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बॉयज़ लॉकर रूम मामले में फेमिनिज़्म का मज़ाक उड़ाने वाला यह कैसा पितृसत्तात्मक समाज?

bois locker room

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कुछ घंटे पहले तक एक खबर लगभग हर न्यूज़ पोर्टल पर दिख रही थी, “बड़ा खुलासा- बॉयज़ लॉकर रूम में रेप की बातें करने वाली एक लड़की निकली।” खैर, दिल्ली पुलिस को जांच में यह जानकारी मिली है कि सोशल मीडिया पर गैंगरेप वाली बात की जो स्क्रीनशॉट शेयर की गई थी, वह दरअसल स्नैपचैट का स्क्रीनशॉट था।

जब तक दिल्ली पुलिस ने इस बात का खुलासा नहीं किया था, तब तक लोगों ने सोशल मीडिया पर फेमिनिज़्म को लेकर खुब मज़े लिए। इसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही शामिल थे।

जिनका पाला कभी फेमिनिज़्म के “फ” से भी नहीं पड़ा है, वे इस समस्या को दुनिया की सबसे बड़ी समस्या बताकर स्वयं को श्रेष्ठ बताने में तुले हुए थे। इन लोगों को मेरी सलाह यह है कि पहले वे किसी बेहतर साहित्य के ज़रिये पढ़ लें कि फेमिनिज़्म है क्या? फिर नुरा-कुश्ती करें।

बॉयज़ लॉकर रूम की घटना के लिए हमारा समाज ज़िम्मेदार है

खैर, पुलिस की जांच रिपोर्ट आने से पहले जब लोग इस बारे में सोशल मीडिया पर तरह-तरह की बातें कर रहे थे तो वास्तव में मुझे फर्क नहीं पड़ रहा था।

वजह यह कि मैं लड़की पैदा होने पर दादी, मौसी, फूफा और नानी के चेहरे की मायूसी पर भी हैरान नहीं होता था। मुझे हैरानी उन पढ़ी-लिखी महिलाओं से भी नहीं होती है, जो लड़के के जन्म पर बोलती हैं, “बेटा हो गया, अब गंगा नहा लो।”

मुझे ज़रा भी हैरानी नहीं हुई थी जब नॉर्थ ईस्ट की लड़कियों को पढ़े-लिखे लोग ‘कोरोना बास्टर्ड’ कहकर चिढ़ा रहे थे। मैं ज़रा भी परेशान नहीं होता हूं जब पढ़े-लिखे लोग भी रेप के लिए लड़कियों के कपड़ों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं।

मैं इस बात से भी परेशान नहीं होता हूं जब मेरे साथी मित्र कहते हैं कि फेमिनिज़्म के नाम पर झंडा बुलंद करके महिलाएं पुरुषों का शोषण करती हैं।

जब महिलाओं की इतनी सारी बातों के साथ मैंने सामंजस्य बैठा लिया है, तब इस बात से मैं अपनी पेशानी का पसीना क्यों पोछू। मैं शुरू से बॉयज़ लॉकर रूम की घटना के लिए नादान बच्चों को नहीं, बल्कि समाज को कसूरवार मानता रहा हूं।

पितृसत्ता कैसे लड़कियों को भी आकर्षित कर रहा है

समाज में किसी भी लड़के या लड़की के अंदर यह गलत रवैया अचानक से एक दिन में च्यवनप्राश खाकर तो सामने नहीं आया होगा ना! जैसे कोई पुरुष एक दिन में बलात्कारी नहीं बनता है, वर्षों की कोई सोच और परवरिश उसके अंदर घृणित मानसिकता विकसित करती है, उसी प्रकार से कोई स्त्री एक दिन में अपराधी नहीं बनती है, बल्कि पितृसत्तात्मक सोच कई दफा उसे गलत करने को मजबूर करती है।

समाज ने अपने सामाजीकरण में पितृसत्ता को मज़बूत करने के लिए जो खाद डाले हैं, उससे लड़कियां भी आकर्षित हो रही हैं फिर समाज को परेशानी किस बात की?

सामाजीकरण के इस माहौल में एक स्वतंत्र विचारों वाली स्त्री को उपभोग की वस्तु ना समझने वाली, उन्हीं पर अत्याचार ना करने वाली, आत्मनिर्भर औरत कहां से निकलेगी?

यह सच है कि पहले हर बात में जी हुजूरी करने वाली पितृसत्तात्मक महिलाएं सामने आती थीं। आज समय थोड़ा बदल गया है तो पढ़ी-लिखी आत्मनिर्भर, आर्थिक रूप से सशक्त और पितृसत्ता की पोषक महिलाएं लाठी लेकर सामने आ रही हैं।

पितृसत्ता का पोषण करने में पहले पुरुष ही खड़ा है, फिर स्त्री। पुरुषों की संख्या के आगे स्त्रियां आटे में नमक जितनी होंगी। ज़रूरी अधिक यह है कि आसपास के पितृसत्ता पोषकों को सुधारा जाए जिसका प्रयास तमाम फेमिनिस्ट भी करना चाह रही हैं।

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