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भूख और परदे की बीमारी कैसे बढ़ा रही हैं राजल बाई की मुश्किलें

parde ki bimari

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लॉकडाउन में लोग “परदे की बीमारी” पर नहीं, भूख पर बात करना चाहते हैं। राजल बाई से मैंने हाल-चाल पूछने के लिए फोन किया। राजल कौन? अजी वही, जिन्होंने “परदे की बीमारी” को खत्म करने के लिए मुझमें नया जोश भर दिया था।

राजल कहती है कि तीन दिन हो गए, केवल छाछ पर पूरा परिवार ज़िंदा है। मैंने राजल को फोन ही इसलिए किया था ताकि जान सकूं कि अब उनकी सेहत कैसी है।

पोती भूरकी को फोन करते हुए कहा कि राजल से बात करा दें। बात करते हुए जैसे ही राजल से तबीयत के बाेर में पूछा वो तो जैसे फट पड़ीं। अरे आपको परदे की बीमारी के दर्द की पड़ी है। यहां जो पेट में भूख की मरोड़ लग रही है, उसका क्या करूं?

मैं चौंका और पूछा कि क्या बात है? तो राजल रुंधे हुए गले से में बोली, “पंचायत से 10 किलो गेंहू मिला था वो भी दस दिन पहले, हम 7 सदस्यों के परिवार में वह कब का खत्म हो गया पता ही नहीं चला। काम-धाम भी सब बंद है तो घर में दाना-पानी कहां से आए?

जब मैंने पूछा कि कुछ तो होगा घर में तो उन्होंने कहा, “ऐसे ही कोई भूखा थोड़े ही रहता है?”

मुझे आत्मग्लानि हुई, जब राजल ने कहा, “यह आप सिटी वाले सोचते हो साब, यहां तो रोज़ कुंआ खोदना और रोज़ पानी पीना है। तीन दिन हो गए, केवल छाछ पर पूरा परिवार ज़िंदा है।”

मुझे झटका लगा, मैंने पूछा केवल छाछ पीकर, मतलब?

राजल, बिना लाग लपेट बोलती चली गयी, “जब तक पंचायत का गेंहू था, खा रहे थे, घर में कुछ मक्के की दलिया और मसाले थे तो काम चल गया। एक दिन आंगनबाड़ी वाली बहिन जी आईं और पंजरी (पोषाहार/ टेक होम राशन) की थैली दे गईं। वो भी खत्म हो गया अब कुछ नहीं बचा है। बेटे ने पड़ोस वालों के सामने हाथ फैलाया पर उनकी भी हालत हमारे जैसी ही थी। उन्होंने एक बर्तन भर कर छाछ दे दी। मैं बिस्तर पर पड़ी-पड़ी बस देख सकती थी, मेरे हाथ में कुछ था नहीं। इतना बुरा वक्त तो छप्पनिया काल (राजस्थान में पड़ने वाले अकाल की उपमा) में भी नहीं देखा होगा, पर कर भी क्या सकते हैं?”

पेट की भूख से बड़ी कोई बीमारी है क्या?

अभी क्या खा पी रही हो? मैंने पूछा।

राजल बोलीं, “मक्की का थोड़ा दलिया पड़ा है, उसे छाछ में उबाल कर खा रहे हैं। यह जब तक चलेगा तब तक ठीक, बाकी सब रामजी राज़ी।” इसके बाद मैं निरुत्तर हो गया।

इस समय जब लोगों के सामने खाने को ठीक से भोजन नहीं है, उनके हाथ में कोई काम-धंधा या नरेगा की मज़दूरी नहीं है। ऐसे में उनसे उनकी बीमारी पर क्या बात करनी। सच तो यह है कि पेट की भूख से बड़ी कोई बीमारी है क्या? दूसरी बीमारी तो दवाई लेने पर ठीक भी हो जाती है पर इस पेट की भूख की बीमारी के लिए तो दिन में भोजान जुगाड़ करना ही पड़ता है।

राजल किसी दार्शनिक की तरह बस बोले जा रही थीं और मुझमें महान देश भारत के प्रति होने वाला गर्व काफूर होता जा रहा था।

महिलाओं के स्वास्थ्य का कोई धणी-धोरी नहीं

कोरोना वैश्विक महामारी के चलते लोगों का रोज़गार ठप हो गया है। उस से ज़्यादा बुरी स्थिति रोज़ कमाकर खाने वालों की है। ऐसे गरीब परिवारों के सामने दोनों समय के खाने की चुनौती आन पड़ी है। शहरी लोगों के लिए फिर भी दर्जनों मददगार खड़े हो गए हैं लेकिन वनवासी भोले-भाले आदिवासियों के लिए तो बहुत बड़ी चुनौती आन खड़ी हुई है।

