Site icon Youth Ki Awaaz

“जब मज़दूर सवाल करना सीख जाएगा, तब सरकारों की हिम्मत पस्त हो जाएगी”

Migrant Labourers

Migrant Labourers

यूपी, मध्यप्रदेश, राजस्थान समेत करीब दर्जन भर राज्य सरकारों ने मज़दूर अधिकार सम्बन्धित कानूनों को आगे के कुछ सालों के लिए या तो निलंबित कर दिया है या फिर उनमें कुछ परिवर्तन लाया है। यूपी सरकार ने ‘इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट’ समेत करीब 31 कानूनों को निलंबित किया है।

खुद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लेबर कानूनों को बदलने की बात कही है। इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि लाॅकडाउन से अर्थव्यवस्था को बाहर निकालने के लिए यह कदम ज़रूरी है। हमेशा से सरकारें वर्षों की मेहनत से हासिल किए ग‌ए लेबर अधिकारों को छीनने के लिए ऐसे ही तर्क दिया करती हैं।

आखिर इतना निरीह क्यों है मज़दूर?

घर जाते प्रवासी मज़दूर। फोटो साभार- Getty Images

विभिन्न शहरों से जब मज़दूर विस्थापित हो रहे हैं, तो सरकारें उनके अधिकारों को रौंदने पर उतारू कैसे हो सकती हैं? यह हिम्मत सरकारों को कहां से मिल रही है? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि मज़दूर खुद को इतना निरीह महसूस करता है कि वो सरकारों पर उंगली नहीं उठा पाता। जिस दिन उंगली उठाना मज़दूर सीख जाएगा, उस दिन सरकारों की हिम्मत पस्त हो जाएगी।

तो अब प्रश्न यह है कि मज़दूर सरकारों पर उंगली क्यों नहीं उठा पाता? क्योंकि बीच में मिडिल क्लास आ जाता है। मिडिल क्लास का एक भंवरजाल रचा गया है। मज़दूरों को हमेशा से यही सिखाया गया है कि जो जितना ज़्यादा मेहनत करेगा वो उतनी जल्दी इस मिडिल क्लास में शामिल हो जाएगा।

इस थ्योरी के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि जो आज मिडिल क्लास है, वो भी तो एक पीढ़ी या दो पीढ़ी पहले मज़दूर वर्ग से ही था लेकिन इस तथ्य को हटा दिया दिया जाता है कि मिडिल क्लास में भी वही पहुंचे हैं, जो थोड़े संपन्न थे जैसे कि जिनके पास गाँवों में थोड़ी बहुत ज़मीनें थीं जिन्हें बेचकर उन्होंने शहर में कुछ कर लिया और अपनी मेहनत से मिडिल क्लास में शामिल हो गए लेकिन उनका क्या हुआ जिनके पास ज़मीनें नहीं थीं? वे आज भी मज़दूरी ही कर रहे हैं।

क्या आंदोलन ही एकमात्र विकल्प है?

प्रवासी मज़दूर। फोटो साभार- Getty Images

तो यहां पर यह प्रश्न आ जाता है कि इसका हल क्या है? मोदी सरकार के पहले एक्टिविस्ट्स और एलीट क्लास का एक छोटा सा वर्ग हुआ करता था जिसकी सरकारों में पहुंच हुआ करती थी और वक्त आने पर यही वर्ग मज़दूरों के पक्ष में कुछ नीतियां सरकारों से बनवा लिया करता था।

इसी को लोगों ने हल मान लिया था लेकिन मोदी सरकार की एक्टिविस्ट्स और उनकी विचारधारा से जो घृणा है, उसने इस आधे-अधूरे हल को भी समाप्त कर दिया। मोदी सरकार में तो उद्योगपति ही नीति नियंता हैं। अब प्रश्न यह है कि ऐसे हालात में क्या हल हो? इसका हल एक ही है और वह है आंदोलन।

आंदोलन के तीन स्तंभ क्या हैं?

घर जाते प्रवासी मज़दूर। फोटो साभार- Getty Images

ज़ाहिर है आंदोलन करना आसान नहीं है। आंदोलन के तीन आधार स्तंभ होते हैं- विचार, शक्ती और लक्ष्य‌। इन ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के लिए स्ट्रैटजी चाहिए।

विचार- जो एक्टिविस्ट्स अपनी ताकत कल तक सरकारों को प्रभावित करने में लगा रहे थे, उन्हें अब अपनी ताकत मज़दूर वर्ग में हिम्मत और विचार भरने में लगानी चाहिए ताकि वे अपनी नियति के बजाय सरकारों को अपने हालात के लिए दोषी ठहरा सकें। इस तरह से विचार पैदा करने की ज़िम्मेदारी एक्टिविस्ट वर्ग उठा सकता है।

शक्ति- श्रम में मज़दूर वर्ग कभी भी पीछे नहीं रहा है। उन्हीं के श्रम ने अब तक उद्योग से लेकर स्कूल और अस्पताल आदि खड़े किए हैं। बस अब वक्त है उसी श्रम को आंदोलन में लगाने की। इससे आंदोलन का दूसरा स्तंभ पूरा होगा।

लक्ष्य- अब बारी है लक्ष्य की। लक्ष्य का मतलब यह नहीं है कि मज़दूरी खत्म हो जाए, क्योंकि बिना उत्पादन के दुनिया नहीं चल सकती और उसके लिए श्रम ज़रूरी है लेकिन इस श्रम के बदले मिलता क्या है यह प्रश्न अहम है।

दूसरे मुल्कों में जैसी मज़दूरी और जो सुविधाएं मज़दूरों को मिलती हैं, वह भारत के मज़दूरों को क्यों नहीं मिलती हैं, यह प्रश्न अहम है। लक्ष्य इसी प्रश्न को हल करने का होना चाहिए।

जिस दिन भारत के मज़दूरों को भी वैसी ही सुविधाएं मिलने लगेंगी उस दिन श्रम मज़दूरों के सामने मजबूरी नहीं, बल्कि च्वाइस होगा। उसी दिन को साकार करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए।

Exit mobile version