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कोरोना से बच गए तो क्या भूख से बच पाएंगे देश के मज़दूर?

migrant labourers

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“मज़दूर” चार अक्षरों से बना यह शब्‍द अपनी कहानी खुद ही बयां करता नज़र आता है। शिक्षा से दूर, स्‍वास्‍थ्‍य से दूर, आर्थिक स्थिति से दूर, सरकार से दूर, न्‍याय से दूर, मज़हब से दूर और अपनों से भी दूर! ऐसे ही कुछ हालतों में जी रहा है हमारा आज का मज़दूर।

यह वही मज़दूर है जो इतनी सारी मुसीबतों को झेलते हुए भी राष्‍ट्र-निर्माण में कोई कमी नहीं आने देता है। अफसोस कि दिन-रात मेहनत करके राष्‍ट्र-निर्माण करने वाले ये मज़दूर योद्धा आज कोरोना संकट में भी असहाय की भावना के साथ बिल्‍कुल अलग-थलग से दिखाई दे रहे हैं।

जबसे देश में कोरोना को लेकर लॉकडाउन लागू हुआ है, उसी दिन से इन मज़दूरों की स्थिति को देखकर ऐसा मालूम होता है जैसे इनके सामने कोरोना से भी बड़ा कोई संकट आ गया हो। वह संकट है खुद के जीवन को बचाने का।‌

वह संकट है अपने लिए दो वक्‍त की रोटी का इंतजाम करने का, वह संकट है अपने छोटे-छोटे दूध पीते बच्‍चों के लिए दूध का इंतजाम करने का, वह संकट है अपने घर किसी भी तरह से सुरक्षित पहुंचने का। ऐसी स्थिति में साफ तौर पर कहा जा सकता है कि अगर ये मज़दूर कोरोना से बच भी जाते हैं तो भूख से कैसे बच पाएंगे?

सरकार द्वारा विदेशों में फंसे भारतीयों को, विशेष विमानों से भारत वापस लाया गया, राजस्‍थान के कोटा शहर में आईआईटी, जेईई और मेडिकल जैसे एंट्रेंस एग्‍ज़ाम्‍स की तैयारी करने वाले स्टूडेंट्स को उनके घर वापस भेजने के लिए बसों का इंतजाम किया गया।

मज़दूरों को घर पहुंचाने के नाम पर क्यों खामोशी छा जाती है?

लॉकडाउन के दौरान घर जाते प्रवासी मज़दूर। फोटो साभार- Getty Images

जब बात देश के अलग-अलग हिस्‍सों में फंसे मज़दूरों को उनके घर वापस भेजने की आती है, तब हमारी सरकारें इस तरह से खामोश दिखाई देती हैं जैसे मानो मज़दूरों का इस देश पर कोई अधिकार ना हो। जैसे मज़दूर इस देश के नागरिक ही ना हों। वैसे भी, हो भी क्‍यों ना?

विदेशों से आने वाले लोगों को शायद इसलिए करोड़ों खर्च करके वापस लाया जाता है, क्‍योंकि उनके पास पासपोर्ट है।कोटा में फंसे स्टूडेंट्स को इसलिए लाया जाता है, क्‍योंकि उनके पास महंगी-महंगी कोचिंग संस्‍थानों के आई.डी कार्ड हैंं। मजदूरों के पास क्‍या है? सिर्फ एक राशन या मज़दूरी कार्ड।

आज देश का मज़दूर वर्ग हज़ारों किलोमीटर का कई दिनों तक सफर तय कर रहा है। इस दौरान पैदल, नंगे पैरों में छालों के साथ, भूखे पेट, तपती धूप में पुलिस की लाठियों को खाते हुए, एक हाथ में गठरी तो दूसरे हाथ में अपने नन्‍हें बच्‍चों को लिए अपने घरों तक चलते हुए सड़कों और रेल की पटरियों से होकर चलते हुए नज़र आ रहे हैं।

अभी तक कई मज़दूर हज़ारों किलोमीटर के पैदल सफर में सड़क और रेल हादसों का शिकार हो चुके हैं। वे अपनी जान तक गंवा चुके हैं। आखिर क्‍यों ये मज़दूर बेवजह भूख, प्‍यास, सड़क, रेल, हादसों में मारे जा रहे हैं? क्‍या इनका कसूर सिर्फ इतना है कि ये सभी राशन कार्ड वाले हैं?

कितनी कमाल की बात है कि जिन सड़कों और रेल पटरियों को ये मज़दूर बिछाते हैं, आज उन्‍हीं सड़कों और पटरियों पर वह अपनी जान गंवा रहे हैं। चार रोटी का इंतज़ाम करने के लिए अपने घरों से निकले ये मज़दूर उन्‍हीं चार रोटियों के साथ इन सड़कों और रेल पटरियों पर अपनी जान देने के लिए मजबूर हैं।

कहां है नारी सशक्तिकरण?

सबसे बड़ी शर्मनाक बात यह है कि तपती धूप में हज़ारों किलोमीटर का पैदल सफर तय करने वाले मज़दूरों में महिलाएं भी शामिल हैं। अफसोस कि हम आज भी गर्व से नारी सशक्तिकरण की बात करते हैं।

ऐसे में कुछ ज़रूरी सवाल:

ये मज़दूर आज इतने मजबूर हैं कि ना तो इन्‍हें सरकार का सहारा है और ना ही ईश्‍वर का! जितनी दूरी सुदामा ने श्री कृष्‍ण से मिलने के लिए तय ना की होगी, कोरोना संकट में आज मज़दूर उतनी दूरी अपने घरों तक पहुंचने के लिए तय कर रहे हैं।

ऐसे में वर्तमान सरकारों की मज़दूरों के प्रति हमदर्दी और ईश्‍वर के अस्तित्‍व पर भी सवाल उठना लाज़मी है, क्‍योंकि ये मजबूर हैं, तभी तो मज़दूर हैं।

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