ऐसे में महिलाओं या बीमारों के इलाज की तो बात करना भी बेमानी है। मेनोपोज़ के समय के दर्द से गुज़र रही महिलाओं से उनका हाल चाल पूछने के लिए जैसे-जैसे मैं महिलाओं को फोन करता गया, ज़मीनी हकीकतों से मेरा तार्रुफ होता गया।

किसी महिला को इस वजह से परेशानी झेलनी पड़ रही थी कि उसका पति लॉकडाउन के चलते सूरत में फंस गया है। वह पैसे भी नहीं भेज पा रहा है। इस हालत में यहां महिला को अस्पताल ले जाने वाला कोई नहीं है। उसके पास पैसे भी नहीं है जो वह किसी पड़ोसी को मदद के लिए बोल सके।

लॉकडाउन में कोरोना से बड़ा खतरा सड़क पर पुलिस के व्यवहार से है

एक महिला इलाज के लिए जाना चाहती है लेकिन बाहर सड़क पर निकलते ही पुलिस वाले की गाड़ी आ गई और उसने गंदी-गंदी गालियां दीं। जिससे डर कर वह महिला फिर अस्पताल जाने का सोच भी नहीं पाई।

उसके अनुसार, “पुलिस वालों ने यह मानने से मना कर दिया कि वह ‘बीमार’ है।” क्योंकि बीमारी के लक्षण तो दिखाई दे नहीं दे रहे, वह महिला बोली कि क्या उसको अब घाघरा उठाकर बताऊं कि असली बीमारी कहां है? यह बोलने के बाद ही वह महिला रोने लगी। इसके बाद मेरी उस से आगे बात करने की हिम्मत नहीं हुई।

लॉकडाउन में डॉक्टर हाथ लगाने से डरते हैं

प्रवासी परिवार की एक महिला जैसे-तैसे इलाज के लिए अस्पताल पहुंची। डॉक्टर ने जांच करते हुए पूछा कि पति क्या करते हैं? महिला ने जवाब दिया कि वह बम्बई में कमाते हैं। डॉक्टर ने ठिठक कर पूछा कि अभी वह कहां हैं? महिला ने उत्तर दिया कि साथ आए हैं लेकिन अभी बाज़ार गए हैं। डॉक्टर ने जांच करने से मना करते हुए उसे गालियां देकर घर भगा दिया। उस महिला के अनुसार, “डॉक्टर पूछता तो बताती कि वह तो पिछले तीन महीने से यहीं हैं। गेंहू की सिंचाई करने आये थे, वापस गए ही नहीं।”

गोगुंदा में 4000 से ज़्यादा महिलाएं जूझ रही हैं ‘परदे की बीमारी’ से

एक अनुमान के मुताबिक उदयपुर के गोगुंदा क्षेत्र में इस समय 4000 से ज़्यादा महिलाएं मेनोपोज़ के समय होने वाली परेशानियों से गुज़र रही हैं। इसके साथ ही कई महिलाओं को यौन संक्रमण और दूसरी अन्य गुप्त बीमारियां हैं।

इस लॉकडाउन में यह महिलाएं अपने दर्द और मर्ज़ के साथ जीने को मजबूर हैं। इस समय जब गाँव में एएनएम बहनजी नहीं आ रही हैं तो अस्पताल में डॉक्टर कहां उसके मर्ज़ का इलाज खोजेंगे, इस डर से महिलाएं अस्पताल भी नहीं जा रही हैं।

प्रवासी युवाओं का गढ़ है गोगुंदा

आजीविका ब्यूरो की ‘माइग्रेशन रिपोर्ट’ के अनुसार, गोगुन्दा ब्लाक के 41% परिवारों में कोई न कोई एक व्यक्ति प्रवास पर बाहर है। यह युवा भोजन बनाने, ढाबों पर काम करने, निर्माण कार्य, स्क्रेप इकठ्ठा करने, नमकीन बनाने, पानी पुरी की लॉरी चलाने और सूरत में साड़ियों की फैक्ट्री में काम करने जैसे कामों के चलते साल के आठ महीने घर से बाहर ही रहते हैं।

इस समय लॉकडाउन के शुरूआती दिनों में हज़ारों की संख्या में यह लोग अपने गांव में लौट आए हैं। ऐसे में चिकित्सक वर्ग में कोरोना के कारण डर व्याप्त है। ऐसे में वह इस समय किसी भी प्रवासी या उसके परिवार के सदस्य का इलाज बहुत ज़रूरी होने तक नहीं करना चाहते हैं। यह डर हर वर्ग में हैं। इसके चलते महिलाओं को इलाज नहीं मिल पा रहा है और वह दर्द के साथ जीने को मजबूर हैं।

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