वो रोज़ मुझे बालकनी से जाते हुए देखती हैं और जब तक मैं गली पार करके उनकी नज़रों से दूर नहीं हो जाती इतना कि उनका मुझे देख पाना मुश्किल हो जाए, वो तब तक रोज़ वहीं उस बालकनी पर खड़े रहकर मुझे देखती रहती हैं।
उनका रोज़ मुझे यूं देखना मुझे बचपन से कभी समझ ही नहीं आया। स्कूल से कॉलेज और अब कॉलेज से हम ऑफिस में पहुंच गए हैं।
इन कई सालों में हमारी ज़िंदगी के साथ-साथ हम भी बहुत बदल गए हैं, बस अगर कुछ नहीं बदला है तो वो है मेरी मम्मी का रोज़ मुझे बालकनी से खड़े रहकर जाते हुए देखना।
अब मुझे आदत-सी हो गई है, उन्हें गली में खड़े होकर नीचे से बाय कहने की। मैं कभी उन्हें घर से बाय नहीं कहती क्योंकि मुझे पता है कि वो मुझे बालकनी पर देखने जरूर आएंगी।
जब-जब उन्हें बाय कहने के लिए पीछे मुड़कर हाथ हिलाती हूं तो रोज़ मेरे जहन में यही सवाल आता है कि वो ऐसा क्यों करती हैं?
खाना खा रही हों, चाय पी रही हों या टी.वी पर रोज वाली सुबह-सुबह की भविष्यवाणी देख रही हों। मेरे घर से निकलते ही वो सब कुछ छोड़कर पहले मुझे बालकनी पर आकर देखती हैं और मेरे चले जाने के बाद ही अपने काम पर वापस जाती हैं।
इतने सालों बाद आज जब उनसे पूछा की आप ऐसा क्यों करती हो तो उन्होंने कुछ ऐसा बोला कि लगा तभी इन्हें शायद भगवान से भी ऊंचा दर्ज़ा प्राप्त है।
वो कहती हैं,
“मैं ऐसा इसलिए करती हूं क्योंकि तुम जब घर पर होती हो तब मेरी नज़रों के सामने होती हो तो तुम्हारी छोटी-सी-छोटी और बड़ी-से-बड़ी ज़रूरत को समझ जाती हूं।
मेरे सामने होने पर मैं पूरा ख्याल रखती हूं कि तुम्हारे साथ कुछ गलत न हो, तुम्हें कोई छोटी-सी भी चोट न लग जाए लेकिन जब तुम रोज़ सुबह मेरी नज़रों से दूर जाती हो तो डर लगता है कि कहीं कोई तुम्हें बुरी नज़र से तो नहीं देख रहा है।
मैंने तुम्हें बचपन से लेकर आज तक यही सिखाया है कि रास्ता चाहे ज़िंदगी का हो या ऑफिज पहुंचाने वाला, उस रास्ते पर चलते समय कभी भी पीछे मुड़कर मत देखना ताकि तुम्हारी नज़र सिर्फ आगे आने वाले उस खतरे पर हो जो पत्थर के रूप में रास्ते पर पड़ा हो सकता है।
ठोकर लगकर चलने वालों के पैर अक्सर जख्मी होते हैं और जो पैर जख्मी हों वो कभी तेज नहीं चल पाते। समय के चक्र के साथ स्वंय को ढ़ाल नहीं पाते हैं जो व्यक्ति समय के साथ नहीं चल पाता वो ज्यादा समय तक उस रास्ते पर चल भी नहीं पाता, उनकी मंजिल कहीं छूट जाती है।
उनका एकमात्र लक्ष्य रह जाता है सिर्फ रास्ता काटना। इसलिए मैं हमेशा तुम्हें आगे देखकर चलने को कहती हूं ताकि तुम अपनी मंजिल तक पहुंचो ना कि बस रास्ता काटो।
लेकिन मुसीबतें सिर्फ आगे से ही आएंगी ऐसा निर्धारित थोड़ी है। मुसीबतें तो पीछे से भी आ सकती हैं ना, तो बस मैं उन मुसिबतों पर नज़र रखने के लिए ऐसा करती हूं।
तुम जब आगे देख रही होगी तब कोई ऐसा भी तो होना चाहिए जो तुम्हारे पीछे से आने वाली मुसिबतों पर नज़र रखे और तुम्हें आगाह करे, मैं वही करती हूं।
तुम्हें ऐसा लगता होगा कि मैं तुम्हें देख रही होती हूं पर असल में मैं तुम्हें नहीं बल्कि तुम्हें देखनी वाली दूसरी नज़रों को देखती हूं और उन्हें पढ़ने की कोशिश करती हूं कि वो तुम्हें आखिर क्यों देख रहीं हैं।”
तब जाकर मुझे पता चला कि एक माँ अपने बच्चों की सलामती के लिए कितने प्रयास करती है। पीछे मुड़कर देखना नहीं सिखाती है लेकिन ये भी जानती है कि मुसीबत यहां से भी तो आ सकती है।
उसे अपने सिखाए संस्कारों में भी हमारी चिंता करते हुए अवगुण दिखाई दे जाते हैं। इसलिए बाकी की बची कमी को खुद पूरा कर देती है।
वो माँ है ना इसलिए हम पर पड़ने वाली हर नज़र को वो पहले भांप जाती है। भीड़ में भी अपने बच्चे को अकेले ढूंढ लेती है। हम पर कौन अपनी बुरी नज़र डाल रहा है उस व्यक्ति को भी पहचान लेती है।
वो माँ है ना, वो सब जान लेती है।
मुग्धा भारती