरी इस बात से इत्तेफाक रखते होंगे और कुछ नहीं। यह उस समय की बात है सब वो पहली बार माँ बनने वाली थी। नौ महीने जो तकलीफें परेशानियां होती हैं, उन्हें भी हुईं।

इस बीच जो तीन बच्चों की माँ हो चुकी थीं, उन्होंने भी वही किया जो उनके साथ हुआ था जब वो पहली बार माँ बनने वाली थीं।

उन्हें भी इस बात का शक लगा रहा कि लड़का होगा या लड़की। सुनने में यह नया नहीं है, बहुत आम है। फिर वह दिन आया जब उनके गर्भ में पल रही नन्हीं जान बाहर आने वाली थी। उनको दर्द शुरू हो गया, इसके बाद उन्हें हॉस्पिटल ले जाया गया। वहां डिलीवरी हुई और घर बैठी माँ को फोन पर बताया कि पोती हुई है

इसके बाद का नज़ारा ऐसा था कि कोई पैदा नहीं हुआ, बल्कि मर गया है। हर किसी की आंखों में आंसू थे। इन सबके बीच वो माँ जो अभी-अभी माँ बनी थी, उसको माँ नहीं रहने दिया अपराधी बना दिया।

भी लोग हॉस्पिटल तो गए मगर उनका हाल जानने नहीं समाज में यह बता देने के लिए कि हमें उस माँ की चिंता है जिसने लड़की को जन्म दिया है। हम लड़का-लड़की में फर्क नहीं करते, जाने आजकल कोई ऐसा कैसे कर सकता है।

तब यह नज़ारा कुछ ऐसा था मानो एक माँ के खिलाफ परिवार नहीं एक समाज खड़ा हो, जिसे उसका खून ज़्यादा बहने से पीले पड़े चेहरे का ख्याल नहीं था।

महीने भर खून बहने से होने वाली थकान का ख्याल नहीं था। उसे तकलीफ हो रही है इसका ख्याल नहीं था, बस यह ख्याल था कि लड़की हुई है तो इसके लिए अभी से पैसा इकट्ठा करना शुरू कर दो। प्रधानमंत्री की सुकन्या जैसी किसी योजना के नाम पर उसका खाता खुलवा दो और पैसे जमा कर दो।

बेटा हुआ होता तो सबको न्यौता देकर पार्टी करते, माँ के लिए, बुआ के लिए सोने की कोई चीज़ बनवाते लेकिन बेटी के होने पर कुछ कभी किया हो किसी ने तो हम भी करते मगर हमारे यहां कुछ होता ही नहीं क्या कर सकते हैं।

इसके बाद की कहानी ये रही कि उनको यह बताया-समझाया जाने लगा कि अब आगे दोबारा माँ बनो तो सबसे पूछकर उसका पहले ही जुगाड़ कर लेना ताकि अगली बार लड़का ही हो, ठीक है?

वो माँ जो औरत से पहली बार माँ बनी थी, अब उसको लड़का पैदा करने की ट्रेनिंग शुरू हो गई। ट्रेनिंग में वो भी पूरा-पूरा योगदान दे रही है। सिलसिला चल ही रहा है। आज उनके साथ तो कल आने वाली दूसरी माँ के साथ। फिर किसी और के साथ। यह सिलसिला जाने कितना लंबा चलने वाला है

माँ बनने से पहले और बन जाने के बाद के बीच का जो हिस्सा होता है, वहां मैंने सही मायने में माँ की ममता को महसूस किया है

लेकिन जब उसके जैसी ही कोई और औरत माँ बनती है, तो माँ की ममता जैसे कहीं मर जाती है। रह जाता है तो समाज बस समाज।

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