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“मुझे लगता था कि पीरियड्स आना लड़कियों की कोई बीमारी होती है”

taboos around periods

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मैं बिहार के एक छोटे से जगह से आता हूं, जहां लड़के और लड़कियों के बीच बचपन से अपने आप ही एक लकीर खिच जाती है। जब पांचवी या छठी क्लास में था, तो मुझे याद आता है कि क्लास की लड़कियां अचानक से 8 से 10 दिनों के लिए स्कूल से गायब हो जाया करती थीं।

दोस्तों से पूछता था तो वे कहते थे कि अब वे नहीं आएंगी, कोई कहता था उसकी मम्मी ने मना किया है आने से, सबसे अलग-अलग चीज़ें सुनने को मिलती थीं। हिम्मत करके यदि चोरी-छिपे उनकी सहेलियों से कभी पूछ लिया करता था, तो वे कहती थीं कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है कुछ दिनों बाद आएंगी।

शारीरिक और मानसिक तनाव के बीच माहवारी की जटिलताएं

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

इस दौरान कभी समझ नहीं आया कि आखिर यह कौन-सी बीमारी है, जो हर महीने आया करती है और आश्चर्य यह है कि आती है तो हम लड़कों में क्यों नहीं आती?

फिर जब 10वीं में आया तो जीव विज्ञान की किताब में एक शब्द पढ़ा ‘मासिक धर्म’ फिर इसके बारे में जानने की जिज्ञासा हुई लेकिन उस छोटे से कस्बे में यह संभव नहीं था और जिज्ञासा अधूरी ही रह गई।

कुछ सालों बाद आगे की पढ़ाई के लिए जब दिल्ली आया तो यहां की लड़कियों की सोच थोड़ी अलग थी और उनकी शिक्षा भी। यहां मेरी कई दोस्तों ने अपनी मुश्किल दिनों के दर्द और होने वाली परेशानियों को साझा किया।

सब की कहानियां जानने के बाद पता चला कि यदि हम लड़कों को भी इसके बारे में बचपन से बताया जाए तो लड़कियां जिन मानसिक तकलीफों से इन दिनों गुज़रती हैं, उनसे उन्हें काफी राहत मिलेगी।

जितनी कठिनाई लड़कियों को खुद के अंदर हो रहे इस बदलाव से लड़ने में होती है, उनसे कहीं ज़्यादा मशक्कत उन्हें इसे छिपाने में करनी पड़ती है।

लड़कों को क्यों नहीं बताया जाता है ‘मासिक धर्म’ के बारे में?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

मैं मानता हूं कि हम लड़कों को ये बातें यदि माँ से ही मालूम पड़े तो इसमें कोई बुराई नहीं है। आपकी बेटी जिस तकलीफ से गुज़र रही है, अपने बेटे को उसका एहसास करवाइए।

बताइए कि यह एक प्राकृतिक चीज़ है। जैसे तुम्हारे अंदर हॉर्मोन के स्राव से भूख-प्यास लगती है, वैसे ही यह भी हॉर्मोन की वजह से ही है। तुम्हारी दाढ़ी मूंछों का आना यदि परिपक्वता की निशानी है, तो लड़कियों में भी ये परिपक्वता के संकेत हैं।

यदि इन मुश्किल दिनों में एक भाई अपनी बहन के लिए पानी गर्म करता है जिससे कि बहन को राहत मिले, तो इसमें कोई शर्म की बात नहीं होनी चाहिए।

यदि घरों में ही ऐसी शिक्षा दी जाए, ऐसा माहौल बनाया जाए तो लड़कियां इन मुश्किल के दिनों में भी सामान्य दिनों की तरह बिना किसी मानसिक तनाव के खुलकर जी सकेंगी।

भाई ऐसे वक्त में बहन की मदद करना सीख जाता है, तो आगे वह अपने साथ रहने वाली लड़कियों पर हंसने की सोच नहीं रखेगा और ना ही इस बारे में दोस्तों के साथ बुदबुदाने की उसकी आदत होगी।

इसके विपरीत वे बाकियों की मदद के लिए प्रेरित होंगे। पांचवीं कक्षा के पाठ्यक्रम से ही इसके लिए विशेष कक्षाएं व वर्कशॉप लगाना भी काफी मददगार साबित हो सकता है।

कपड़ा इस्तेमाल करना होता है तकलीफदेह

प्रतीकात्मक तस्वीर।

कई लड़कियों ने बताया है कि कपड़ों के इस्तेमाल से चमड़े छिल जाया करते हैं। फफूंदी जैसे लाल धब्बे निकल आते हैं और ये सब बहुत तकलीफदेह होता है।

ये तो वे नुकसान हैं जिन्हें आप अपनी आंखों से देख रहे हैं। सोचिए ये मामूली कपड़े शरीर के अंदर क्या विनाश करते होंगे?

साफ सूती कपड़ों का इस्तेमाल भले ही आपको हानि नहीं भी पहुंचाती है मगर उनमें स्राव सोखने की वह क्षमता नहीं होती है जो कि बायोडिग्रेडेबल सैनिटरी पैड्स में होती हैं।

आज जब लड़कियां, लड़कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं, तो ऐसे में उन्हें भी अधिकांश समय घर से बाहर व्यतीत करना होता है। चाहे वह शहर हो या गाँव।

ऐसे हालात में कपड़ों में वह क्षमता नहीं होती है कि वे स्राव को इतने लंबे वक्त के लिए सोख सकें। इसलिए भी बायोडिग्रेडेबल सैनिटरी पैड्स का इस्तेमाल ज़रूरी हो जाता है।

भीड़-भाड़ वाले इलाकों जिनमें स्टेशन, महाविद्यालय भी शामिल हैं, वहां पर पैड्स आसानी से उपलब्ध हो सके यह भी सुनिश्चित करना होगा।

लोगों को जागरूक करने के लिए कराए जाएं वर्कशॉप

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

ग्रामीण महिलाओं को माहवारी से संबंधित शिक्षा शायद ही दी जाती होगी। उनकी आर्थिक स्थिति भी सामान्यतः ठीक नहीं होती है इसलिए पैड्स जैसी मूलभूत वस्तुओं पर जितना संभव हो टैक्स कम रखना चाहिए।

पैड्स के निर्माताओं को चाहिए कि वे समय-समय पर ऐसे वर्कशॉप लगाएं जिसके ज़रिये माहवारी के ऊपर खुलकर बात हो सके। विशेषकर ग्रामीण इलाकों में इसकी बहुत ज़रूरत है।

ऐसे वर्कशॉप में नमूने के तौर पर कुछ पैड्स मुफ्त में बांटे जाने चाहिए जिसके इस्तेमाल के बाद महिलाओं को होने वाले सहूलियत का पता चले और वे खुद आगे आकर बांकियों को भी इसके इस्तेमाल के लिए प्रेरित करें और आगे आने वाले समय में इसके ऊपर खर्च करने में भी संकोच ना करें।

इससे निर्माताओं को भी मदद मिलेगी। उम्मीद है कि माहवारी के उच्चारण में जल्दी ही हम संकोच करना बंद कर देंगे और इस पर खुलकर बात हो सके, ऐसा माहौल अपने आस-पास बनाएंगे।

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